महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 87 श्लोक 82-100

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सप्ताशीतिम (87) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: सप्ताशीतिम अध्याय: श्लोक 82-100 का हिन्दी अनुवाद

शूरवीर पूरूष प्रवर वैकर्तन कर्ण श्रेष्ठ लोक प्राप्त करे; परन्तु विजय तो श्रीकृष्ण और अर्जुन की ही हो। कर्ण और द्रोणाचार्य और भीष्मजी के साथ वसुओं अथवा मरूद्रणों के लोक में जाय अथवा स्वर्गलोक ही प्राप्त करे। देवाधिदेव ब्रह्या और महादेवजी के ऐसा कहने पर इन्द्र ने सम्पूर्ण प्राणियों को बुलाकर उन दोनों की आज्ञा सुनायी।। वे बोले- हमारे पूज्य प्रभुओं ने संसार के हित के लिये जो कुछ कहा है, वह सब तुमलोगों ने सुन ही लिया होगा। वह वैसे ही होगा। उसके विपरित होना असम्भव है; अतः अब निश्चिन्त हो जाओ। माननीय नरेश ! इन्द्र का वचन सुनकर समस्त प्राणी विस्मित हो गये और हर्ष में भरकर श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। साथ ही उन दोनों के ऊपर उन्होंने दिव्य सुगन्धित फूलों की वर्षा की। देवताओं ने नाना प्रकार के दिव्य बाजे बजाने आरम्भ कर दिये । पुरूषसिंह कर्ण और अर्जुन का अनुपम द्वैरथ युद्ध देखने की इच्छा से देवता, दानव और गन्धर्व सभी वहाँ खडे़ हो गये। राजन् ! कर्ण और अर्जुन हर्ष में भरकर जिन रथों पर बैठे हुए थे, उन महामनस्वी वीरों के वे दोनो रथ श्वेत घोड़ों से युक्त, दिव्य और आवश्यक सामग्रियों से सम्पन्न थे।
भरतनन्दन ! वहाँ एकत्र हुए सम्पूर्ण जगत् के वीर पृथक्-पृथक् शंखध्वनि करने लगे। वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने तथा शल्य और कर्ण ने भी अपना अपना शंख बजाया।। इन्द्र और शम्बरासुर के समान एक दूसरे से डाह रखने वाले उन दोनों वीरों में उस समय घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जो कायरों के हृदय में भय उत्पन्न करनेवाला था। उन दोनों के रथों पर निर्मल ध्वजाएँ शोभा पा रही थीं, मानों संसार के प्रलयकाल में आकाश में राहु और केतु दोनों ग्रह उदित हुए हों। कर्ण ध्वज की पताका में हाथी की साँकल का चिन्ह्र था, वह साँकल रत्नसारमयी, सुदृढ़ और विषधर सर्प के समान आकारवाली थी। वह आकश में इन्द्रधनुष के समान शोभा पाती थी। कुन्तीकुमार अर्जुन के रथपर मुँह बाये हुए यमराज के समान एक श्रेष्ठ वानर बैठा हुआ था, जो अपनी दाढ़ों से सबको डराया करता था। वह अपनी प्रभा से सूर्य के समान जान पड़ता था। उसकी ओर देखना कठिन था। गाण्डीवधारी अर्जुन का ध्वज मानो युद्ध का इच्छुक होकर कर्ण के ध्वज पर आक्रमण करने लगा। अर्जुन की ध्वजा का महान् वेगशाली वानर उस समय अपने स्थान से उछला और कर्ण की ध्वजा की साँकल पर चोट करने लगा, जैसे गरूड़ अपने पंजो और चोंच से सर्प पर प्रहार कर रहे हों। कर्ण के ध्वज पर जो हाथी की साँकल थी, वह कालपाश के समान जान पड़ती थी। वह लोहनिर्मित हाथी की साँकल छोटी-छोटी घण्टियों से विभूषित थी। उसने अत्यन्त कुपित होकर उस वानर पर धावा किया। उन दोनों में घोरतर द्वैरथ युद्धरूपी जूए का अवसर उपस्थित था, इसीलिये उन दोनों की ध्वजाओं ने पहले स्वयं ही युद्ध आरम्भ कर दिया। एक के घोडे़ दूसरे के घोड़ों को देखकर परस्पर लाग-डाँट रखते हुए हिनहिना ने लगे। इसी समय कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने शल्य की ओर त्यौरी चढ़ाकर देखा, मानो वे उसे नेत्ररूपी बाणों से बींध रहे हों। इसी प्रकार शल्य ने भी कमलनयन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टिपात किया; परंतु वहाँ विजय श्रीकृष्ण की हुई । उन्होंने अपने नेत्ररूपी बाणों से शल्य को पराजित कर दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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