कुक्कुर कास

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लेख सूचना
कुक्कुर कास
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 53-54
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कपिलदेव व्यास

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कुक्कुर कास (कूकरखाँसी, काली खाँसी अथवा हूफ्गिं कफ (Hooping cough))। छूत का विशेष रोग, जिसमें रोगी के श्वसनतंत्र में सूजन हो जाती है और सतत खाँसी का आक्रमण होता रहता है। खाँसी के अंत में हूप शब्द होता है। अधिकतर यह रोग छह सात साल से कम आयु के बच्चों को होता है। युवा और वृद्धावस्था में भी कभी-कभी हो जाता है। प्राय: खाँसते खाँसते चेहरा और नेत्र लाल हो जाते हैं तथा वमन होने लगता है।

इस रोग का उद्भवन काल छह से अठारह दिन है और इसका संक्रमण संवेग आरंभ होने से चार सप्ताह तक, अथवा रोग प्रारंभ होने से छह सप्ताह तक, या हूप बंद होने के दो सप्ताह तक रहता है।

इस रोग का कारण बैसिलस परट्यसिस (Bacillus Pertussis) नामक दंडाणु है, जो रोगी के श्लेष्मा (बलगम) के साथ निकलकर कफ के छोटे छोटे कणों के रूप में श्वासनली द्वारा औरों में छूत फैलाता है। वैसे तो यह रोग किसी भी ऋ तु में हो सकता है, किंतु शीत और ग्रीष्मकाल में इसका अधिक प्रकोप रहता है।

लक्षण

रोगोत्पत्ति के अनंतर सर्वप्रथम नाक से पानी बहने लगता है, तबीयत गिरी-सी रहती है और हल्का-सा ज्वर हो जाता है। तदुपरांत हलकी खाँसी आती है, फिर उसकी तीव्रता धीरे-धीरे बढ़ जाती है। रोगी लंबा, गहरा, ऊँ चा अंत:श्वास भरने लगता है और इस प्रकार का एक के बाद दूसरा आक्रमण होने लगता है। मुख और नेत्र सुर्ख हो जाते हैं। अंत में थोड़ा सा बलगम निकलता है, रोगी बहुत सुस्त और निर्बल हो जाता है। खाँसी के बारंबार आक्रमण के कारण कई बार बच्चों का मुँह सूज जाता है।

चिकित्सा

रोगी को खुले हवादार स्वच्छ कमरे में रखना चाहिए। दूसरे बच्चों को रोगी से दूर रखना चाहिए। भोजन अल्प मात्रा में और थोड़े-थोड़े समय पर देना चाहिए। बेलाडोना, ब्रोमाइड, एफेड्रीन फीनोबारबिटोन, क्लोरोमाइसेटिन अथवा ऑरिओमाइनिन इसकी औषधि हैं। किंतु निरोध के रूप में बच्चों को छोटी अवस्था में ही हूपिंग कफ वेक्सीन अथवा ट्रिपल एंटीजेन वेक्सीन का इंजेक्शन एक एक मास के अंतर से लगातार तीन बार दिया जाता है। इससे इस रोग के होने की संभावना प्राय: नहीं रहती। आयुर्वेद में लसोड़े की चटनी, दशमूल का काढ़ा या घृत तथा चंद्रामृत रस बताए गए हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ