गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 216

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३१, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-216 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 216 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

‘‘ अपनी ” इच्छा, ‘‘ अपने ” कर्म की यह भावना सर्वथा निरर्थक या निरूपयोगी नहीं है, क्योंकि प्रकृति के अंदर जो कुछ है उसकी एक सार्थकता और उपयोगिता है। यह हमारी सचेतन सत्ता की वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमारे अंदर जो प्रकृति है वह अपने अंतःस्थित निगुढ़ पुरूष की अवस्थिति को अधिकाधिक जान लेती और उसके अनुकूल होती है और इस ज्ञान – वृद्धि के द्वारा कर्म की एक महत्तर संभावना की ओर उद्घघाटित होती है; इस अहंभाव और व्यष्टिगत इच्छा की सहायता से ही अपने - आपको अपनी उच्चतर संभवनाओं की ओर उठाती है, तामसी प्रकृति की नितांत या प्रबल निश्चेष्टता से निकलकर राजसी प्रकिृति के आवेग और संघर्ष को प्राप्त होती है और राजसिक प्रकृति के आवेग और संघर्ष से निकलकर सात्विक प्रकृति के महत्त् प्रकाश, सुख और पवित्रता को प्राप्त होती है। प्राकृत मनुष्य जो सापेक्ष आत्मवशित्व लाभ करता है वह उसकी प्रकृति की उच्चतर संभावनाओं का निम्नतर संभावनाओं पर आधिपत्य है और उसके अंदर यह तब होता है जब वह निम्नतर गुण पर प्रभुता पाने के लिये, उसे अपने अधिकार में करने के लिये उच्चतर गुण के साथ अपने - आपको जोड़ लेता है। स्वाधीन इच्छा का बोध चाहे भ्रम हो या न हो, पर है प्रकृति के कर्म का एक आवश्यक यंत्र।
मनुष्य के प्रगति - काल में इसका होना आवश्यक है तथा उच्चतर सत्यग्रहण करने के लिये प्रस्तुत होने के पूर्व ही इसे खो देना उसके लिये घातक होगा। यदि यह कहा जाये, जेसा कि का जा चुका है, कि प्रकृति अपने विधनों को पूरा करने के लिये मनुष्य को भ्रम में डालती है और इस प्रकार के भ्रमों में व्यष्टिगत इच्छा की भावना सबसे जबर्दस्त भ्रम है, तो इसके साथ यह भी कहना होगा कि यह भ्रम उसके भले के लिये है और इसके बिना वह अपनी पूर्ण संभावनाओं के उत्कर्ष को नहीं प्राप्त हो सकता।परंतु यह निरा भ्रम नहीं है, केवल दृष्टिकोण और नियोजन की ही भूल है। अहंकार समझता है कि मैं ही वास्तविक आत्मा हूं और इस तरह कर्म करता है मानों कर्म का वास्तविक केंन्द्र वही है और सब कुछ मानों उसीके लिये है और यहीं वह दृष्टिकोण और नियोजन की भूल करता है ।यह सोचना गलत नहीं है कि हमारे अंदर , हमारी प्रकृति के कर्म इस कर्म में कोई चीज या कोई पुरूष ऐसा है जो हमारी प्रकृति के कर्म का वास्तविक केन्द्र है और सब कुछ उसीके लिये है; परंतु वह केन्द्र अहंकार नहीं , बल्कि हृद्देशस्थित निगूढ़ ईश्वर है और वह दिव्य पुरूष और जीव है जो अहंकार से पृथक् दिव्य पुरूष की सत्ता का ही एक अंश है। अहंकार का स्वत्व - प्रकाश हमारे मन पर उस सत्य की एक भग्न और विकृत छाया है जो बतलाता है कि हमारे अंदर एक सदात्मा है जो सबका स्वामी है और जिसके लिये तथा जिसके आदेश से ही प्रकृति अपने कर्म में लगी रहती है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध