कबीर

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लेख सूचना
कबीर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 404-405
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
स्रोत 'आदिग्रंथ'; 'गुरुग्रंथ साहिब' (अमृतसर); 'कबीर-ग्रंथावली' (वाराणसी); 'कबीर बीजक' (बाराबंकी); परशुराम चतुर्वेदी : 'उत्तरी भारत की संतपरंपरा' और 'कबीर साहित्य की परख' (प्रयाग); हजारीप्रसाद द्विवेदी : 'कबीर (बंबई); ब्रह्मलीन मुनि : 'सद्गुरु श्रीकबीरचरितम्‌' (बड़ोदा) आदि।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परशुराम चतुर्वेदी

कबीर का नाम कबीरदास, कबीर साहब एवं संत कबीर जैसे रूपों में भी प्रसिद्ध है। ये मध्यकालीन भारत के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समजासुधारक मानकर, दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर कबीरपंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है। कबीरपंथी इन्हें एक अलौकिक अवतारी पुरुष मानते हैं और इनके संबंध में बहुत सी चमत्कारपूर्ण कथाएँ भी सुनी जाती हैं। इनका कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त आज तक नहीं मिल सका, जिस कारण इस विषय में निर्णय करते समय, अधिकतर जनश्रुतियों, सांप्रदायिक ग्रंथों और विविध उल्लेखों तथा इनकी अभी तक उपलब्ध कतिपय फुटकल रचनाओं के अंत:साध्य का ही सहारा लिया जाता रहा है। फलत:, इस संबंध में तथा इनके मत के भी विषय में बहुत कुछ मतभेद पाया जाता है।

कबीर की मृत्युतिथि निश्चित करने वालों के तीन प्रमुख मतों में से एक उसे माघ सुदी ११, संवत्‌ १५७५ ठहराया है तो दूसरा उसे अगहन सुदी ११, सवंत्‌ १५०५ तक ले जाता है और तीसरा उसे इन दोनों के बीच, संवत्‌ १५५२ के किसी मास में, रखना चाहता है। इसके सिवाय, एक चौथे मत के अनुसार, हम उसे किसी निश्चित तिथि, मास या संवत्‌ एक चौथे मत के अनुसार, हम उसे किसी निश्चित तिथि, मास या संवत्‌ तक निरुद्ध न करके, उसे किसी शताब्दी या उसके किसी चरण तक ही ले जा सकते हैं। प्रथम तीन मतों का आधार जहाँ परंपरागत उक्तियाँ मात्र हैं, वहाँ चौथा, प्राप्त सामग्रियों का, युक्तिसंगत परिणाम भी निकालना चाहता है और, तदनुसार, कबीर की मृत्यु के, विक्रमी संवत्‌ की १६वीं शताब्दी के प्रथम चरण में, होने का अनुमान किया जा सकता है। इस प्रकार, कबीर की जन्मतिथि को भी परंपरागत ज्येष्ठ पूर्णिमा, चंद्रवार, संवत्‌ १४५५ के कुछ पहले तक ले जाया जा सकता है और इन्हें हम प्रसिद्ध मैथिल कवि विद्यापति का कनिष्ठ समसामयिक भी ठहरा सकते हैं।

कबीर की जाति के संबंध में भी प्रधानत: दो मत प्रसिद्ध हैं जिनमें से एक इन्हें हिंदू बतलाकर इनके कोरी होने का अनुमान करता है। इसे माननेवालों में से कुछ के अनुसार ये किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे और इनकी उस माता ने, अपनी लाज बचाने के उद्देश्य से, इन्हें काशी के निकटवर्ती लहरतारा तालाब के पास त्याग दिया जहाँ से नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने अपने घर लाकर इनका पालन पोषण किया और, इसी कारण, पे पीछे 'जुलहा' कहलाकार भी प्रसिद्ध हुए। परंतु दूसरा मत इन्हें जन्मजात जुलाहा मानता है और संत रैदास जैसे अनेक पुराने लोगों के कथनों (जैसे, 'आदिग्रंथ', रागु मलार २) के आधार पर, इनके मुसलमान तक प्रचलित है जिसके अनुसार कबीर का जुलाहा कुल, किन्हीं धर्मांतरित हिंदू कोरियों का ही रहा होगा अथवा वह किसी ऐसी 'जुगी' वा जोगी जाति का होगा जो नाथपंथी भी रही होगी। परंतु इसके लिए पर्याप्त प्रमाणों की कमी दीखती है।

कबीरपंथी कबीर को बहुधा अविवाहित मानते हैं, किंतु अन्य लोग इनकी पत्नी का 'लोई' नाम तक निश्चित कर देना चाहते हैं और, इसी इनके पुत्र कमाल और पुत्री कमाली तथा किसी निहाल और निहाली तक की चर्चा की जाती है। इनकी रचनाओं (जैसे, आदि ग्रं., गौड़, ६) में 'लोई' शब्द का उल्लेख भी पाया जाता है जिसका प्रयोग 'लोग' के अर्थ में भी किया गया माना जा सकता है और इसी प्रकार, ऐसे दो अन्य शब्दों 'धनियाँ' एवं 'रमजनियाँ' (वही, आत्मा ३३) की भी प्रासंगिक व्याख्या की जा सकती है। परंतु वहीं पर पाए जानेवाले 'लरिकी लरिकन खेलो नाहिं' तथा अन्यत्र (वही, गुजरी २) के 'ए बारिक कैसे जीवहिं रघुराई' से इनका संतानयुक्त होना भी सिद्ध किया जा सकता है। इनकी पैतृक जीविका कपड़े की बुनाई थी जिसके आधार पर इनके परिवार का भरण पोषण तथा साधुओं की आर्थिक सेवा करना कठिन था, अतएव इन्हें आर्थिक कष्ट ही रहा। कबीर, कदाचित्‌ पढ़े लिखे नहीं थे, किंतु बहुश्रुत अवश्य थे और इनकी रचनाएँ साखी, सबद एवं रमैनी आदि के रूपों में पाई जाती हैं।

कबीर ने अपने किसी गुरु के नाम का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं किया हैं, किंतु बहुमत स्वामी रामानंद को इनका गुरु मानने के पक्ष में दीख पड़ता है। कुछ लोगों के अनुसार शेख तकी भी इनके 'पीर' रहे होंगे, किंतु 'बीजक' (रमैनी ४८ और ६३) में उनके प्रति इनकी श्रद्धा प्रकट होती नहीं जान पड़ती। उनसे अधिक सम्मान ये किसी 'पीतांबर पीर' के प्रति प्रदर्शित करते जान पड़ते हैं (आ.ग्रं. आत्मा १३), किंतु उनका भी इनका गुरु होना प्रमाणित नहीं होता। कबीर का देशाटन करना तथा दूर-दूर तक जाकर वहाँ सत्संग करना और उपदेश देना भी प्रसिद्ध है। परंतु ये अधिकतर काशी में ही रहे जिसे अथवा जिसके निकटवाले किसी स्थान को इनकी जन्मभूमि भी मान लेने की परंपरा चली आती है। फिर भी कुछ लोग (आ.ग्रं. रामकली ३ के आधार पर) इसके मगहर होने का भी अनुमान करते हैं जो तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता। इसी प्रकार उसका बेलहरा होना सिद्ध नहीं है। कबीर के मृत्युस्थान का मगहर होना प्राय: सर्वसम्मत सा है जिसे कुछ कभी-कभी कुछ लोग मगह वा मग्गह समझने की भी भूल कर देते हैं।

कबीर की रचनाओं के उपलब्ध संग्रहों में से सिखों का 'आदिग्रंथ', 'कबरी ग्रंथवली' तथा 'कबीरतीजक' अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। परंतु तीनों के अंतर्गत संगृहीत इनकी बानियों में न्यूनाधिक पाठभेद पाया जाता है तथा उनके, संख्या में कम या अधिक, होने का भी अंतर स्पष्ट है। फिर भी, उनके तुलनात्मक अध्ययन और विवेचन के आधार पर इनके मूल सिद्धांत एवं साधना के विषय में, कुछ न कुछ परिणाम निकाला जा सकता है। इनकी रचनाओं द्वारा यह भी नहीं जान पड़ता कि ये किसी सिद्धांत का निरूपण करने अथवा उसे प्रति विशेष आग्रह प्रदर्शित करने की चेष्टा कर रहे हैं। ये अधिकतर प्रचलित मतों की समीक्षा करते, उनकी त्रुटियों के प्रति सब किसी का ध्यान आकृष्ट करते तथा अपनी अनुभूति एवं विचारपद्धति के अनुसार कहते मात्र दीख पड़ते हैं। ये दूसरी को भी स्वानुभूति एवं आत्मचिंतन पर ही आश्रित रहने का परामर्श देते हैं और, इस प्रकार, ये विचारस्वातंत््रय के समर्थक भी जान पड़ते हैं।

इनकी परमतत्व विषयक धारणा इनके द्वारा प्रयुक्त 'अगम', 'अकथ', 'अनुपम' एवं 'अविगत' जैसे शब्दों से स्पष्ट है। ये इस संबंध में 'वो है तैसा वो ही जानै, ओही आहि आहि नहिं आनै' (क.ग्रं. रमैणी ६) तथा 'जस कथिये तस होत नहिं, जस है तैसा सोइ' (वहीं, रमैणी ३) जसे वाक्य भी प्रयुक्त करते हैं जिनके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि ये उसके विषय में कुछ भी कथना करना अनावश्यक एवं व्यर्थ तक समझते होंगे। परंतु फिर भी ये उसे 'गुन अतीत', 'गुनबिहून' वा 'निरगुन' भी छहराते हैं तथा उसके लिए कभी 'आतम', कभी 'निजपद', कभी 'सहज' वा 'सुनि' (शून्य) अथवा 'ब्रह्मा' जैसे शब्दों तक के प्रयोग करते हैं और उसे 'करता' वा 'सिरजनहार' तक कह डालते हैं। इन्होंने उसका वर्णन 'विराट्' जैसा भी किया है (आ.ग्रं., और भैरउ २०) तथा उसे विष्णु, नरसिंह और कृष्ण जैसे सगुण और अवतारी रूप भी दे डाला है। इन्होंने जगत्‌ को उसकी 'लीला' बतलाया है तथा उसकी माया को विश्वमोहिनी तथा कभी-कभी 'साँपिन' वा 'डाइनि' तक भी ठहरा दिया है।

इस प्रकार इनका वह 'सति', वेदांत के 'ब्रह्म' जैसा प्रतीत होता हुआ थी कोरा 'चैतन्य' या भावात्मक 'सच्चिदानंद' मात्र नहीं है। उसका रूप सर्वथा अनिर्वचनीय होने पर भी, उसे जीवात्मा से स्वरूपत: अभिन्न कहा जा सकता है और उसे कोई अनुपम व्यक्तित्व भी प्रदान किया जा सकता है। वह सबका नियामक है, किंतु इस्लाम के 'अल्लाह' जैसा शाहंशाह अथवा शासक भी नहीं हैस, प्रत्युत सहृदय और दयालु है। जीवात्मा उसे 'भरम करम' के कारण अपने से पृथक मान बैठता है और जन्मांतर के फेर में पड़कर, दु:ख उठाता है। उसे अपने भीतर और बाहर, सर्वत्र अनुभव करता और, उसके प्रति प्रेमाभक्ति का भाव प्रदर्शित करते हुए, निरंतर 'सहज समाधि' में लीन रहना ही सबका ध्येय होना चाहिए। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए कबीर मन की चंचलता को दूर कर 'सुरति' का 'अनहद सबद' में लगाए रहना आवश्यक मानते हैं तथा, आत्मशुद्धि के साथ सभी प्राणियों को तत्वत: अभिन्न समझते हुए 'सहज सील' के अनुसार व्यवहार करने का आदर्श भी चित्रित करते हैं।

वैसी दशा में, अपने जीवन में ही, आमूल परिवर्तन आ जाता है, 'प्रेम ध्यान' की 'नारी' लग जाती है और संसार मात्र के साथ आत्मीयता का बोध होने लगता है। कबीर के अनुसार यही स्थिति किसी सच्चे 'संत' की भी है जिसके गुणों में निर्वैरता, निष्कामता, भगवद्भक्ति और विषयों के प्रति अनासक्ति की गणना होती है। इनकी दृष्टि में, जब सभी एक ही 'ज्योति' से उत्पन्न हैं, तो आपस में भेदभाव का होना न्यायसंगत नहीं है। मानव समाज के अंतर्गत पाए जानेवाले सांप्रदायिक भेद अथवा ऊँच नीच, ब्राह्मण शूद्र और धनी-निर्धन-परक भेदभाव को सर्वथा त्याज्य समझना उचित है, क्योंकि 'ये सभी बर्तन एक ही मिट्टी के बने हैं और उनका बनानेवाला भी एक है तथा वही सबके भीतर, काठ के भीतर अग्नि की भाँति, व्याप्त है।' (क.ग्रं., पद ५५)। इसी कारण ये वैसी बाहरी वेशभूषा, धार्मिक विडंबना एवं मूर्तिपूजन, ्व्रातादि को भी हेय ठहराते हैं जिनसे पारस्परिक अंतर तथा दंभ पाखंड की प्रवृत्ति जागृत हो सकती है। इस प्रकार ये एक ऐसे जीवनादर्श की प्रतिष्ठा करके प्रतीत होते हैं जिसके अनुसार भूतल ही स्वर्ग के रूप में परिणत हो जा सके।

कबीर की रचनाओं का मूल रूप उनके उपलब्ध पाठों में पूर्णत: सुरक्षित नहीं जान पड़ता और, इनके संभवत: अशिक्षित होने तथा इस बात से भी कि इनके समसामयिक धर्मोपदेशक प्राय: किसी न किसी मिश्रित भाषा का प्रयोग किया करते थे, उसके विशुद्ध न होने की ही अधिक संभावना है। फिर भी हम उसमें पुरानी 'हिंदवी', 'पूर्वी हिंदी', आदि के प्रयोग विशेष मात्रा में पाते हैं और उसपर पछाँही बोलियों का भी प्रभाव लक्षित होता है। इनकी रचनाएँ व्याकरण एवं पिंगल को नियमों का यथेष्ट अनुसरण करती नहीं जान पड़तीं और उसमें कई शब्दों के विकृत रूप मिलते हैं। परंतु इनकी रचनाशैली में एक विशिष्ट ओज और चुटीलापन पाया जाता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। इसके सिवाय, इनके द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों एवं रूपकादि के कारण, उसमें एक अपूर्व स्पष्टता और सरसता आ जाती है जो इनकी कविसुलभ प्रतिभा की ओर संकेत करती है। कबीर एक ओर जहाँ अपनी गूढ़ और गंभीर अनुभूतियों के अभिव्यक्ति में पटु हैं, वहाँ, दूसरी ओर, 'मति का भोरा' व्यक्ति की कटु आलोचना करना भी जानते हैं।

कबीर का व्यक्तित्व विलक्षण था और उनकी बानियों में भी हमें अधिकतर निरालेपन के ही उदाहरण मिलते हैं। उनके मत की सार्वभौमिकता का पता इससे चलता है कि कुछ लोग जहाँ उन्हें शांकराद्वैत का समर्थक मानते हैं वहाँ दूसरे परम वैष्णव के रूप में देखते हैं; इसी प्रकार, जहाँ किसी को उनपर बौद्ध सिद्धों और नाथपंथियों का प्रभाव लक्षित होता है तो दूसरे उन्हें सूफियों ही नहीं ईसाइयों तक से प्रभावित पाने लगते हैं। उनके मार्ग पर पीछे संतों की एक पृथक परंपरा चल निकली जिसके अनुसार 'संतमत' की विचारधारा प्रवर्तित हुई और 'संतसाहित्य' का निर्माण भी हुआ, किंतु ऐसे संतों के नामों पर जो विभिन्न पंथ वा संप्रदाय स्थापित हुए उरके द्वारा उन उच्चादर्शों का सम्यक्‌ पालन हो सका जो कबीर को अभीष्ट थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ