महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 66 श्लोक 1-20

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षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

नारायणावतार श्रीकृष्‍ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन

भीष्‍मजी कहते हैं- दुर्योधन! तब लोकेश्र्वरों के भी ईश्र्वर दिव्यरूपधारी श्रीभगवान् ने स्नेहमधुर गम्भीर वाणी में ब्रह्माजी से इस प्रकार कहा- । ‘तात! तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो, वह सब मुझे योग बल से ज्ञात हो गयी है। उसके अनुसार ही सब कार्य होगा’- ऐसा कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये हैं । तब देवता, ॠषि और गन्धर्व सभी बडे़ विस्मय में पडे़। उन सबने अत्यन्त उत्सुक होकर पितामह ब्रह्माजी-से कहा- ।‘प्रभो! आपने विनयपूर्वक प्रणाम करके श्रेष्‍ठ वचनों द्वारा जिनकी स्तुति की है, ये कोन थे? हम उनके विषय में सुनना चाहते हैं’ ।उनके इस प्रकार पूछने पर भगवान् ब्रह्मा ने उन समस्त देवताओं, ब्रह्मर्षियों और गन्धर्वों से मधुर वाणी में कहा- ।‘श्रेष्‍ठ देवताओं! जो परम तत्त्व हैं, भूत, भविष्‍य और वर्तमान- तीनों जिनके उत्कृष्‍ट स्वरूप हैं तथा जो इन सबसे विलक्षण हैं, जिन्हें सम्पूर्ण भूतों का आत्मा और सर्वशक्तिमान् प्रभु कहा गया है, जो परम ब्रह्म ओर परम पद के नाम से विख्‍यात हैं, उन्हीं परमात्मा ने मुझे दर्शन देकर मुझसे प्रसन्न हो बातचीत की है। मैंने उन जगदीश्र्वर से सम्पूर्ण जगत् पर कृपा करने के लिये यों प्रार्थना की है कि प्रभो! आप वासुदेव नाम से विख्‍यात होकर कुछ काल तक मनुष्‍यलोक में रहें और असुरों के वध के लिये इस भूतलपर अवतीर्ण हों ।
‘जो-जो दैत्य, दानव तथा राक्षस संग्रामभूमि में मारे गये थे, वे मनुष्‍यलोक में उत्पन्न हुए हैं और अत्यन्त बलवान् होकर जगत् के लिये भयंकर बन बैठे हैं ।‘उन सबका वध करने के लिये सबको वश में करने वाले भगवान् नारायण नर के साथ मनुष्‍ययोनि में अवतीर्ण होकर भूतल पर विचरेंगे ।‘ॠषियों में श्रेष्‍ठ जो पुरातन महर्षि अमित तेजस्वी नर और नारायण हैं, वे एक साथ मानवलोक में अवतीर्ण होंगे ।‘युद्धभूमि में यदि वे विजय के लिये यत्नशील हों तो सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते। मूढ़ मनुष्‍य उन नर-नारायण ॠषि को नहीं जान सकेंगे । ‘सम्पूर्ण जगत् का स्वामी मैं ब्रह्मा उन भगवान् का ज्येष्‍ठ पुत्र हूं। तुम सब लोगों को उन सर्वलोक-महेश्‍वर भगवान् वासुदेव की आराधना करनी चाहिये ।‘सुरश्रेष्‍ठगगण! शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले उन महापराक्रमी भगवान् वासुदेव का ‘ये मनुष्‍य हैं’ ऐसा समझकर अनादर नहीं करना चाहिये ।‘ये भगवान् ही परम गुह्य हैं। ये ही परम पद हैं। ये ही परम ब्रह्म हैं। ये ही परम यश हैं और ये ही अक्षर, अव्यक्त एवं सनातन तेज हैं ।‘ये ही पुरूष नाम से कहे जाते हैं, किंतु इनका वास्तविक रूप जाना नहीं जा सकता। ये ही विश्र्वस्पष्‍टा ब्रह्माजी के द्वारा परम सुख, परम तेज और परम सत्य कहे गये हैं । ‘इसलिये ‘ये मनुष्‍य है,’ ऐसा समझकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं तथा संसार के मनुष्‍यों को अमित पराक्रमी भगवान् वासुदेव की अवहेलना नहीं करनी चाहिये ।‘जो सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी इन भगवान् वासुदेव को केवल मनुष्‍य कहता हैं, वह मूर्ख है। भगवान् की अवहेलना करने के कारण उसे नराधम कहा गया हैं ।‘भगवान् वासुदेव साक्षात् परमात्मा हैं और योगशक्ति से सम्पन्न होने के कारण उन्होंने मानव-शरीर में प्रवेश किया है। जो उनकी अवहेलना करता हैं, उसे ज्ञानी पुरूष तमोगुणी बताते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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