गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 282

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
3.परम ईश्वर

अग्नि , ज्योति , दिन , शुक्लपक्ष , उत्तरायण -यह एक काल है और धूम , रात्रि , कृष्णपक्ष और दक्षिणायण उसके विरूद्ध दूसरा काल है। पहले मार्ग से ब्रह्म के जाननेवाले ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ; पर दूसरे मार्ग से योगी लोग चान्द्रमसं ज्योतिः को प्राप्त होकर फिर से मनुष्यलोक में जन्म लेते हैं। ये शुक्ल और कृष्ण मार्ग है , उपनिषदों में इन्हैं देवयान (देवताओं का मार्ग) और पितृयान ( पितरों का मार्ग) कहा यगा है ; जो योगी इन मार्गों को जानता है वह भ्रम में नहीं पड़ता। शुक्ल - कृष्ण गति की धारणा[१] के पीछे चाहै जो मानस- भौतिक सत्य हो या यह सत्य को लक्षित करानेवाला संकेतमात्र हो - इसमें संदेह नहीं कि यह धारणा उन रहस्यविदों के युग से चली आयी है जो प्रत्येक भौतिक पदार्थ को किसी - न - किसी मनोमय वस्तु के प्रतीक के रूप में देखा करते थे और जो हर जगह बाह्म ओर आभ्यांतर , प्रकाश और ज्ञान , अग्नि - तत्व और आध्यात्मिक ऊर्जा के बीच परस्पर व्यवहार तथा एक प्रकार के अभेद की ही खोज किया करते थे - यह जो कुछ हो - हमें तो उसी मोड़ को देखना है जिससे गीता इन श्लोकों का उपसंहार करती हैं वह है ‘‘अतएव , सब सयम योगयुक्त रहो।”[२]क्योंकि वही असली बात है , संपूर्ण सत्ता से भगवान् के साथ युक्त होना , इतनी पूर्णता के साथ और इस तरह समस्त भावों से युक्त हो जाना कि यह योग स्वभाविक और अनवच्छिन्न हो जाये और संपूर्ण जीवन , केवल विचार और ध्यान नहीं बल्कि कर्म श्रम , युद्ध सब कुछ भगवान् का ही स्मरण बन जाये। मेरा स्मरण करते चलो और युद्ध करो ”, इसका अर्थ ही यह है कि इस सांसारिक संघर्ष में जिसमें सामान्यतः हमारे मन डूबे रहते हैं , - एक क्षण के लिये भी भगवान् का स्मरण न छूटे ; और यह एक ऐसी बात है जो बहुत ही कठिन , प्रायः असंभव ही प्रतीत होती है। यह सर्वथा संभव तभी होती है जब इसके साथ अन्य शर्ते भी पूरी हों ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. योगानुभूति से यह मालूम होता है कि इस धारणा के पीछे वास्तव में एक मनोभौतिक सत्य है, अवश्य ही यह हर जगह हर हालत में अनिवार्य नहीं है ; प्रकाश और अंधकार की शक्तियों के बीच जो आंतरिक युद्ध होता है उसमें प्रकाश की शक्तियों का दिन या वर्ष के प्रकाशमय समयों में विशेष प्रभाव होता है और अंधकार की शक्तियों का अंधकारमय समयों में , ओर यह हिसाब तब तक ऐसा ही चलता रह सकता है जबतक कि अंतिम विजय प्राप्त न हो जाये।
  2. 8.27

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