भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 48

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11.भक्तिमार्ग

प्रपत्ति और भक्ति का अन्तर ईसाई विचार धारा के उस विवाद से मेल खाता है, जो सेण्ट ऑगस्टाइन और पैलेगियस के प्राचीन काल से चला आ रहा है और वह इस बात को लेकर है कि पतित प्राणी के रूप में मनुष्य का उद्धार केवल भगवान् की दया से हो सकता है या मनुष्य स्वयं भी कुछ कर सकता है और अपनी मुक्ति के प्रयत्न में कुछ योग दे सकता है। पैलेगियस स्वतन्त्र संकल्प में विश्वास रखता था। उसने मूल (आदि) पाप के सिद्धान्त का खण्डन किया और यह कहा कि मनुष्य अपने नैतिक प्रयत्न के अनुसार कार्य करते हैं। आगस्टाइन ने पैलेगियस के सिद्धान्त का विरोध किया और यह मत प्रस्तुत किया कि पतन से पहले आदम में स्वतन्त्र इच्छाशक्ति थी, परन्तु जब उसने और हौवा ने सेव को खा लिया, उसके बाद उनमें पाप प्रविष्ट हो गया और वह उनके सब वंशजों में चला आ रहा है। हममें से कोई भी अपनी शक्ति के द्वारा पाप से बचा नहीं रह सकता। केवल परमात्मा की दया ही पुण्यात्मा बनने में हमारी सहायता कर सकती है। क्योंकि आदम के रूप में हम सबने पाप किया था, इसलिए आदम के रूप में हम सब दोषी ठहराए गए है।
फिर भी हममें से कुछ लोग परमात्मा की मुक्त दया के कारण स्वर्ग के लिए चुने जाते हैं; इसलिए नहीं कि हम उसके पात्र हैं या हम अच्छे हैं, अपितु इसलिए कि परमात्मा की दया हमें प्रदान की गई है। हममें से कुछ लोगों का उद्धार क्यों हो जाता है, जब कि अन्य लोगों को नरकवास करना पड़ता है, इसके लिए परमात्मा की निष्प्रयोजन रूचि के सिवाय और कोई कारण नहीं बताया जा सकता। नरकवास का दण्ड परमात्मा के न्याय को सिद्ध करता है, क्योंकि हम सब दुष्ट हैं। ‘ऐपीसल टू दि रोमन्स’ के कुछ स्थलों में सेण्ट पौल ने, सेण्ट आगस्टाइन ने और कैल्विन ने सार्वभौम पाप के दृष्टिकोण को स्वीकार किया है। परन्तु उस पाप के होते हुए भी हममें से कुछ का उद्धार हो जाता है, यह बात परमात्मा की दया की सूचक है।
नरकवास का दण्ड और मुक्ति, दोनों परमात्मा की अच्छाई को, उसके न्याय और उसकी दया को प्रकट करते हैं। गीता का झुकाव पैलेगियस के सिद्धान्त की ओर है। भगवान् के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण में भी मनुष्य का प्रयत्न रहता ही है। यह आत्मसमर्पण संकल्पहीन या प्रयत्नहीन नहीं हो सकता। दया के सिद्धान्त की व्याख्या विशेष चुनाव के रूप में नहीं की जा सकती, क्योंकि इस प्रकार की धारणा गीता के इस सामान्य मत से उल्टी पड़ती है कि “सब प्राणियों में भगवान् वही एक है।”[१]श्रद्धा भक्ति का आधार है। इसलिए जिन देवताओं में लोगों की श्रद्धा है, उन सबको सहन कर लिया गया है। बिलकुल प्रेम न होने से कुछ प्रेम होना अच्छा है; क्योंकि यदि हम प्रेम नहीं करते, तो हम अपने-आप में ही रूद्ध हो जाते है। इसके अतिरिक्त, निम्नतर देवताओं को एक भगवान् के ही रूपों में स्वीकार किया गया है।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9, 29; तुलना कीजिए, योगवाशिष्ठ 2, 6, 27
  2. 9, 23

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