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कुतुब मीनार दिल्ली में महरौली ग्राम के निकट स्थित एक भव्य ऊँ ची मीनार। इसका निर्माण दिल्ली सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने १२ वीं सदी ई. के अंत में रायपिथौरा के किले एवं मंदिर के विध्वंस के उपरांत कराया था। इस मीनार का निचला खंड हिंदुओं का बनवाया हुआ अनुमान किया जाता है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इस मीनार के निर्माण का आरंभ पृथ्वीराज चौहान के पितामह बीसलदेव विग्रहराज के समय में हुआ, जो एक महान्‌ विजेता के साथ-साथ स्थापत्य कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने जब तोमर अनंगपाल को हराकर दिल्ली पर अधिकार किया तो अपनी इस विजय की स्मृति में इसका निर्माण आरंभ किया। एक अनुश्रुति के अनुसार इस खंड का निर्माण पृथ्वीराज द्वारा स्वयं किले और मंदिर के साथ ११४३ ई.के लगभग तैयार कराने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि उसके एक कन्या थी जो यमुना दर्शन के बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करती थी। उसकी सुविधा के लिए पृथ्वीराज ने स्तंभ के रूप में पहले खंड का निर्माण कराया था। मीनार के पहले खंड के अभिलेखों के निरीक्षण से ज्ञात होता है कि ये बाद में लगाए गए होंगे। जिस प्रकार मंदिर को तोड़ने के उपरांत निर्मित मस्जिद में कुतुबुद्दीन ऐबक सिपहसालार और सुल्तान मुईजुद्दीन के नाम के अभिलेख लगाए गए। उसी प्रकार इसमें भी अभिलेख खुदवाए गए होंगे। इसके अतिरिक्त इसका प्रथम द्वार उत्तर की ओर है जब कि अजान की मीनारों के द्वार सर्वदा पूर्व की ओर होते हैं और सुल्तान अलाउद्दीन ने जो लाट बनवानी प्रारंभ की उसका द्वार भी उससे पूर्व की ओर रखा। इनसे तथा कुछ अन्य बातों से इस कथन को बल मिलता है।
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कुतुब मीनार दिल्ली में महरौली ग्राम के निकट स्थित एक भव्य ऊँ ची मीनार। इसका निर्माण दिल्ली सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने १२ वीं सदी ई. के अंत में रायपिथौरा के किले एवं मंदिर के विध्वंस के उपरांत कराया था। इस मीनार का निचला खंड हिंदुओं का बनवाया हुआ अनुमान किया जाता है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इस मीनार के निर्माण का आरंभ पृथ्वीराज चौहान के पितामह बीसलदेव विग्रहराज के समय में हुआ, जो एक महान्‌ विजेता के साथ-साथ स्थापत्य कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने जब तोमर अनंगपाल को हराकर दिल्ली पर अधिकार किया तो अपनी इस विजय की स्मृति में इसका निर्माण आरंभ किया। एक अनुश्रुति के अनुसार इस खंड का निर्माण पृथ्वीराज द्वारा स्वयं किले और मंदिर के साथ ११४3 ई.के लगभग तैयार कराने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि उसके एक कन्या थी जो यमुना दर्शन के बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करती थी। उसकी सुविधा के लिए पृथ्वीराज ने स्तंभ के रूप में पहले खंड का निर्माण कराया था। मीनार के पहले खंड के अभिलेखों के निरीक्षण से ज्ञात होता है कि ये बाद में लगाए गए होंगे। जिस प्रकार मंदिर को तोड़ने के उपरांत निर्मित मस्जिद में कुतुबुद्दीन ऐबक सिपहसालार और सुल्तान मुईजुद्दीन के नाम के अभिलेख लगाए गए। उसी प्रकार इसमें भी अभिलेख खुदवाए गए होंगे। इसके अतिरिक्त इसका प्रथम द्वार उत्तर की ओर है जब कि अजान की मीनारों के द्वार सर्वदा पूर्व की ओर होते हैं और सुल्तान अलाउद्दीन ने जो लाट बनवानी प्रारंभ की उसका द्वार भी उससे पूर्व की ओर रखा। इनसे तथा कुछ अन्य बातों से इस कथन को बल मिलता है।
  
१२२९ ई. के लगभग, जब सुल्तान शम्शुद्दीन इल्तुतमिश ने मस्जिद के इधर-उधर तीन द्वार बढ़ाए उसी समय, इस लाट को भी ऊँ चा कराया और दूसरे खंड के द्वार पर इसका विवरण खुदवाया और इसका नाम माजेना अथवा अजान देने का स्थान रखा। उसने हर तल्ले पर इसी नाम के लेख और जुमे की नमाज की आयतों को खुदवाकर मेमार का नाम भी लिखवा दिया। इस समय इस मीनार में पाँच खंड हैं किंतु पहले सात खंड रहे होंगे, कारण यह मीनार ए हफ्त मंजरी के नाम से प्रसिद्ध है। ७वाँ तल्ला १३६८ ई. में सुल्तान फीरोजशाह ने बनवाया। उसने स्वयं लिखा है कि इस लाट की मरम्मत का विवरण उसने पाँचवें खंड के द्वार पर खुदवाया है। १५०३ ई. में सुल्तान सिकंदर बहलोल के समय इसकी मरम्मत कराई गई। १७८२ ई. में आँधी एवं भूचाल के कारण ऊपर के खंड गिर पड़े और प्रथम खंड के भी बहुत से पत्थर नष्ट हो गए, अत: अंग्रेजी सरकार ने १८२९ ई. में इसकी मरम्मत कराई और ५वें खंड पर पीतल क सुंदर कटहरा लगवा दिया। छठे खंड के स्थान पर पत्थर की आठ द्वार की सुंदर बुर्जी और ७वें खंड के स्थान पर काठ की बुर्जी लगवाई; किंतु ये दोनों बुर्जियाँ खड़ी न रह सकीं और पत्थर की बुर्जी को लाट से उतारकर नीचे खड़ा कर दिया गया; काठ की बुर्जी नष्ट हो गई। इसी मरम्मत के समय मीनार के अभिलेख के जो अक्षर नष्ट हो गए थे उन्हें फिर बनवाया गया किंतु वे प्राय: अशुद्ध हैं और कई स्थानों पर केवल शब्दों के रूप बना दिए गए हैं; किंतु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि वे शब्द नहीं है। कहीं-कहीं पूर्णत: अशुद्ध शब्द खोद दिए गए हैं।
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१२२९ ई. के लगभग, जब सुल्तान शम्शुद्दीन इल्तुतमिश ने मस्जिद के इधर-उधर तीन द्वार बढ़ाए उसी समय, इस लाट को भी ऊँ चा कराया और दूसरे खंड के द्वार पर इसका विवरण खुदवाया और इसका नाम माजेना अथवा अजान देने का स्थान रखा। उसने हर तल्ले पर इसी नाम के लेख और जुमे की नमाज की आयतों को खुदवाकर मेमार का नाम भी लिखवा दिया। इस समय इस मीनार में पाँच खंड हैं किंतु पहले सात खंड रहे होंगे, कारण यह मीनार ए हफ्त मंजरी के नाम से प्रसिद्ध है। ७वाँ तल्ला १3६८ ई. में सुल्तान फीरोजशाह ने बनवाया। उसने स्वयं लिखा है कि इस लाट की मरम्मत का विवरण उसने पाँचवें खंड के द्वार पर खुदवाया है। १५०3 ई. में सुल्तान सिकंदर बहलोल के समय इसकी मरम्मत कराई गई। १७८२ ई. में आँधी एवं भूचाल के कारण ऊपर के खंड गिर पड़े और प्रथम खंड के भी बहुत से पत्थर नष्ट हो गए, अत: अंग्रेजी सरकार ने १८२९ ई. में इसकी मरम्मत कराई और ५वें खंड पर पीतल क सुंदर कटहरा लगवा दिया। छठे खंड के स्थान पर पत्थर की आठ द्वार की सुंदर बुर्जी और ७वें खंड के स्थान पर काठ की बुर्जी लगवाई; किंतु ये दोनों बुर्जियाँ खड़ी न रह सकीं और पत्थर की बुर्जी को लाट से उतारकर नीचे खड़ा कर दिया गया; काठ की बुर्जी नष्ट हो गई। इसी मरम्मत के समय मीनार के अभिलेख के जो अक्षर नष्ट हो गए थे उन्हें फिर बनवाया गया किंतु वे प्राय: अशुद्ध हैं और कई स्थानों पर केवल शब्दों के रूप बना दिए गए हैं; किंतु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि वे शब्द नहीं है। कहीं-कहीं पूर्णत: अशुद्ध शब्द खोद दिए गए हैं।
  
मीनार का पहला खंड ३२ गज कुछ इंच, दूसरा खंड १७ गज कुछ इंच, तीसरा खंड १३ गज, चौथा खंड सवा आठ गज और पाँचवा खंड भी उस थोड़ी सी ऊँ चाई सहित जो कटहरे के भीतर है, सवा आठ गज है। इस प्रकार इसके वर्तमान पाँचों खंडों की, ऊँ चाई लगभग ८० गज होती है। पत्थर की बुर्जी की ऊँचाई, जो अंग्रेजी शासनकाल में चढ़ाई गई थी और अब उतारकर नीचे रख दी गई है, ६ गज है। यह मीनार भीतर से खोखली है और इसमें चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जिनसे ऊपर तक पहुँचा जा सकता है।
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मीनार का पहला खंड 3२ गज कुछ इंच, दूसरा खंड १७ गज कुछ इंच, तीसरा खंड १3 गज, चौथा खंड सवा आठ गज और पाँचवा खंड भी उस थोड़ी सी ऊँ चाई सहित जो कटहरे के भीतर है, सवा आठ गज है। इस प्रकार इसके वर्तमान पाँचों खंडों की, ऊँ चाई लगभग ८० गज होती है। पत्थर की बुर्जी की ऊँचाई, जो अंग्रेजी शासनकाल में चढ़ाई गई थी और अब उतारकर नीचे रख दी गई है, ६ गज है। यह मीनार भीतर से खोखली है और इसमें चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जिनसे ऊपर तक पहुँचा जा सकता है।
  
 
कुतुब मीनार को जिस भी पहलू तथा स्थान से देखा जाए, हृदय पर एक गहरा प्रभाव पड़ता है और अनुभव होता है कि यह एक प्रभावोत्पादक विचार का साकार रूप है। इसके लाल पत्थरों का स्वच्छ रंग, मंजिलों की अलंकरण की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्नता, स्थापत्य के सादा काम के बाद सुंदर शिल्पकारी, छज्जों के नीचे जगमगाती छाया, इन सबका सामूहिक रूप से एक गहरा तथा मनोरंजक प्रभाव पड़ता है। इस मीनार को एक ओर से कम करते हुए इस उद्देश्य से वर्तुलाकार बनाया गया था कि देखनेवालों को ऐसा प्रतीत हो कि वह ऊपर आकाश में घुसती चली गई है और उसकी ऊँ चाई बढ़ती जाती है।  
 
कुतुब मीनार को जिस भी पहलू तथा स्थान से देखा जाए, हृदय पर एक गहरा प्रभाव पड़ता है और अनुभव होता है कि यह एक प्रभावोत्पादक विचार का साकार रूप है। इसके लाल पत्थरों का स्वच्छ रंग, मंजिलों की अलंकरण की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्नता, स्थापत्य के सादा काम के बाद सुंदर शिल्पकारी, छज्जों के नीचे जगमगाती छाया, इन सबका सामूहिक रूप से एक गहरा तथा मनोरंजक प्रभाव पड़ता है। इस मीनार को एक ओर से कम करते हुए इस उद्देश्य से वर्तुलाकार बनाया गया था कि देखनेवालों को ऐसा प्रतीत हो कि वह ऊपर आकाश में घुसती चली गई है और उसकी ऊँ चाई बढ़ती जाती है।  

०७:०१, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
कुतुब मीनार
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 59
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सैयद अतहर अब्बास रिज़वी., परमेश्वरीलाल गुप्त

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कुतुब मीनार दिल्ली में महरौली ग्राम के निकट स्थित एक भव्य ऊँ ची मीनार। इसका निर्माण दिल्ली सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक ने १२ वीं सदी ई. के अंत में रायपिथौरा के किले एवं मंदिर के विध्वंस के उपरांत कराया था। इस मीनार का निचला खंड हिंदुओं का बनवाया हुआ अनुमान किया जाता है। कुछ इतिहासकारों की धारणा है कि इस मीनार के निर्माण का आरंभ पृथ्वीराज चौहान के पितामह बीसलदेव विग्रहराज के समय में हुआ, जो एक महान्‌ विजेता के साथ-साथ स्थापत्य कलाप्रेमी भी थे। उन्होंने जब तोमर अनंगपाल को हराकर दिल्ली पर अधिकार किया तो अपनी इस विजय की स्मृति में इसका निर्माण आरंभ किया। एक अनुश्रुति के अनुसार इस खंड का निर्माण पृथ्वीराज द्वारा स्वयं किले और मंदिर के साथ ११४3 ई.के लगभग तैयार कराने की बात कही जाती है। कहा जाता है कि उसके एक कन्या थी जो यमुना दर्शन के बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करती थी। उसकी सुविधा के लिए पृथ्वीराज ने स्तंभ के रूप में पहले खंड का निर्माण कराया था। मीनार के पहले खंड के अभिलेखों के निरीक्षण से ज्ञात होता है कि ये बाद में लगाए गए होंगे। जिस प्रकार मंदिर को तोड़ने के उपरांत निर्मित मस्जिद में कुतुबुद्दीन ऐबक सिपहसालार और सुल्तान मुईजुद्दीन के नाम के अभिलेख लगाए गए। उसी प्रकार इसमें भी अभिलेख खुदवाए गए होंगे। इसके अतिरिक्त इसका प्रथम द्वार उत्तर की ओर है जब कि अजान की मीनारों के द्वार सर्वदा पूर्व की ओर होते हैं और सुल्तान अलाउद्दीन ने जो लाट बनवानी प्रारंभ की उसका द्वार भी उससे पूर्व की ओर रखा। इनसे तथा कुछ अन्य बातों से इस कथन को बल मिलता है।

१२२९ ई. के लगभग, जब सुल्तान शम्शुद्दीन इल्तुतमिश ने मस्जिद के इधर-उधर तीन द्वार बढ़ाए उसी समय, इस लाट को भी ऊँ चा कराया और दूसरे खंड के द्वार पर इसका विवरण खुदवाया और इसका नाम माजेना अथवा अजान देने का स्थान रखा। उसने हर तल्ले पर इसी नाम के लेख और जुमे की नमाज की आयतों को खुदवाकर मेमार का नाम भी लिखवा दिया। इस समय इस मीनार में पाँच खंड हैं किंतु पहले सात खंड रहे होंगे, कारण यह मीनार ए हफ्त मंजरी के नाम से प्रसिद्ध है। ७वाँ तल्ला १3६८ ई. में सुल्तान फीरोजशाह ने बनवाया। उसने स्वयं लिखा है कि इस लाट की मरम्मत का विवरण उसने पाँचवें खंड के द्वार पर खुदवाया है। १५०3 ई. में सुल्तान सिकंदर बहलोल के समय इसकी मरम्मत कराई गई। १७८२ ई. में आँधी एवं भूचाल के कारण ऊपर के खंड गिर पड़े और प्रथम खंड के भी बहुत से पत्थर नष्ट हो गए, अत: अंग्रेजी सरकार ने १८२९ ई. में इसकी मरम्मत कराई और ५वें खंड पर पीतल क सुंदर कटहरा लगवा दिया। छठे खंड के स्थान पर पत्थर की आठ द्वार की सुंदर बुर्जी और ७वें खंड के स्थान पर काठ की बुर्जी लगवाई; किंतु ये दोनों बुर्जियाँ खड़ी न रह सकीं और पत्थर की बुर्जी को लाट से उतारकर नीचे खड़ा कर दिया गया; काठ की बुर्जी नष्ट हो गई। इसी मरम्मत के समय मीनार के अभिलेख के जो अक्षर नष्ट हो गए थे उन्हें फिर बनवाया गया किंतु वे प्राय: अशुद्ध हैं और कई स्थानों पर केवल शब्दों के रूप बना दिए गए हैं; किंतु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि वे शब्द नहीं है। कहीं-कहीं पूर्णत: अशुद्ध शब्द खोद दिए गए हैं।

मीनार का पहला खंड 3२ गज कुछ इंच, दूसरा खंड १७ गज कुछ इंच, तीसरा खंड १3 गज, चौथा खंड सवा आठ गज और पाँचवा खंड भी उस थोड़ी सी ऊँ चाई सहित जो कटहरे के भीतर है, सवा आठ गज है। इस प्रकार इसके वर्तमान पाँचों खंडों की, ऊँ चाई लगभग ८० गज होती है। पत्थर की बुर्जी की ऊँचाई, जो अंग्रेजी शासनकाल में चढ़ाई गई थी और अब उतारकर नीचे रख दी गई है, ६ गज है। यह मीनार भीतर से खोखली है और इसमें चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं जिनसे ऊपर तक पहुँचा जा सकता है।

कुतुब मीनार को जिस भी पहलू तथा स्थान से देखा जाए, हृदय पर एक गहरा प्रभाव पड़ता है और अनुभव होता है कि यह एक प्रभावोत्पादक विचार का साकार रूप है। इसके लाल पत्थरों का स्वच्छ रंग, मंजिलों की अलंकरण की दृष्टि से एक दूसरे से भिन्नता, स्थापत्य के सादा काम के बाद सुंदर शिल्पकारी, छज्जों के नीचे जगमगाती छाया, इन सबका सामूहिक रूप से एक गहरा तथा मनोरंजक प्रभाव पड़ता है। इस मीनार को एक ओर से कम करते हुए इस उद्देश्य से वर्तुलाकार बनाया गया था कि देखनेवालों को ऐसा प्रतीत हो कि वह ऊपर आकाश में घुसती चली गई है और उसकी ऊँ चाई बढ़ती जाती है।

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