इस्पात

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इस्पात शब्द इतने विविध प्रकार के परस्पर अत्यधिक भिन्न गुणों वाले पदार्थो के लिए प्रयुक्त होता है कि इस शब्द की ठीक ठीक परिभाषा करना वस्तुत: असंभव है। परंतु व्यवहारत: इस्पात से लोहे तथा कारबन की मिश्रधातु ही समझी जाती है (दूसरे तत्व भी साथ में चाहे हों अथवा न हों)। इसमें कारबन की मात्रा साधारणतया 2 प्रतिशत से अधिक नहीं होती। अयस्क (ओर) से अधिक से अधिक धातु प्राप्त करने के लिए अवकारक वस्तु, कारबन, बहुतायत से मिलाई जाती है। कारबन बाद में इच्छित मात्रा तक आक्सीकरण की क्रिया द्वारा निकाल दिया जाता है। इससे साथ के दूसरे तत्वों का भी, जिनका अवकरण हुआ रहता है और जो आक्सीकरणीय होते हैं, आक्सीकरण हो जाता है। किसी अन्य तत्व की अपेक्षा कारबन, लोहे के गुणों को अधिक प्रभावित करता है; इससे अद्वितीय विस्तार में विभिन्न गुण प्राप्त होते हैं। वेसे तो कई अन्य साधारण तत्व भी मिलाए जाने पर लोहे तथा इस्पात के गुणों को बहुत बदल देते हैं, परंतु इनमें कारबन ही प्रधान मिश्रधातुकारी तत्व है। यह लोहे की कठोरता तथा पुष्टता समानुपातिक मात्रा में बढ़ाता है, विशेषकर उचित उष्मा उपचार के उपरांत।

धातुकार्मिक व्यवहार में 'विशुद्ध धातु' शब्द का उपयोग ऐसे व्यापारिक मेल की धातु के लिए भी होता है जिसमें प्रधानत: वे ही गुण (जैसे, रंग विद्युच्चालकता इत्यादि) होते हैं जो शुद्ध रासायनिक धातु में होते हैं। इनमें शेष जो अशुद्धता होती है या तो उसे दूर करना कठिन होता है, अथवा धातु में कोई विशेष गुण प्राप्त करने के लिए उसे जान बूझकर मिलाया जाता है। इस प्रकार मिलाए जानेवाले तत्वों को मिश्रधातुकारी तत्व कहते हैं।

साधारण इस्पात में, चाहे वह जिस विधि द्वारा बनाया गया हो, कारबन तथा मैंगनीज़ 0.10 से 1.50 प्रतिशत, सिलिकन 0.20 से 0.25 प्रतिशत, गंधक तथा फासफोरस 0.01 से 0.10 प्रतिशत तथा ताँबा, ऐल्युमिनियम और आरसेनिक न्यून मात्रा में उपस्थित रहते हैं। प्राय: हाइड्रोजन, आक्सिजन तथा नाइट्रोजन भी अल्प मात्रा में रहते हैं। इस जाति के इस्पात कई प्रकार के काम में आते हैं। यद्यपि सभी इस्पात मिश्रधातु ही हैं, तथापि साधारण बोलचाल में इस्पात को एक सरल (अमिश्र) धातु ही माना जाता है। ऊपर दिए हुए विश्लेषण से यदि किसी तत्व की मात्रा अधिक हो, अथवा इस्पात में दूसरे तत्व, जैसे निकल, क्रोमियम, वैनेडियम, टंग्स्टन, मालिब्डीनम, टाइटेनियम आदि भी हों, जो सामान्यत: इस्पात में नहीं होते, तो विशेष या मिश्र धात्वीय इस्पात बनता है। यांत्रिक गुणों की वृद्धि के लिए ही सामान्यत: यह मिलावट की जाती है। इस्पात की कुछ विशेषताएँ, जो मिश्रधातुकारी तत्वों द्वारा प्रभावित होती हैं, इस प्रकार हैं:

(क) यांत्रिक गुणों में वृद्धि :

(1) तैयार इस्पात की पुष्टता में वृद्धि

(2) किसी निम्नतम कठोरता या पुष्टता पर चिमड़ेपन (टफ़नेस) अथवा सुघट्यता (प्लैस्टिसिटी) में वृद्धि।

(3) उस अधिकतम मोटाई में वृद्धि जिसे बुझाकर वांछित सीमा तक कड़ा किया जा सकता हो।

(४) बुझाकर कठोरीकरण की क्षमता में कमी।

(5) ठंढी रीति से कठोरीकरण की दर में वृद्धि।

(6) खरादने इत्यादि की क्रिया सुगमता से कर सकने के विचार से कड़ाई को सुरक्षित रखकर सुघट्यता में कमी।

(7) घिसाव-प्रतिरोध अथवा काटने के सामर्थ्य में वृद्धि।

(8) इच्छित कठोरता प्राप्त करते समय ऐंठने या चटकने में कमी।

(9) ऊँचे या निम्न ताप पर भौतिक गुणों में उन्नति।

(ख) चुबंकीय गुणों में वृद्धि :

(1) प्रारंभिक चुंबकशीलता (पर्मिएबिलिटी) तथा अधिकतम प्रेरण (इंडक्शन) में वृद्धि।

(2) प्रसाही (कोअर्सिव) बल, मंदायन (हिस्टेरोसिस) तथा विद्युत्‌ (वाट) हानि में कमी (चुंबकीय अर्थ में कोमल लोहा)।

(3) प्रसाही बल तथा चुंबकीय स्थायित्व (रिमेनेंस) में वृद्धि।

(४) सभी प्रकार के चुबंकीय गुणों में कमी।

(ग) रासायनिक निष्क्रियता में वृद्धि :

(1) आर्द्र वातावरण में मोरचा लगने में कमी।

(2) उच्च ताप पर भी रासायनिक क्रियाशीलता में कमी।

(3) रासायनिक वस्तुओं द्वारा आक्रमण में कमी।

लोहा दो प्रकार के अति उपयोगी सममापीय (आइसोमेट्रिक) रवों के रूप में रहता है : (1) ऐल्फ़ा लोहा, जिसके ठोस घोल को 'फ़ेराइट' कहते हैं, और (2) गामा लोहा, जिसका ठोस घोल 'ऑसटेनाइट' है। शुद्ध लोहे का ऐल्फ़ा रूप लगभग 910° सें. से कम ताप पर रहता है; अधिक ताप पर गामा रूप रहता है। इन दोनों रूपों के लोहों में विविध मिश्रधातुकारी तत्वों को घुलनशीलता अति भिन्न है। व्यापारिक कारबन-इस्पात, धातु-कार्मिक विचार से, लौह कारबाइड का फेराइट में एक विक्षेपण (डिस्पर्शन) है, जिसमें लौह कारबाइड का अनुपात कारबन की मात्रा पर निर्भर रहता है।

कारबन इस्पात के मोटे टुकड़ों को ऐसी विधियों तथा दरों से एक सीमा तक ठंढा किया जा सकता है कि फेराइट में सीमेंटाइट के संभव वितरणों में से कोई भी वितरण उपलब्ध हो जाए। संरचना तथा उष्मा उपचार के विचार से कारबन इस्पात के अपेक्षाकृत ऐसे छोटे नमूने सरलता से चुने जा सकते हैं जिनमें साधारण ताप पर प्राय: महत्तम यांत्रिक गुण हों।

अकठोरीकृत इस्पात के दो अवयवों में दूसरा कारबाइड कला (फ़ेज़) है। कारबाइड की मात्रा, जो कारबन के अनुपात पर निर्भर रहती है, इस्पात के गुणों को बदलती है। विक्षेपण (डिस्पर्शन) में कारबाइड के कणों के रूप तथा उसकी सूक्ष्मता से यह और भी अधिक बदलती है। इस्पात को कठोर करने में तथा पानी चढ़ाते समय, मिश्रधातुकारी तत्व की उपस्थिति अंत में प्राप्त पदार्थ को एकदम बदल सकती है। फलत: संरचना और इसलिए इस्पात के गुण, जो इसी पर अत्यधिक आधारित हैं, ऑस्टेनाइट की संरचना तथा दाने के परिमाण पर निर्भर हैं।

बुझाए हुए इस्पात कारबन के मात्रानुसार विभिन्न कठोरतावाले होते हैं। कठोरता के लिए केवल कारबन पर ही निर्भर होने में इस्पात को एकाएक बुझाना पड़ता है। इससे या तो दूसरी बुराइयाँ उत्पन्न हो सकती है अथवा बहुत भीतर तक कठोरीकरण नहीं हो पाता है। कुछ उच्च मिश्रधात्वीय इस्पातों में साधारण ताप पर ही अपेक्षाकृत धीरे धीरे ठंडा कर, यह कठोरीकरण कुछ अंशों में प्राप्त किया जा सकता है।

बुझाए हुए तथा कठोरीकृत इस्पातों में आंतरिक तनाव होता है, जो फिर से गरम करके दूर किया जाता है। इस क्रिया को पानी चढ़ाना (टेंपरिंग) कहते हैं।

मिश्रधातुकारी तत्वों का प्रभाव-ऑस्टेनाइट रूपांतरण में कारबन के अतिरिक्त अन्य मिश्रधातुकारी तत्व सामान्यत: सुस्ती पैदा करते हैं। कोबल्ट छोड़ अन्य तत्वों की उपस्थिति में बुझाने पर अधिक गहराई तक कठोरीकरण होता है। साधारणतया सभी मिश्रधात्वीय इस्पातों तथा बहुत से कारबन-इस्पातों में इच्छित गुणों का अच्छा संयोग उचित उष्माउपचार से प्राप्त होता है।

कारबन-सादे कारबन-इस्पात में, कारबन की मात्रा को 0.1 प्रतिशत से 1.0 प्रतिशत तक या अधिक बढ़ाने पर तनाव पुष्टता बढ़ती है। बुझाए हुए कारबन इस्पात में तनाव पुष्टता अत्यधिक बढ़ जाती है, जैसे 1 प्रतिशत कारबन पर 150 टन वर्ग इंच तक। बुझाए हुए तथा पानी चढ़ाए (टेंपर किए) इस्पात की शक्ति पानी चढ़ाने के तापक्रम पर निर्भर रहती है।

ऐल्युमिनियम-धातु के दानों के परिमाण (ग्रेन साइज़) को नियंत्रित करने के लिए थोड़ी मात्रा में ऐल्युमिनियम, 3 पाउंड प्रति टन तक, पिघले हुए इस्पात में मिलाया जाता है। सतह की अत्यधिक कठोरतावाले भागों में 1.3 प्रतिशत तक ऐल्युमिनियम रहता है।

बोरन-बोरन इस्पात आधुनिक विकास है। कुछ निम्न मिश्रधात्वीय इस्पातों में 0.003 प्रतिशत जैसी कम मात्रा में बोरन मिलाए जाने पर कठोर हो जाने की क्षमता बढ़ती है तथा यांत्रिक गुणों की उन्नति होती है।

क्रोमियम-अकेले अथवा दूसरे मिश्रधातुकारी तत्वों से संयोजित क्रोमियम, इस्पात का घर्षण-अवरोध तथा कठोर हो सकने की क्षमता बढ़ाता है। अधिक मात्रा में, 12 से 1४ प्रतिशत तक, होने पर यह अकलुष (स्टेनलेस) इस्पात का आवश्यक तत्व है। इसी अथवा इससे भी अधिक मात्रा में (20 प्रतिशत तक) क्रोमियम रहने पर, निकल और कभी-कभी दूसरे तत्वों के साथ मिलाकर, तरह तरह के उष्मा प्रतिरोधक इस्पात तथा विभिन्न प्रकार के ऑस्टेनाइट इस्पात बनते हैं जो मार्चें तथा अम्ल की क्रिया के प्रति अत्यधिक अवरोधकता के लिए प्रसिद्ध हैं। क्रोमियम घर्षण-अवरोध की उन्नति करता है; इसलिए 2 प्रतिशत कारबन के साथ 12 प्रतिशत तक क्रोमियम कुछ विशेष तरह के यंत्रों तथा ठप्पों के लिए इस्पात बनाने में उपयुक्त होता है। पृष्ठ कठोरीकरण (केस हार्डेनिंग) तथा नाइट्राइडिंग के लिए इस्पात में क्रोमियम प्राय: 2 प्रतिशत से कम ही होता है। सीधे कठोरीकृत छर्रो (बाल बेयरिंग) तथा कुचलने की मशीनवाले गोलों के इस्पात में क्रोमियम की मात्रा अधिक होती है।

कोबल्ट-कोबल्ट से, कुछ उच्च वेगवाले यांत्रिक इस्पातों की काटने की क्षमता बढ़ती है। कुछ उष्मा प्रतिरोधक इस्पातों में, जैसे गैस टर्बिन इंजन के ढले हुए ब्लेडों में, यह प्रयुक्त होता है। अधिक मात्रा में यह ऐसे इस्पात का आवश्यक अंग होता है जो उन अति कठिन परिस्थितियों को सहन करने के लिए बनते हैं जिनमें गैस टर्बिन के ब्लेड कार्य करते हैं। इन उपयागों में कोबल्ट मिलाने से इस्पात को उष्मा अवरोधक गुण, सतह पर चिप्पड़ (स्केल) न बनने देने तथा धीरे-धीरे माप में स्वत: परिवर्तन (क्रीप) को रोकने की क्षमता मिलती है। स्थायी चुंबक की मिश्रधातुओं में भी कोबल्ट पर्याप्त मात्रा में रहता है।

ताँबा-बिना ताँबा के इस्पात की तुलना में ताँबा की थोड़ी भी मात्रावाले इस्पात में संक्षारण-अवरोध अधिक होता है। गृहनिर्माण के लिए प्रयुक्त अथवा ऐसे ही दूसरे प्रकार के नरम इस्पातों में लगभग 0.6 प्रतिशत तक ताँबा रहता है।

मैंगनीज-इस्पात का ठोसपन बढ़ाने के लिए तथा बची हुई गंधक से मिलकर, सल्फाइड के कारण, भुरभुरापन रोकने के लिए 0.5 से 1.0 प्रतिशत तक मैंगनीज मिलाया जाता है।

1.0 प्रतिशत से 1.8 प्रतिशत तक, मैंगनीज़ इस्पात की तनावपुष्टता तथा कठोरता में वृद्धि करता है। 13 प्रतिशत मैंगनीज-इस्पात का एक अलग ही वर्ग है। ऐसा इस्पात ठोंकने पीटने से कड़ा हो जाता है, अर्थात्‌ सुघट्य तनाव (प्लैस्टिक स्ट्रेन) पड़ने पर स्वयं कड़ा हो जाता है। किसी साधारण उष्मा उपचार द्वारा इसका कठोरीकरण नहीं होता। यह अधिकतर ढलाई के लिए प्रयुक्त होता है। झाम (ड्रेजर) के ओष्ठ,चट्टान तोड़नेवाली मशीनों के जबड़े, रेल की पटरियों की संघि (क्रासओवर) तथा अन्य विशेष मार्ग संबंधी कार्यो में, जहाँ घिसाई की विशेष आशंका रहती है, इसका उपयोग होता है।

मालिब्डीनम-इस्पात में मालिब्डीनम शक्ति, कठोर हो सकने की क्षमता तथा धीरे-धीरे स्वत: परिवर्तन के प्रति अवरोध बढ़ाता है। उच्च तापक्रम पर कार्य करने के लिए इस्पात की कठोरता सुरक्षित रखने में भी मालिब्डीनम सहायक है। इसलिए कुछ उच्च वेग इस्पातों में टंग्स्टन के एक अंश के बदले इसी का उपयोग होता है। उदाहरण के लिए 5.5 प्रतिशत मालिब्डीनम और 6 प्रतिशत टंग्स्टन का एक उच्चवेग इस्पात है, जो प्रामाणिक 18 प्रतिशत टंग्स्टन की तुलना में उपयोगी और सस्ता होता है।

निकल-इस्पात में मिलाने के लिए (मैंगनीज़ को छोड़) सबसे अधिक उपयोग इसी का होता है। पिघले हुए लोहे में यह सभी अनुपातों में घुल जाता है तथा ठंडा होने पर ठोस घोल बनाता है। 5 प्रतिशत तक रहने पर यह इस्पात का चिमड़ापन तथा तनाव पुष्टता बढ़ाता है। यह कठोर हो सकने की क्षमता को भी बढ़ाता है, जिससे पानी में बुझाने की जगह तेल में बुझाकर कठोरीकरण संभव है। फटने तथा ऐंठने की प्रवृत्ति को भी कम करता है, जिससे बड़ी नाप के ऐसे इस्पात को भी अच्छी तरह कठोर किया जा सकता है।

कुछ पृष्ठ-कठोरीकरण इस्पातों में 1.0 से 5.0 प्रतिशत तक निकल रहता है। नाइट्राइडिंग इस्पातों में साधारणत: निकल की मात्रा अधिक से अधिक 0.४ प्रतिशत तक ही सीमित है। (नाइट्राइडिंग इस्पात के बाहरी पृष्ठ को कड़ा करने की एक रीति है। साधारणत:अमोनिया गैस में इस्पात को 500-555° सेंटीग्रेड तक तप्त करने से यह कार्य सिद्ध होता है।)

बहुत से संक्षारण-अवरोधक तथा 'स्टेनलेस' ऑस्टेनाइटमय इस्पातों में निकल का अंश 8 प्रतिशत तथा इससे अधिक होता है। प्रसिद्ध 18 : 8 क्रोमियम-निकल-इस्पात तथा उससे मिलते जुलते इस्पात भी इसी वर्ग में सम्मिलित हैं। कुछ अति नवीन प्रकार के इस्पातों में निकल की मात्रा अधिक होती हैं, जैसे 20 प्रतिशत या इससे भी अधिक। ये उच्च ताप तथा अत्यधिक दबाव की स्थितियों में कार्य करने के लिए उपयुक्त होते हैं; उदाहरणत:, गैस टर्बिन के स्थिर तवे (डिस्क) तथा ब्लेड। 36 प्रतिशत निकल का, इस्पात, जो 'इनवार' नाम से प्रसिद्ध है, अपने अति निम्न-प्रसार-गुणांक के कारण यथार्थदर्शी घड़ियों, स्वरित्र (टयूनिंग फ़ोर्क) तथा बहुत से वैज्ञानिक उपकरण बनाने में उपयुक्त होता है।

कोलंबियम-क्रोमियम इस्पात या 18 : 8 क्रोमियम-निकल प्रकार के इस्पात को स्थिर करने के लिए 1 प्रतिशत अथवा ऐसी ही मात्रा तक कोलंबियम का उपयोग होता है। यह टाइटेनियम के सदृश ही कार्य करता है।

सिलिकन-मैंगनीज़ की भाँति सिलिकन सभी इस्पातों में प्रारंभ से ही, अथवा इस्पात बनाते समय मिलावट के कारण, रहता है। इसकी उपस्थिति से इस्पात का अनाक्सीकरण होना प्राय: निश्चित सा हो जाता है। सिलिकन में, अधिक मात्रा में रहने पर, इस्पात की शक्ति तथा कठोर हो सकने की क्षमता बढ़ाने की तथा आंतरिक तन्यता कम करने की प्रवृत्ति होती है। सिलिकन मैंगनीज़ के कमानी वाले इस्पात में इसकी मात्रा 1.5 प्रतिशत से 2 प्रतिशत तक रहती है, जिसमें मैंगनीज़ की मात्रा लगभग 0.6-1.0 प्रतिशत होती है। सिलिकन -क्रोमियम से बने इंजनों के वाल्वों के इस्पात में सिलिकन की मात्रा 3.75 प्रतिशत होती है। निकल-क्रोमियम-टंग्स्टन वाल्वों के इस्पात में इसकी मात्रा 1.0-2.5 प्रतिशत होती है।

गंधक-जैसा विदित है, इस्पात में गंधक का होना साधारणतया उपद्रवप्रद है। मिश्रधातुकारी तत्व के रूप में इसका उपयोग केवल स्वच्छंदता से कटनेवाले इस्पात में होता है।

सिलिनियम-यह तत्व गंधक के सदृश ही कार्य करता है।

टाइटेनियम-थोड़ी मात्रा में मिलाने से यह इस्पात की स्थिरता बढ़ाता है, और कहते हैं, इसके कारण दाने (ग्रेन) का परिमाण अधिक सूक्ष्म होता है।

टंग्स्टन-20 प्रतिशत तक की मात्रा में टंग्स्टन उच्चवेग इस्पात का आवश्यक अवयव है; इसलिए कि यह इस्पात को उष्मा उपचार के बाद अत्यधिक कठोरता प्रदान करता है, जो ऊँचे ताप पर भी स्थिर रह जाती है। गर्म-ठप्पा-इस्पात तथा दूसरे गर्म कार्य के लिए उपयुक्त इस्पात में भी इसका उपयोग होता है। इसमें इसकी मात्रा 2 प्रतिशत से लगभग 10 प्रतिशत तक होती है।

वैनेडियम-इस्पात में वैनेडियम, फ़ेरो-वैनेडियम के रूप में मिलाया जाता है। यह शक्तिशाली स्चच्छकारक वस्तु है। इससे इस्पात की स्थिरता तथा सफाई बढ़ती है तथा उष्मा उपचारित कारबनमय और मिश्रधात्वीय इस्पात के यांत्रिक गुण उन्नत होते हैं। हवा में कठोरीकरण के गुण तथा काटने की क्षमता बढ़ाने के लिए 1½ प्रतिशत तक वैनेडियम उच्चवेग यांत्रिक इस्पात में प्रयुक्त होता है। एक प्रकार के प्रसिद्ध उच्चवेग इस्पात में वैनेडियम ४.5 जैसे ऊँचे अनुपात में रहता है।

ज़िरकोनियम-कुछ उच्च क्रोमियम-निकल तथा ऑस्टेनाइटमय 18 : 8 प्रकार के इस्पात में, मुक्त कटने के गुण देने के लिए, थोड़ी मात्रा में यह तत्व गंधक के साथ प्रयुक्त होता है।

निम्न-मिश्र-धात्वीय, उच्च-तनाव-पुष्ट, भवन-निर्माण-इस्पात-प्रामाणिक ब्योरे के अनुसार इन इस्पातों की अंतिम तनाव-पुष्टता 37-४3 टन प्रति वर्ग इंच है, तथा त्रोटनविंदु (वह सीमा जिसपर छड़ टूटता है)

(1) सिलिकन इस्पात,

(2) मैंगनीज़ इस्पात,

(3) ताँबे की थोड़ी मात्रा के साथ मैंगनीज़ इस्पात।

(४) मैंगनीज़, क्रोमियम तथा ताँबे की मिलावट का इस्पात,

वर्ग 1 : सिलिकन इस्पात की, जिसकी मौलिकता अमरीकी है, अंतिम तनाव-पुष्टता 37.7-४2.४ टन प्रति वर्ग इंच तथा निम्नतम त्रोटनबिंदु 20.1 टन प्रति वर्ग इंच है। इसकी तनावपुष्टता कारबन की ऊँची मात्रा के कारण उत्पन्न होती है (0.४% तक)।

वर्ग 2 : इस समूह के इस्पात अधिकतर मैंगनीज़ की मात्रा (लगभग 1.25%) पर निर्भर हैं।

वर्ग 3 : सामान्यत: 0.25% से 0.5% तक ताँबे की मिलावट होने पर वर्ग (2) के समान ही इस वर्ग की भी साधारण प्रकृति होती है। मैंगनीज़ के साथ ताँबे की मात्रा संक्षारण-प्रतिरोध बढ़ाती है, जो नर्म इस्पात की अपेक्षा 30-४0% अधिक हो जाती है।

वर्ग ४ : इस वर्ग के इस्पात में मैंगनीज़, क्रोमियम तथा ताँबा मिश्रित रहता है। इसमें ऊँचा त्रोटनविंदु तथा साथ ही उन्नत संक्षारण अवरोध मिलता है।

वायुयान मोटर तथा गाड़ियों के इंजन का इस्पात-मोटरगाड़ियों की क्रैंक धुरी सदैव पीटकर ही तैयार की जाती है तथा ४5-65 टन प्रति वर्ग इंच की साधारण सीमा तक तनाव-पुष्टता प्राप्त करने के लिए उष्माउपचारित होती है। आवश्यक इस्पात का चुनाव पुरजे की प्रधान मोटाई पर निर्भर है। छोटी क्रैंक धुरी के लिए 0.४0% कारबन इस्पात, बिना निकल के या 1.0% निकल सहित, अथवा निम्न मिश्रधात्वीय मैंगनीज़-मालिब्डीनम इस्पात को प्राथमिकता दी जाती है। भारी क्रैंक धुरियाँ निकल-क्रोमियम-मालिब्डीनम इस्पात की बनती हैं, जो 55-65 टन प्रति वर्ग इंच तनाव-पुष्टता के लिए उष्मा-उपचारित रहती हैं। निकल-क्रोमियम इस्पात में, जो पानी चढ़ाई हुई अवस्था में उपयुक्त होता है, पानी चढ़ाने पर भुरभुरापन बचाने के लिए मालिब्डीनम की मिलावट एक मानक प्रचलन है।

हवाई इंजन की क्रैंक धुरी के लिए नाइट्राइडिंग इस्पातों का उपयोग प्रचलित है। ये क्रोमियम मालिब्डीनम इस्पात होते हैं जो 60-70 टन प्रति वर्ग इंच तनाव-पुष्टता तक उष्मा-उपचारित किए जाते हैं।

मोटर में संबंधक दंडों (कनेक्टिंग रॉड) को मध्यम कारबन या मैंगनीज-मालिब्डीनम इस्पात से, जो ४5-65 टन प्रति वर्ग इंच तनाव-पुष्टता तक उष्मा-उपचारित होते हैं, पीटकर बनाया जाता है। हवाई इंजन के संबंधक दंड के लिए 3.5% निकल इस्पात, 55-65 टन प्रति वर्ग इंच तनाव-पुष्टता देने के लिए उपचारित, तथा निकल-क्रोमियम-मालिब्डीनम इस्पात, 65-70 टन प्रति वर्ग इंच तनाव-पुष्टता तक उपचारित, अनुकूल हैं।

मोटर के वाल्वों के लिए 3.5% सिलिकन और 8.5% क्रोमियम वाले इस्पात का उपयोग होता है तथा कभी-कभी ऑस्टेनाइटमय इस्पात, जिसमें 13% क्रोमियम, 13% निकल, 2.5% टंग्स्टन तथा 0.४% कारबन होता है, निष्कासक (एग्ज़ॉस्ट) वाल्व के लिए प्रयुक्त होता है।

क्रैंक धुरी तथा टैपट पृष्ठकठोरीकृत इस्पात के बनाए जाते हैं, जिसमें 5% निकल इस्पात अथवा ४% निकल और 1.3% क्रोमियमवाले इस्पात का प्रयोग होता है।

दाँतीदार चक्रों का विनाश थकान (फ़ैटीग) से उतना नहीं होता जितना घिसने के कारण। ये अधिकतर पृष्ठकठोरीकृत इस्पात से बनाए जाते है; जैसे 0.20-0.28% कारबन सहित 2 प्रतिशत निकल मोलिब्डीनम इस्पात, 3% निकल इस्पात अथवा 5% निकल इस्पात।

गैर टर्बिन इस्पात-इस कार्य में प्रयुक्त सामग्री मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभक्त की जा सकती है। इनमें से पहला फेरिटिक (पर्लिटिक) या अन्‌-आस्टेनाइटमय वर्ग कहा जा सकता है, जिसमें वे मिश्र धातुएँ हैं जो उदाहरणत: 600° सें. अधिकतम ताप तक कार्य के लिए अनुकूल हैं।

दूसरी श्रेणी में वे मिश्र धातुएँ हैं जिनका विकास प्रधानत: चिप्पड़ न बनने देने की ऊँची क्षमता के लिए हुआ है तथा जिनकी भार सँभालने की क्षमता पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है। इस वर्ग में आनेवाले इस्पातों की रासायनिक संरचना में अधिक अंतर है। फेरिटिक तथा आस्टेनाइटमय दोनों प्रकार की मिश्र धातुएँ इसी में हैं। कम शक्ति के अंतर्दह इंजन में वाल्व-इस्पात के रूप में प्रयुक्त होनेवाले सादे 6% क्रोमियम इस्पात से लेकर ढाले अथवा पीटकर बनाए गए 65% निकल और 18% क्रोमियमवाली मिश्र धातुओं तक, जो नमक के घोलवाले उष्मकों में तथा अन्य संक्षारक परिस्थितियों में उच्च ताप पर प्रयोग के लिए उपयुक्त होती हैं, इस वर्ग में सम्मिलित हैं।

तीसरी श्रेणी में वे आस्टेनाइटमय मिश्र धातुएँ आती हैं जो 600° सें. से ऊपर के ताप पर धीरे-धीरे होनेवाले स्वत: परिवर्तन के विरुद्ध ऊँची प्रतिरोधक श्क्ति के लिए ही बनाई गई हैं। इस स्थिति में मोरचा तथा चिप्पड़ न बनने देने की अच्छी क्षमता भी आवश्यक है। इस तृतीय वर्ग का आधारभूत पदार्थ प्रसिद्ध 18% क्रोमियम और 8% निकलवाला 'स्टेनलेस' इस्पात है, परंतु कुछ नवीन तथा श्रेष्ठ मिश्र धातुएँ अति जटिल प्रकृति की हैं। इनमें लोहा केवल अल्प मात्रा में ही एक अशुद्धि के रूप में रहता है।

वाष्प टर्बिन के लिए इस्पात-आधुनिक वाष्प टर्बिन, परिशुद्ध मशीन किए हुए ऐसे अंगों से बनी रहती है जिन्हें उच्च ताप पर अत्यधिक तनाव तथा बहुधा कठिन संक्षारण की स्थिति सहन करनी पड़ती है तथा जो लंबी अवधि तक लगातार कार्य में लगे रहते हैं। टर्बिन की धुरी पीटकर बनाए गए, तेल में बुझाकर कठोर किए गए तथा कुछ पानी उतारे हुए कारबन इस्पात की होती है, जिसमें कारबन लगभग 0.४% तथा मैंगनीज़ 0.5 से 1.0% तक होता है। उच्च दबाववाले टर्बिन की धुरी आंतरिक तनाव रहित किए तथा पानी चढ़े कारबन-मालिब्डीनम-वैनेडियम इस्पात से बनती है। टर्बिन के सिलिंडर के लिए प्राय: सादा का रबनवाले अथवा कारबन-मैंगनीज़-वाले (मैंगनीज़ 1.४-1.8%) इस्पात का उपयोग होता है। केवल उन सिलिंडरों के लिए जो अति उच्च ताप पर कार्य करते हैं 0.5% मालिब्डीनम इस्पात की आवश्यकता पड़ती है। ब्लेड के लिए विविध स्टेनलेस इस्पात तथा ऊँची निकल मिश्रधातुएँ प्रयुक्त हुई हैं। आजकल सबसे अधिक प्रयुक्त होनेवाला पदार्थ 13% क्रोमियम-निम्न-कारबन इस्पात है।

बायलर-आजकल के बायलर 6000 सें. तक ताप तथा 3,200 पाउंड प्रति वर्ग इंच से अधिक दाब पर कार्य करते हैं। ढोल (ड्रम) सरल कारबन-इस्पात, अथवा 3% निकल, 0.7% क्रोमियम और 0.6% मालिब्डीनमवाले इस्पात से लवंगित (रिवेट) करके, अथवा वेल्ड करके, अथवा तप्त पीटकर बनाए जाते हैं। बायलर की नलियाँ प्राय: कारबन-इस्पात, अथवा क्रोमियम-मालिब्डीनम इस्पात की ठोस खिंची हुई होती हैं।

दाबसह बरतन-आधुनिक रासायनिक उद्योग में रासायनिक क्रिया कराने तथा विभिन्न गैसों को रखने के लिए दाबसह बरतनों की आवश्यकता पड़ती है। इन बरतनों के लिए उपयुक्त पदार्थ तीन वर्ग के होते हैं: कारबन इस्पात, मिश्रधातु इस्पात तथा स्टेनलेस इस्पात। सामान्यत: मध्यम तनाव-पुष्ट इस्पात, जिनमें मैंगनीज़ की मात्रा 1.5 से 1.8% तक तथा 0.25% कारबन रहता है तथा जिनकी तनाव-पुष्टता 37 से ४5 टन प्रति वर्ग इंच तक होती है, मध्यम तथा उच्च दाब पर कार्य के लिए दाबसह बरतनों में उपयुक्त होते हैं।

रासायनिक उद्योग में इस्पात-सदैव विकसित होती हुई नई रासायनिक विधियों के कारण तथा उन विशेष, नवीन परिस्थितियों का सामना करने के लिए जो इन विधियों में उपस्थित होती है, विभिन्न प्रकार के इस्पात तथा अन्य धातुओं का उपयोग होता है। रासायनिक उद्योग में माल रखने के बरतनों, अनेक मशीनों और बहुत प्रकार के निर्माण बरतनों तथा नलियों आदि के लिए नरम इस्पात ही अत्यधिक प्रयुक्त होता है। क्रोमियम तथा क्रोमियम-निकल आस्टेनाइटमय संक्षारण अवरोधक इस्पात का उपयोग रासायनिक उद्योग में बहुत हैं। प्रचलित इस्पात की रासायनिक संरचना में 18% क्रोमियम, 8% निकल तथा लगभग 0.18% कारबन रहता है तथा इसे टाइटेनियम या नियोबियम की सहायता से स्थायीकृत कर दिया जाता है। परंतु ऐसे इस्पात का संक्षारण-अवरोध 2.5-3% माल्ब्डीिनम मिलाने से अतयधिक बढ़ जाता है। रासायनिक उद्योग में उच्च ताप पर कार्य के लिए 25% क्रोमियम तथा 20% निकलवाला इस्पात व्यवहृत होता है।

औजार तथा ठप्पे के लिए इस्पात-आधुनिक उत्पादन-विधियों का विकास औजार बनाने में काम आनेवाले ऐसे इस्पात की उन्नति पर ही बहुत कुछ निर्भर रहा है जो उत्तरोत्तर कठिन परिस्थितियों में भी कार्य कर सके।

वैसे तो औजारी इस्पात अगणित प्रकार के हैं, पर उन्हें सुविधापूर्वक इन सात समूहों में बाँटा जा सकता है:

(1) सादे कारबन औजारी इस्पात,

(2) निम्न मिश्रधात्वीय औजारी इस्पात,

(3) तेल में बुझाकर कठोर किया जानेवाला औजारी मैंगनीज़ इस्पात,

(४) आघात-प्रतिरोधक औजारी इस्पात,

(5) उच्चकारबन उच्चक्रोमियम मिश्रधातु,

(6) उच्च वेग इस्पात तथा गरम ठप्पे का इस्पात,

(7) निकल-क्रोमियम-मालिब्डीनम इस्पात।

ऊपर दिए हुए एक या अधिक मौलिक गुण, इनमें से प्रत्येक समूह में अधिक अंश तक पाए जाते हैं।

सादा कारबन औजारी इस्पात-एक बार पानी में बुझाकर इसका पृष्ठ कठोर, कोमल तथा साधारण कठोरता का बनाया जा सकता है।

निम्न मिश्रधात्वीय औजारी इस्पात-कारबनवाले औजारी इस्पात में 0.2 से 0.5% तक वैनेडियम की उपस्थिति दानेदार होना रोकती है तथा कठोरीकरण की क्षमता को लाभदायक सीमा तक बढ़ती है। 1.5% क्रोमियम मिलाने से कठोरीकरण की क्षमता तथा घर्षण-अवरोध बढ़ता है और यदि मैंगनीज़ 0.5 तथा 0.75% के बीच में स्थिर रखा जाए तो यह तेल में बुझाकर कठोरीकरण योग्य इस्पात हो जाता है। 1.2% कारबन तथा 1.3% टंग्स्टनवाला इस्पात, जो प्राय: धातुकट आरी के फल (हैकसॉ ब्लेड) के लिए प्रयुक्त होता है, इसका एक अच्छा उदाहरण है।

तेल में बुझाकर कठोरीकरण योग्य मैंगनीज़ औजारी इस्पात-तेल में बुझाकर कठोरीकृत प्रामाणिक इस्पात में 0.8-1.0% कारबन तथा 1.0-2.0% मैंगनीज़ रहता है।

आघात प्रतिरोधक इस्पात-इस प्रकार के इस्पातों में से सरलतम इस्पात में 0.6% कारबन, 0.6% मैंगनीज़ तथा 0.४-1.४% क्रोमियम रहता है। जिसमें अधिक क्रोमियम रहता है वह मोटे यंत्रों के लिए उपयुक्त होता है।

उच्चकारबन, उच्चक्रोमियम मिश्रधातु-प्रामाणिक मिश्रधातु में 2.2-2.४% कारबन तथा 12-1४% क्रोमियम रहता है। इसमें उच्च घर्षण-अवरोध तथा उच्च संक्षारण-अवरोध का गुण होता है। यह तेल में बुझाकर कठोर किया जा सकता है, परंतु 1% मालिब्डीनम की मिलावट इसे वायु में कठोरीकरण योग्य मिश्रधातु बना देती है।

उच्चे वेग तथा गर्म ठप्पे के लिए उपयुक्त इस्पात-ऊँचे ताप पर कार्य करते समय अच्छी कठोरता तथा काटने का धार सुरक्षित रखने की क्षमता ही उच्चवेग इस्पात का मुख्य गुण है। अधिक उपयोग में आनेवाले इस प्रकार के इस्पात में लगभग 0.75% कारबन, 1.8% टंगस्टन, ४% क्रोमियम तथा 1.5% वैनेडियम रहता है।

निकल-क्रोमियम-मालिब्डीनम इस्पात-0.3-0.6% कारबन, ४% निकल, 1.3% क्रोमियम तथा 0.3% मालिब्डीनम सहित इस्पातों में अत्यधिक चिमड़ापन (टफ़नेस) होता है।

चुंबकयुक्त यंत्रों के बहुत से ऐसे कार्यो में जहाँ पहले केवल विद्युच्चुंबक ही व्यवहृत होते थे, अब नवीन खोजों के कारण, स्थायी चुंबक सफलतापूर्वक प्रयुक्त होते हैं। चुंबक इस्पात दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है-वह जो मॉर्टेनसिटिक इस्पात होता है तथा वह जिसमें अवक्षेपण की विधि द्वारा चुंबकीय कठोरता उत्पन्न की जाती है। मार्टेनसिटिक इस्पात क्रोमियम इस्पात (कारबन 0.9%, क्रोमियम 3.5%), टंग्स्टन इस्पात (कारबन 0.7%, क्रोमियम 0.3% तथा टंगस्टन 6%) तथा कोबल्ट इस्पात (35% कोबल्ट, 1% कारबन, 5-9% क्रोमियम, लगभग 1% टंग्स्टन और 1.5% मालिब्डीनम) को मिलाकर बनाया जाता है। अवक्षेपण द्वारा कठोरीकृत मिश्रधातुओं में ऐल्युमिनियम, निकल, कोबल्ट तथा ताँबा, कुछ टाइटेनियम, नियाबयम या मालिब्डीनम के साथ रहते हैं।

1900 ई. तक, साधारण उपयोग में, लोहा ही अकेले 'नरम' लौहचुंबकीय वस्तु था। तत्पश्चात्‌ अनेक मिश्रधातुओं का प्रवेश हुआ, जिनमें समुचित उष्मा उपचार से ऊँची प्रारंभिक चुबकशीलता (पमिएबिलिटी) तथा निम्न मंदायन (हिस्टेरीसिस) हानि उत्पन्न होती है! इन्हें पार-मिश्रधातु कहते हैं। निकल-लोहा की बहुत सी मिश्रधातुएँ, जिनमें दूसरी धातुओं की अल्प प्रतिशत में ही मिलावट रहती है, इस क्षेत्र में अति श्रेष्ठ ठहरी हैं। इन मिश्रधातुओं में 35-90% निकल रहता है तथा इनमें मिलाई जानेवाली प्रधान धातुएँ मालिब्डीनम, क्रोमियम तथा ताँबा है।

इंजीनियरी में ऐसे इस्पात तथा मिश्रधातुओं के अनेक उपयोग हैं, जो यांत्रिक तनाव सह सके या सहारा दे सकें, परंतु आसपास में चुंबकीय क्षेत्र की वृद्धि न करें। इनकी चुंबक-प्रवृत्ति (ससेप्टािबलिटी) को लगभग शून्य तथा चुबंकशीलता को लगभग इकाई तक पहुँचना चाहिए। इस कार्य में प्रयुक्त होनेवाले पदार्थ निम्नलिखित हैं: (1) आस्टेनाइटमय मिश्रधातु ढलवाँ लोहा तथा इस्पात, (2) तापसमकारा मिश्रधातु जिनमें प्रधानत: निकल (30-36%), और लोहा (59-70%) रहता है तथा साथ में कभी कभी मैंगनीज़ या क्रोमियम (5%) होता है, तथा (3) निश्चुंबकीय इस्पात (कारबन 0.४5%, मैंगनीज़ 8.5-9.5%, निकल 7.5-8.5%, क्रोमियम 3.0-3.5%)।

अकलुष इस्पात (स्टेनलेस स्टीन)-मिश्रधातुओं के उन समूहों का प्रतिनिधि है जो वायुमंडल तथा कार्बनिक और अकार्बनिक अम्लों से कलुषित (खराब) नहीं होते हैं। साधारण इस्पात की अपेक्षा ये अधिक ताप भी सह सकते हैं। इस्पात में ये गुण क्रोमियम मिलाने से उत्पन्न होते हैं। क्रोमियम इस्पात के बाह्य तल को निष्क्रिय बना देता है। प्रतिरोधी शक्ति की वृद्धि के लिए इसमें निकल भी मिलाया जाता है। निकल के स्थान पर अंशत: या पूर्णत: मैंगनीज़ का भी उपयोग किया जाता है। अकलुष इस्पात के निर्माण में लोहे में कभी-कभी ताम्र, कोबाल्ट, टाइटेनियम, नियोबियम, टैंटालियम, कोलंबियम, गंधक और नाइट्रोजन भी मिलाया जाता है। इनकी सहायता से विभिन्न रासायनिक, यांत्रिक और भौतिक गुणों के अकलुष इस्पात बनाए जा सकते हैं।

सन्‌ 1872 ई. में वुड्स और क्लार्क ने लोगों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि लौह और क्रोमियम की कुछ मिश्र धातुओं में न तो जंग (मुरचा) लगता है और न अम्ल के प्रभाव से उन पर कोई विकार होता हैं। पेरिस में आयाजित सन्‌ 1900 ई. की प्रदशनी में इस्पात के कुछ नमूने थे जिनकी संरचना आधुनिक अकलुष इस्पात के समान थी। सन्‌ 1903 ई. में लौह, क्रोमियम और निकल की मिश्र धातुओं को इंग्लैंड में पेटेंट कराया गया। इन मिश्र धातुओं में क्रोमियम की मात्रा 2४ से 57 प्रतिशत और निकल की मात्रा 5 से 60 प्रतिशत तक थी। संयुक्त राज्य अमरीका में निकल और फेरोक्रोम (अर्थात्‌ क्रोमियम-मिश्रित लोहे) को मूषा (घरिए) में पिघलाकर थर्मोकपल बनाने योग्य इस्पात की रचना की गई। सन्‌ 1905 ई. में लौह में निकल, क्रोमियम और कोबाल्ट की मिश्र धातु से मोटरकारों के स्पार्क प्लगों में चिनगारी देनेवाले तार बनाए गए। सन्‌ 1910 ई. में उच्चतापमापी नलिकाओं के लिए जर्मनी ने इस्पात, क्रोमियम और निकल की मिश्रधातु का और सन्‌ 1912 ई. के लगभग इंग्लैंड ने बंदूक की नाल बनाने के लिए क्रोमियम और इस्पात की मिश्रधातु का उपयोग किया और चाकू, छुरी आदि बनाने के लिए इसे पेटेंट कराया। बाद में केवल निकल या निकल और क्रोमियम को इस्पात में मिलाकर बनाई गई मिश्र धातुओं के विभिन्न मिश्रण संयुक्त राज्य अमरीका, इंग्लैंड और जर्मनी में पेटेंट कराए गए। इन प्रारंभिक मिश्रणों के आधार पर ऐल्यूमीनियम, सेलीनियम, मालिब्डीनम, सिलिकन, ताम्र, गंधक, टंग्स्टन और कोलंबियम को क्रोमियम और क्रोमियम इस्पात में मिलाकर श्रेष्ठ गुणधर्मवाले अकलुष इस्पात बनाने के आविष्कार हुए। जर्मनी में निकल का अभाव होने के कारण सन्‌ 1935 ई. में एक ऐसे प्रकार के अकलुष इस्पात का निर्माण हुआ जिसमें निकल के स्थान पर मैंगनीज़ का प्रयोग किया गया और मिश्र धातु बनाने के लिए सहायक के रूप में नाइट्रोजन प्रयुक्त हुआ।

क्षयरोधक और तापरोधक आधुनिक अकलुष इस्पातों को पाँच वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:

(1) जिनमें क्रोमियम का उपयोग मुख्य धातु-मिश्रणकारी के रूप में किया गया हो।

(2) जिनमें क्रोमियम और इस्पात की मिश्र धातु के गुणों में परिवर्तन के लिए पर्याप्त मात्रा में ऐल्यूमीनियम, ताम्र, मोलिब्डीनम, गंधक, सिलिकन, सेलीनियम या टंग्स्टन का उपयोग किया गया हो।

(3) जिनमें क्रोमियम, निकल और इस्पात के मिश्रणों में पूर्वोक्त अनुच्छेद में दी गई धातुओं में से हो, एक या अधिक का उपयोग अकलुष इस्पात के गुणों में थोड़ा सा परिवर्तन लाने के लिए किया गया हो।

(४) जिनमें क्रोमियम और निकल का उपयोग प्रमुख धातु-मिश्रणकारी के रूप में किया गया हो।

(5) जिनमें निकल के स्थान पर प्रमुख धातु-मिश्रणकारी के रूप में मैंगनीज़ का उपयोग किया गया हो और वैसा ही अकलुष इस्पात बनाया गया हो जैसा अनच्छेद (3) और (४) में वर्णित है।

कार्बन की मात्रा या धात्वीय संरचना की दृष्टि से भी इस्पात का वर्गीकरण किया जा सकता है। इनमें से प्रत्येक रीति में इस्पात का तीन वर्गों में विभाजन किया जाता है। कार्बन के अनुसार वर्गीकरण करने पर इस्पात न्यून, मध्यम और उच्च कार्बनवाले इस्पात कहलाते हैं। संरचना की दृष्टि से भी इस्पात को तीन वर्गों में बाँटते हैं:

(1) फेरिटिक इस्पात, जो कड़े किए ही नही जा सकते। इनमें 15 प्रतिशत से 30 प्रतिशत तक क्रोमियम रहता है, और कार्बन की मात्रा बहुत कम (0.08 से 0.20 प्रतिशत तक) रहती है।

(2) मारटेंसिटिक इस्पात, जो तप्त करके पानी में बुझाने पर कड़े हो जाते हैं। इनमें 10 प्रतिशत से 18 प्रतिशत तक क्रोमियम रहता है और 0.08 प्रतिशत से 1.10 प्रतिशत तक कार्बन।

(3) आस्टेनिटिक इस्पात, जो बिना बुझाए ही कड़ा किया जा सकता है। इसमें 16 प्रतिशत से 26 प्रतिशत तक क्रोमियम और 6 प्रतिशत से 22 प्रतिशत तक निकल रहता है।

परलैटिक इस्पात कठोर किया जा सकता है और ऐसा करने पर उसकी संरचना मारटेंसिटिक के समान हो जाती है।

क्रोमियम इस्पात में क्षय-प्रतिरोध-शक्ति बाह्य तल पर लौहक्रोमियम आक्साइड की पतली स्थायी परत बन जाने के कारण उत्पन्न होती है। यह पतली परत अपने नीचे स्थित इस्पात के क्षय को रोकती है। यदि रासायनिक क्रिया या रगड़ से यह तह नष्ट हो जाती है तो अविलंब उसके नीचे ऐसी ही दूसरी तह का निर्माण हो जाता है। उच्च ताप पर भी यह तह दृढ़ता से चिपकी रह जाती है और आक्सीकरण को रोकती है। लौह को निष्क्रिय बनाने के लिए क्रोमियम की न्यूनतम मात्रा 12 प्रतिशत है। धातु-मिश्रणकारी के रूप में क्रोमियम और निकल अथवा क्रोमियम और मैंगनीज़ मिलाकर बने अकलुष इस्पातों के गुण 'फेरिटिक' और साधारण क्रोमियम इस्पात से भिन्न होते हैं। ये इस्पात तार खींचने योग्य, अचुंबकीय और ठंडी विधि को छोड़ अन्य विधियों से कठोर न होनेवाले वर्ग में आते हैं। संरचना में ये आस्टेनिटिक इस्पात के समान हैं। क्षयनिरोधकता की दृष्टि से क्रोमियम मैंगनीज़ इस्पात की मिश्र धातु क्रोमियम-निकल-इस्पात की मिश्र धातु से निर्बल, किंतु उतने ही क्रोमियमवाले इस्पात की मिश्र धातु से सबल होती है। भारत में क्रोमियम और मैंगनीज़ की बहुलता की दृष्टि से यह तथ्य औद्योगिक महत्व का है।

प्रयोगात्मक रूप से लगभग संपूर्ण अकलुष इस्पात बिजली की भट्ठी में बनाया जाता है। थोड़ा सा भाग प्रवर्तन भट्ठियों (इंडक्शन फनेंसेज़) और आर्क-भट्ठियों में बनाया जाता है। कच्चे लोहे के टुकड़े भट्ठी में पिघलाए जाते हैं और आक्सीजन की सहयता से शोधित कर लिए जाते हैं। इसमें क्रोमियम डालने के लिए कार्बन की कम मात्रावाली लौहक्रोमियम मिश्र धातु पिघले लौह में मिलाई जाती है। फिर उसमें निकल या मैंगनीज़ मिलाया जाता है। अन्य धातुएँ भी आवश्कतानुसार भट्ठी में मिला दी जाती हैं। तब पिघले हुए, शोधित और विधिवत्‌ निर्मित मिश्र धातु की सिलें ढाल ली जाती हैं। इन सिलों को पीटकर या बेलकर छड़ों के रूप में बना लिया जाता है। अन्य प्रकार के इस्पातों की अपेक्षा अकलुष इस्पात में निर्माण की क्रियाएँ, यथा बाह्य तल का नियंत्रण, घिसना, रेतना, बाह्य तल पर आक्सीकरण रोकने के लिए पुन: गरम करना, अर्धनिर्मित वस्तुओं पर रेत की धार मारना और अम्ल से स्वच्छ करना आदि क्रियाएँ, अधिक मात्रा में की जाती हैं। इसके अतिरिक्त अकलुष इस्पात के उपकरणों के ऊपरी पृष्ठ को लोग विभिन्न अवस्थाओं में चाहते हैं, यथा मृदु, कठोर, चमकरहित से लेकर श्रेष्ठ पालिशवाले तक और खुरदुरे से लेकर पूर्णतया सुचिक्कण तक।

जहाँ निम्नलिखित अवस्थाओं में से एक या अधिक अवस्थाओं का निर्वाह सफलतापूर्वक करना पड़ता है वहाँ अकलुष इस्पात की आवश्यकता पड़ती है : प्रतिकूल ऋतु, धूल, खट्टा या नमकीन भोजन, रासायनिक पदार्थ, धातुओं को हानि पहुँचानेवाले जीवाणु, जल, घर्षण, आघात और अग्नि। इसका उपयोग वहाँ भी किया जाता है जहाँ बाह्य तल को स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वच्छ, सुंदर या सुचिक्कण रखना होता है। जहाँ मजबूती की आवश्यकता होती है वहाँ भी इसका उपयोग किया जाता है।

अकलुष इस्पात को चमकदार रखने के लिए साधारण पालिश या बिजली की कलई की आवश्कता नहीं होती, केवल समय-समय पर साधारण सफाई ही पर्याप्त रहती है। अकलुष इस्पात की विशेषता उसमें जंग न लगने, क्षय न होने और रंग में विकृति न होने के कारण है। साधारणत: प्रतिरोधशक्ति क्रोमियम अंश के अनुसार बदलती है। आस्टेनिटिक 18 : 8 वाले अकलुष इस्पात में (जिसमें 18 प्रतिशत क्रोमियम और 8 प्रतिशत निकल रहता है) ऋतुक्षय से बचने और भोजनालय के, कपड़ा धोने के तथा दुग्धशाला के बर्तनों और अन्य साधारण उपयोगों के निमित्त उत्तम प्रतिरोधशक्ति रहती है। इसके गुण 1४ : 18 क्रोमियम-इस्पात के समान होते हैं जिनमें कार्बन की मात्रा 0.12 प्रतिशत से अधिक नहीं होती। निकलवाला अकलुष इस्पात साधारण अकलुष इस्पात से कुछ ही महँगा पड़ता है। क्रोमियम निकल अकलुष इस्पात में मोलिब्डीनम मिलाने से लवणों और तेजाबों के प्रति प्रतिरोधशक्ति बढ़ जाती है। इससे इसका उपयोग समुद्रतटवर्ती अथवा लवण के संपर्क में आनेवाले उपादानों में विशेष रूप से होता है।

क्रोमियम-निकल अकलुष इस्पात को ४50° से 900° सेंटीग्रेड के तापों के बीच उपयोग करने अथवा पीटने से उसकी प्रतिरोध शक्ति कम हो जाती है। इस दोष को दूर करने के लिए उसे 1,000° से उच्च ताप पर गरम करके पुन: शीघ्रता से शीतल कर लिया जाता है। क्रोमियम-निकल और केवल क्रोमियमवाले अकलुष इस्पात, जिनमें कार्बन की की मात्रा 0.03 प्रतिशत से 0.08 प्रतिशत तक होती है और जिनको थोड़ा सा कोलंबियम, नियोबियम या टाइटेनियम मिलाकर स्थायी किया जाता है, इस प्रभाव से मुक्त रहते हैं।

अकलुष इस्पात के रासायनिक शत्रु हैं क्लोराइड, ब्रोमाइड और आयोडाइड। यदि धातु को समय-समय पर जल से स्वच्छ कर लिया जाता है और हवा में सूखने दिया जाता है तो वह अच्छा काम देती है। यदि धातु पर धूल अथवा अन्य पदार्थों की तह जम जाती है जिससे धातु से वायु का संपर्क नहीं हो पाता और धूल की तह लवणमय जल से तर हो जाती है तो ऐसे स्थानों पर गड्ढे पड़ जाते हैं। इसे रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय करने चाहिए :

(1) बर्तनों की संधियाँ गहरी और तीक्ष्ण न रहें। उन्हें गोल रखा जाए।

(2) क्षयात्मक प्रयोगों में आनेवाले उपादानों को भली भाँति चिकना करके पालिश कर ली जाए, विशेषकर वेल्ड की गई संधियों को।

(3) छनने और जालीदार टोकरियों को विशेष रूप से स्वच्छ किया जाए जिससे जालियों के बीच गर्द न जमने पाए।

(४) निर्माण के समय लगे हुए लौहकण और पपड़ियाँ घिसकर साफ कर दी जाएँ।

(5) क्षयकारी वातावरण में गरम किए जानेवाले सामानों के बनाने में इस बात का ध्यान रखा जाए कि उनके विभिन्न अवयवों के प्रसार के लिए पर्याप्त स्थान रहे।

चाप सहनेवाले वाल्व, पंप और नल की फिटिंग, जिन्हें 550° सेंटीगेड से ऊँचे ताप पर काम में लाना होता है, विश्वनीय मजबूती के लिए अकलुष इस्पात के बनाए जाते हैं। भट्ठियों के भागों में, दाहक कक्षों में, चिमनियों के अस्तर में और इसी प्रकार के अन्य कार्यों में अकलुष इस्पात का उपयोग किया जाता है। साधारण इस्पात पर जमी आक्साइड की परत सरलता से छूट पड़ती है, पर अकलुष इस्पात की आक्साइड की परत इसकी तुलना में स्थायी होती है और नीचे की धातु की रक्षा करती रहती है।

बहुत ठंडी करने पर अधिकांश धातुएँ चुरमुरी हो जाती हैं, किंतु क्रोमियम निकलवाले इस्पात द्रव आक्सीजन के ताप तक दृढ़, तार खींचने योग्य, और आघातसह बने रहते हैं। इसलिए उद्योगों में इस श्रेणी के निम्न ताप पर इसी धातु का प्रयोग किया जाता है।

अन्य धातुओं की अपेक्षा अकलुष इस्पात को बहुधा कम खर्च में ही सूक्ष्म एवं दृढ़ रूप दिया जा सकता है। इसके तार उसी सुगमता से खींचे जा सकते हैं जिस सुगमता से ताम्र या पीतल के, पर यह साधारण इस्पात से अधिक दृढ़ होते हैं। अपनी इस दृढ़ता के कारण अकलुष इस्पात के उपादानों को रूप देने में अधिक शक्ति, बड़े यंत्रों और अधिक श्रम की आवश्यकता होती है। यदि अत्यधिक दृढ़ उपादान निर्मित करना हो तो इस्पात को बीच-बीच में मृदु बनाने की क्रिया करनी पड़ती है। अकलुष इस्पात से विविध सामग्री बनाने में की जानेवाली प्रमुख क्रियाएँ ये हैं : मोड़ना, गोल करना, तार खींचना, पीटना, ऐंठना, तानना और नली बनाना।

यदि सावधानी से कार्य किया जाए तो अकलुष इस्पात के लिए व्यावसायिक वेल्डिंग की सभी प्रचलित रीतियाँ काम में लाई जा सकती हैं। पिघलाकर जोड़ने (वेल्ड करने) में आपसे आप बन जानेवाली गोलियों को घिसकर अत्यंत चिकना कर लिया जाता है जिससे जोड़ देखने में सुंदर लगे और स्वास्थ्य के लिए हितकर रहे। सुनिर्मित, स्वचालित, निष्क्रिय गैसों में संरक्षित, 'आर्क' भट्ठी पर वेल्ड किए हुए अकलुष इस्पात बिजली द्वारा पालिश करने देने से साधारणत: पर्याप्त चिकने हो जाते हैं। सभी प्रकार के क्रोमियम-निकल अकलुष इस्पात वेल्डिंग के ताप पर उत्पन्न होनेवाले विकृतिकारी प्रभावों के होते हुए भी तार खींचने योग्य रहते हैं। वेल्ड करते समय संधि के आसपास बनी गोलियाँ भी मृदु, पुष्ट और पिट सकने योग्य रहती हैं। यदि ऐसिटिलीन वेल्डिंग ठीक से न की जाए तो संधि में कार्बन का समावेश हो जाने से पुष्टता क्षयनिरोधकता में कमी आ जाती है।

कठोर बनाने योग्य अकलुष इस्पातों की भी वेल्डिंग की जा सकती है, किंतु उन्हें विशेष क्रियाओं द्वारा जोड़ा जाता है, जिससे वे चिटक न जाएँ। ऐसे इस्पातों को, जिनमें कार्बन की मात्रा 0.20 प्रतिशत से अधिक हो, पहले 260° सें. तक गरम कर लिया जाता है, फिर उन्हें उसी ताप पर वेल्ड करके मृदु बना लिया जाता है। यदि वेल्डिंग के पश्चात्‌ तुरंत ही धातु को कठोर करना और उसपर पानी चढ़ाना हो तो मृदु बनाने की क्रिया छोड़ी जा सकती है। साधारणत: ऐसे पुरजों को वेल्डिंग द्वारा नहीं जोड़ना चाहिए जिनपर बहुत ठोंक पीट या कटाई करनी हो।

अकलुष इस्पात के टुकड़े साधारणत: टक्करी जोड़ (बट वेल्डिंग) से जोड़े जाते हैं। पतली वस्तुएँ एक के ऊपर एक चढ़ाकर वेल्डिंग द्वारा जोड़ी जाती हैं। टैंक और रेफ्रजरेटर आदि की जोड़ाई सीम वेल्डिंग से की जाती है।

अकलुष इस्पात को जोड़ने में राँगे-सीसे के टाँके का उपयोग कदापि न करना चाहिए। अकलुष इस्पात को दूसरी धातुओं से जोड़ने के लिए चाँदी का टाँका लगाया जाता है, किंतु यदि यह क्रिया शीघ्र संपन्न न की जा सके तो इसमें मालिब्डीनम आदि पड़े सुस्थिर अकलुष का ही उपयोग करना चाहिए।

अधिकांश प्रामाणिक अकलुष इस्पातों को खरादने आदि में बड़ी कठिनाई पड़ती है। धातु के निकाले गए अंश लंबे-लंबे चिमड़े टुकड़ों में निकलते है जिनसे परेशानी होती है। गंधक अथवा सेलीनियम की कुछ अधिक मात्रा अकलुष इस्पात में मिलाकर इस दोष से मुक्त संकर धातु का निर्माण किया जा सकता है।

तप्त करके किसी भी प्रकार के अकलुष इस्पात को ठोंक पीटकर इच्छित आकार दिया जा सकता है। यद्यपि अकलुष इस्पात को ढाला जा सकता है, फिर भी पतली या मोटी चादरें जोड़कर ही विभिन्न वस्तुएँ बनाने की प्रथा अधिक प्रचलित है। यदि अकलुष इस्पात से सूक्ष्म यंत्र बनाने हों तो इसके लिए विशेष प्रकार के दाबनेवाले साँचों का उपयोग किया जाता है।

क्षयनिरोधक छनने और इसी प्रकार के अन्य नियंत्रित रंध्रों वाले यंत्र बनाने के लिए चूर्ण अकलुष इस्पात को विशेष ढंग के साँचों में अत्यंत अधिक दाब से दबाया जाता है।

पेंच, सिटकिनी, रिविट आदि को, जिनका उपयोग अकलुष इस्पात की वस्तुओं के संयोग के लिए किया जाए, अकलुष इस्पात का बनाना चाहिए।

क्रोमियम-निकल अकलुष इस्पात को अत्यधिक कठोर बनाया जा सकता है। मृदु किए गए सब प्रकार के अकलुष इस्पात साधारण इस्पात से अधिक मजबूत होते हैं। कठोर करने पर वे और भी मजबूत हो जाते हैं। ठंडी अवस्था में ही बेलने या तार खींचने से 18 : 8 वाले अकलुष इस्पात की मजबूती प्रति वर्ग इंच कई सौ टन होती है। ठंडी दशा में तनाव देकर बनाए गए क्रोमियम-निकल अकलुष इस्पात की चद्दरों को स्पॉट वेल्डिंग द्वारा जोड़कर ऐसी धरनें बनाई जा सकती हैं जिनका उपयोग अन्य हल्की संकर धातुओं के स्थान पर यातायात उद्योग अथवा ऐसे निर्माण कार्यों में लाभ के साथ हो सकता है जहाँ हल्की धातु का उपयोग नितांत आवश्यक होता है।

नीचे दी हुई तालिका विभिन्न प्रकार के अकलुष इस्पात और उनके उपयोगों को व्यक्त करती है :

(1) 12 प्रतिशत क्रोमियम साधारण कामों के लिए; कोयले के क्षेत्र में; प्रयुक्त यंत्रादि में; पंप, वाल्व आदि में।

(2) 17 प्रतिशत क्रोमियम

(क) तप्त कठोर हो सकनेवाला छुरी, काँटा आदि; शस्त्रचिकित्सा के औजार, बाल बेयरिंग आदि में।

(ख) कठोर न हो सकनेवाला गृहनिर्माण (आँतरिक); मोटरकार; दाहक कक्ष में।

(3) 18 : 8 क्रोमियम-निकल भोजन, भोजनागार, गृहों के बाहरी दरवाजों या दीवारों में।

(४) 18 : 8 क्रोमियम-निकल-मालिब्डीनम लवणमय जल; वस्त्रनिर्माण के यंत्र, कागज निर्माण के यंत्र; या फोटोग्राफी में।

(5) क्रोमियम-मैंगनीज़ भोजनागार, गृह के बाहरी उपकरण, और बाह्य दीवारों में।

सुचिक्कण अकलुष इस्पात सबसे अच्छा क्षयनिरोधी है। अकलुष इस्पात के बने पात्रों के भीतरी कोने गोल रखे जाते हैं। सर्वाधिक क्षयप्रतिरोध-शक्ति प्राप्त करने के लिए अकलुष इस्पात को 20-४0 प्रतिशत शोरे के अम्ल में 55° सें. से 70° सें तक ताप पर कम से कम आधे घंटे तक डुबाकर रखा जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ