महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 66 श्लोक 21-41

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षट्षष्टितम (66) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: षट्षष्टितम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

‘जो चराचर स्वरूप श्रीवत्स-चिह्नभूषित उत्तम कान्ति से सम्पन्न भगवान् पद्मनाभ को नहीं जानता, उसे विद्वान् पुरूष तमोगुणी कहते हैं ।‘जो किरीट और कौस्तुफ्‍भमणि धारण करने वाले तथा मित्रों (भक्तजनों) को अभय देने वाले हैं, उन परमात्मा की अवहेलना करनेवाला मनुष्‍य घोर नरक में डूबता हैं ।‘सुरश्रेष्‍ठगण! इस प्रकार तात्त्वि‍क वस्तु को समझकर सब लोगों को लोकश्‍वरों के भी ईश्‍वर भगवान् वासुदेव को नमस्कार करना चाहिये’ ।भीष्‍मजी कहते हैं- दुर्योधन! देवताओं तथा ॠषियों से ऐसा कहकर पूर्वकाल में सर्वभूतात्मा भगवान् ब्रह्मा ने उन सबको विदा कर दिया। फिर वे अपने लोक को चले गये । तत्पश्‍चात् ब्रह्माजी की कही हुई उस परमार्थ-चर्चा को सुनकर देवता, गन्धर्व, मुनि और अप्सराएं- ये सभी प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोक में चले गये ।तात! एक समय शुद्ध अन्त:करण वाले महर्षियों का एक समाज जुटा हुआ था, जिसमें वे पुरातन भगवान् वासुदेव की माहात्म्य-कथा कह रहे थे। उन्हीं के मुंह से मैंने ये सब बातें सुनी हैं । भरतश्रेष्‍ठ! इसके सिवा जमदग्निनन्दन परशुराम,बुद्धिमान् मार्कण्‍डेय, व्यास तथा नारद से भी मैंने यह बात सुनी हैं ।भरतकुलभूषण! इस विषय को सुन और समझकर मैं वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्‍ण को अविनाशी प्रभु परमात्मा लोकेश्‍वरेश्‍वर और सर्वशक्तिमान् नारायण जानता हुं ।
सम्पूर्ण जगत् के पिता ब्रह्मा जिनके पुत्र हैं, वे भगवान् वासुदेव मनुष्‍यों के लिये आराधनीय तथा पूजनीय कैसे नहीं हैं? ।तात! वेदों के पांरगत विद्वान् महर्षियों ने तथा मैंने तुम को मना किया था कि तुम धनुर्धर भगवान् वासुदेव के साथ विरोध न करो, पाण्‍डवों के साथ लोहा न लो; परंतु मोहवश तुमने इन बातों का कोई मूल्य नहीं समझा। मैं समझता हूं, तुम कोई क्रूर राक्षस हो; क्योंकि राक्षसों के ही समान तुम्हारी बुद्धि सदा तमोगुण से आच्छन्न रहती हैं ।तुम भगवान् गोविन्द तथा पाण्‍डुनन्दन धनंजय से द्वेष करते हो। वे दोनों ही नर और नारायण देव हैं। तुम्हारें सिवा दूसरा कोन मनुष्‍य उनसे द्वेष कर सकता हैं? । राजन्! इसलिये तुम्हें यह बता रहा हूं कि ये भगवान् श्रीकृष्‍ण सनातन, अविनाशी, सर्वलोकस्वरूप, नित्य शासक, धरणीधर एवं अविचल हैं । ये चराचरगुरू भगवान् श्रीहरि तीनों लोकों को धारण करते हैं। ये ही योद्धा हैं, ये ही विजय हैं और ये ही विजयी हैं। सबके कारणभूत परमेश्‍वर भी ये ही हैं ।राजन्! ये श्रीहरि सर्वस्वरूप और तम एवं राग से रहित हैं। जहां श्रीकृष्‍ण हैं, वहां धर्म हैं और जहां धर्म हैं, वहीं विजय हैं ।उनके माहात्म्य-योग से तथा आत्मस्वरूपयोग से समस्त पाण्‍डव सुरक्षित हैं। राजन्! इसीलिये इनकी विजय होगी ।वे पाण्‍डवों को सदा कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करते हैं, युद्ध में बल देते हैं ओर भय से नित्य उनकी रक्षा करते हैं । भारत! जिनके विषय में तुम मुझसे पूछ रहे हो, वे सनातन देवता सर्वगुह्यमय कल्याणस्वरूप परमात्मा ही ‘वासुदेव’ नाम से जानने योग्य हैं ।ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुभ लक्षणसम्पन्न शुद्र- ये सभी नित्य तत्पर होकर अपने कर्मोंद्वारा इन्हीं की सेवापूजा करते हैं । द्वापरयुग के अन्त और कलियुग के आदि में संकर्षण ने श्रीकृष्‍णोपासना की विधि का आश्रय ले इन्हीं की महिमा का गान किया हैं। ये ही श्रीकृष्‍णनाम से विख्‍यात होकर इस लोक की रक्षा करते हैं ।ये भगवान् वासुदेव ही युग-युग में देवलोक, मर्त्यलोक तथा समुद्र से घिरी हुई द्वारिका नगरी का निर्माण करते हैं और ये ही बारंबार मनुष्‍यलोक में अवतार ग्रहण करते हैं ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्‍मपर्व के अन्तर्गत भीष्‍मवधपर्व में विश्र्वोपाख्‍यानविषयक छाछठवां अध्‍याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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