महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक 88-98

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एकोनषष्ठि (59) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनषष्ठि अध्याय: श्लोक 88-98 का हिन्दी अनुवाद

संजय कहते हैं- ऐसा कहकर महानुभाव श्रीकृष्ण ने अपने पुरातन एवं तीक्ष्ण आयुध सुदर्शनचक्र का स्मरण किया। उनके चिन्तन करने मात्र से ही वह स्वयं उनके हाथ के अग्रभाव में प्रस्तुत हो गया।। उस चक्र की नाभि बड़ी सुन्दर थी। उसका प्रकाश सूर्य के समान और प्रभाव वज्र के तुल्य था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वसुदेवनन्दन महात्मा भगवान् श्रीकृष्ण घोड़ों की लगाम छोड़कर हाथ में उस चक्र को घुमाते हुए रथ से कूद पड़े और जिस प्रकार सिंह बढे हुए घमंड वाले मदान्ध एवं उन्मत्त गजराज को मार डालने की इच्छा से उसकी और झपटे, उसी प्रकार वे भी अपने पैरों की धमक से पृथ्वी को कॅपाते हुए युद्धस्थल में भीष्म की और बडे़ वेग से दोडें । देवराज इन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण समस्त शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते थे। वे उन सेना के मध्यभाग में कुपित होकर जिस समय भीष्म की और झपटे, उस समय उनके श्याम विग्रह पर लटककर हवा के वेग से फहराता हुआ पीताम्बर छोर उन्‍हें ऐसी शोभा दे रहा था, मानो आकाश में बिजली से आवेष्टित हुआ श्याम मेघ सुशोभित हो रहो हो । श्रीकृष्ण की सुन्दर भुजारूपी विशाल नाल से सुशोभित वह सुदर्शनचक्र कमल के समान शोभा पा रहा था, मानो भगवान् नारायण के नाभि से प्रकट हुआ प्रातःकालीन सूर्य के समान कान्तिवाला आदि कमल प्रकाशित हो रहा था ।
श्रीकृष्ण के क्रोधरूपी सूर्योदय से वह कमल विकसित हुआ था। उसके किनारे छुरे के समान तीक्ष्ण थे। वे ही मानो उनके सुन्दर दल थे। भगवान् के श्रीविग्रहरूपी महान् सरोवर में ही वह बढा हुआ था और नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण की बाहुरूपी नाल उसकी शोभा बढा नहीं थी ।महेन्द्र के छोटे भाई श्रीकृष्ण कुपित हो हाथ में चक्र उठाये बडे़ जोर से गरज रहे थे। उन्‍हें इस रूपमें देखकर कौरवो के संहारा का विचार करके सभी प्राणी हाहाकार करने लगे । वे जगद्गुरू वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण हाथ में चक्र ले मानो सम्पूर्ण जगत् का संहार करने के लिये उघत थे और समस्त प्राणियों को जलाकर भस्म कर डालने के लिये उठी हुई प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे । भगवान् को चक्र लिये अपनी और वेगपूर्वक आते देख शान्तनुनन्दन भीष्म उस समय तनिक भी भय तथा घबराहट अनुभव न करते हुए दोनों हाथों से गाण्डीव धनुष के समान गम्भीर घोष करने वाले अपने महान् धनुष को खीचने लगे ।उस समय युद्ध स्थल में भीष्म के चित्त में तनिक भी मोह नहीं था। वे अनन्त पुरूषार्थशाली भगवान् श्रीकृष्ण का आहारन करते हुए बोले- ‘आईये, आईये, देवेश्वर! जगन्निवास! आपको नमस्कार है। हाथ में चक्र लिये आये हुए माधव ! सबको शरण देने वाले लोकनाथ ! आज युद्धभूमि में बलपूर्वक इस उत्तम रथ से मुझे मार गिराइये । ‘श्रीकृष्ण ! आज आपके हाथ से यदि मैं मारा जाऊॅगा तो इहलोक ओर परलोक में भी मेरा कल्याण होगा। अन्धक और वृष्णिकुल की रक्षा करने वाले वीर! आपके इस आक्रमण से तीनों लोकों मे मेरा गौरव बढ़ गया’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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