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११:५८, ३ सितम्बर २०११ का अवतरण

लेख सूचना
कबाबचीनी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 404
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलवंत सिंह

कबाबचीनी नाम से कालीमिर्च सदृश सवृंत फल बाजार में मिलते हैं। इनका स्वाद कटु-तिक्त होता है, किंतु चबाने से मनोरम तीक्ष्ण गंध आती है और जीभ शीतल मालूम होती है। इसे कंकोल (ल्ल), सुगंधमरिच, शीतलचीनी और क्यूबेब (क्द्वडड्ढड) भी कहते हैं। यह पाइपरेसिई (Piperaceae) कुल की पाइपर क्यूबेबा (Piper Cubeba) नामक लता का फल है जो जावा, सुमात्रा तथा बोर्निओं में स्वत: पैदा होती है। लंका तथा दक्षिण भारत के कुछ भागों में भी इसे उगाया जाता है।

कबाबचीनी की लता आरोही एवं वर्षानुवर्षी, कांड स्पष्ट तथा मोटी संधियों से युक्त और पत्र चिकने, लंबाग्र, सवृंत और स्पष्ट शिराओंवाले तथा अधिकतर आयताकार होते हैं। पुष्प अवृंत, द्विक्षयक (dioecious) और शूकी (स्पाइक, spike) मंजरी से निकलते हैं। व्यवहार के लिए अपक्व परंतु पूर्ण विकसित फलों को ही तोड़कर सुखाया जाता है। ये गोलाकार, सूखने पर गाढ़े भूरे रंग के किंतु धूलिधूसरित, व्यास के लगभग चार मिलीमीटर और एक बीजवाले होते हैं। फलत्वक्‌ के ऊपर सिलवटों का जाल बना होता है। फल के शीर्ष भाग पर त्रिरश्म्याकार (ट्राइरेडिएट, triradiate) वर्तिकाग्र (स्टिग्मा, stigma) और आधार पर लगभग चार मिलीमीटर लंबी वृंत सदृश बाह्यवृद्धि उपस्थित रहती है।

आयुर्वेदीय चिकित्सा में इसका उपयोग बहुत कम हाता है, परंतु नव्य चिकित्सा पद्धति में इसका बहुत महत्व है। इसे कटु तिक्त, दीपक-पाचक, वृश्य तथा कफ, वात, तृषा एवं मुख की जड़ता और दुर्गंध दूर करनेवाली कहा गया है। श्लेष्मल कलाओं, विशेषत: मूत्र मार्ग, गुदा एवं श्वासमार्ग की श्लेष्मल कलाओं पर इसकी उत्तेजक क्रिया होती है। पुराने सुजाक (पूयमेह), अर्श तथा पुराने कफरोग में उत्तेजक, मूत्रजनक, पूतिहर, वातनाशक, दीपक और कफघ्न गुणों के कारण इसका प्रचुर उपयोग होता है। कबाबचीनी में ५-२० प्रतिशत उड़नेवाला तैल होता है, जिसमें टरपीन (Terpene), सेस्क्वि-टरपीन (Sesqui-Terpene) तथा केडिनीनी (Cadinene) आदि श्रेणी के कई द्रव्यों का मिश्रण होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ