महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-24
सप्तदशाधिकशततम (117) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
सात्यकि और द्रोणाचार्यका युद्ध, द्रोणकी पराजय तथा कौरव-सेनाका पलायन
संजय कहते हैं- महाराज ! जब सात्यकि जहाँ-तहाँ जा-जाकर आपकी सेनाओंको कालके गालमें भेजने लगे, तब भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्यने उनपर महान बाणसमूहोंकी वर्षा प्रारंभ कर दी। राजन ! संपूर्ण सैनिकोंके देखते-देखते बलि और इंद्रा के समान द्रोणाचार्य और सात्यकिका वह युद्ध बड़ा भयंकर हो गया। उस समय द्रोणाचार्यने संपूर्णतः लोहेके बने हुए विचित्र तथा विषधर सर्पके समान भयंकर तीन बाणोंद्वारा शिनीपौत्र सात्यकिके लालतमें गहरा आघात किया। महाराज ! लालत में धँसे हुए उन सीधे जानेवाले बाणोंके द्वारा युयुधान तीन शिखरोंवाले पर्वत के समान सुशोभित हुए। द्रोणाचार्य अवसर देखते रहते थे । उन्होंने मौका पाकर इंद्रके वज्रकी भाँति भयंकर शब्द करनेवाले और भी बहुत-से बाण युद्धस्थलमें सात्यकि पर चलाये। द्रोणाचार्यके धनुषसे छूटकर गिरते हुए उन बाणोंको दर्शाहकुलनंदन परमास्त्रवेत्ता सात्यकिने उत्तम पंखोंसे युक्त दो-दो बाणोंद्वारा काट डाला। प्रजानाथ ! सात्यकिकी वह पूर्ति देखकर द्रोणाचार्य हंस पड़े । उन्होंने सहसा तीस बाण मारकर शिनिप्रवर सात्यकिको घायल कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने युयुधानकी फुर्तीको अपनी फुर्तीसे मंद सिद्ध करते हुए तेजधारवाले पचास बाणोंद्वारा पुनः उन्हें घायल कर दिया।
राजन ! जैसे बांबीसे क्रोधमें भरे हुए बहुत-से सर्प प्रकट होते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्यके रथसे शरीरको छेद डालनेवाले बाण प्रकट होकर वहाँ सब ओर गिरने लगे। उसी प्रकार युयुधानके चलाये हुए लाखों रुधिरभोजी बाण द्रोणाचार्य के रथपर बरसने लगे। माननीय नरेश ! हाथोंकी फुर्तीकी दृष्टिसे द्विजश्रेष्ठ द्रोणाचार्य और सात्यकिमें हमें कोई अन्तर नहीं जान पड़ा था। वे दोनों ही नरश्रेष्ठ समान प्रतीत होते थे। तदनंतर सात्यकिने अत्यंत कुपित हो झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणोंद्वारा द्रोणाचार्यपर गहरा आघात किया तथा तीखे बाणोंसे उनके ध्वजकों भी चोट पहुंचायी। तत्पश्चात द्रोणके देखते-देखते सात्यकिने सौ बाणोंसे उनके सारथी को भी घायल कर दिया। युयुधानकी यह फूर्ती देखकर महारथी द्रोणने सत्तर बाणोंसे सात्यकिके सारथी कोबींधकर तीन-तीन बाणोंसेउनके घोड़ोंको भी घायल कर दिया । फिर एक बाणसे सात्यकिके रथपर फहराते हुए ध्वजको भी काट डाला। इसके बाद सुवर्णमय पंखवाले दूसरे भल्लसे आचार्यने समरांगणमें महामनस्वी सात्यकि के धनुष को भी खंडित कर दिया। इससे महारथी सात्यकि को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने धनुष त्यागकर विशाल गदा हाथमें ले ली और उसे द्रोणाचार्यपर दे मारा। वह लोहे की गदा रेशमी वस्त्रसे बंधी हुई थी । उसे सहसा अपने ऊपर आती देख द्रोणाचार्यने अनेक रूपवाले बहुसंख्यक बाणोंद्वारा उसका निवारण कर दिया। तब सत्यापराक्रमी सात्यकिने दूसरा धनुष लेकर सानपर तेज किये हुए बहुसंख्यक बाणोंद्वारा वीर द्रोणाचार्यकोबींध डाला। इस प्रकार समरांगण में द्रोण को घायल करके सात्यकिने सिंह के समान गर्जना की। उसे सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य सहन न कर सके। उ
न्होंने सोने की डंडेवाली लोहे की शक्ति लेकर उसे सात्यकि के रथ पर बड़े वेग से चलाया। वह काल के समान विकराल शक्ति सात्यकितक न पहुंचकर उनके रथ को विदीर्ण करके भयंकर शब्द करती हुई पृथ्वी में समा गयी। राजन्। भरतश्रेष्ठ। तब शिनि के पौत्र ने एक बाण से द्रोणाचार्य की दाहिनी भुजा पर चोट करके उसे पीड़ा देते हुए आचार्य को घायल कर दिया। नरेश्वर। तब समरभूमि में द्रोणाचार्य ने भी सात्यकि के विशाल धनुष को अर्द्धचन्द्राकार बाण से काट दिया तथा रथ शक्ति का प्रहार करके सारथि को भी गहरी चोट पहुंचायी। द्रोण की शक्ति से आहत हो सारथि मूर्छित हो गया। वह रथ की बैठक में पहुंचकर वहां दो घड़ी तक चुपचाप बैठा रहा।
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