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'''कुल्ली संस्कृति''' दक्षिण बलूचिस्तान के कोलवा प्रदेश के कुल्ली नाम स्थान के पुरातात्विक [[उत्खनन]] से ज्ञात एक कृषि प्रधान ग्रामीण संस्कृति जो सिंधु घाटी में हड़प्पा-मुअन-जो-दाड़ो आदि के उत्खनन से ज्ञात नागरिक संस्कृति की समकालिक अथवा उससे कुछ पूर्व की अनुमान की जाती है। यह संस्कृति उत्तरी बलूचिस्तान के झांब नामक स्थान के उत्खनन से ज्ञात संस्कृति तथा दक्षिणी बलूचिस्तान के अन्य स्थानों की पुरातन संस्कृति से सर्वथा भिन्न है।
  
 
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इस संस्कृति की विशिष्टता और उसका निजस्व मृद्भांडों के आकार, उनपर खचित चित्र, शव दफनाने की पद्धति तथा पशु और नारी मूर्तियों से प्रकट होता हैं। यहाँ से उपलब्ध मृद्भांडों हिरवँजी रंग के है और उनपर ताँबे के रंग की चिकनी ओप है और काले रंग से चित्रण हुआ हैं। कुछ भांड राख के रंग के भी हैं। इन भांडों में थाल, गोदर उदर के गड़ वे तथा बोतल के आकार के सुराही आदि मुख्य हैं। बर्तनों पर बैल, गाय, बकरी, पक्षी, वृक्ष आदि का चित्रण हुआ है। शव दफनाने के लिए वहाँ के निवासी मृद्भांडों का उपयोग करते थे। उसमें मृतक की अस्थि रखकर गाड़ते थे और उसके साथ ताँबे की वस्तुएँ, बर्तन आदि रखते थे। नारी मूर्तियों के संबंध में अनुमान किया जाता है कि वे मातृका की प्रतीक हैं। उनकी पूजा वहाँ के निवासी करते रहे होंगे।
'''कुल्ली संस्कृति''' दक्षिण बलूचिस्तान के कोलवा प्रदेश के कुल्ली नाम स्थान के पुरातात्विक उत्खनन से ज्ञात एक कृषि प्रधान ग्रामीण संस्कृति जो सिंधु घाटी में हड़प्पा-मुअन-जो-दाड़ो आदि के उत्खनन से ज्ञात नागरिक संस्कृति की समकालिक अथवा उससे कुछ पूर्व की अनुमान की जाती है। यह संस्कृति उत्तरी बलूचिस्तान के झांब नामक स्थान के उत्खनन से ज्ञात संस्कृति तथा दक्षिणी बलूचिस्तान के अन्य स्थानों की पुरातन संस्कृति से सर्वथा भिन्न है।
 
 
 
इस संस्कृति की विशिष्टता और उसका निजस्व मृद्भांडों के आकार, उनपर खचित चित्र, शव दफनाने की पद्धति तथा पशु और नारी मूर्तियों से प्रकट होता हैं। यहाँ से उपलब्ध मृद्भांडों हिरवँजी रंग के है और उनपर ताँबे के रंग की चिकनी ओप है और काले रंग से चित्रण हुआ हैं। कुछ भांड राख के रंग के भी हैं। इन भांडों में थाल, गोदर उदर के गड़ वे तथा बोतल के आकार के सुराही आदि मुख्य हैं। बर्तनों पर बैल, गाय, बकरी, पक्षी, वृक्ष आदि का चित्रण हुआ है। शव दफनाने के लिए वहाँ के निवासी मृद्भांडों का उपयोग करते थे। उसमें मृतक की अस्थि रखकर गाड़ते थे और उसके साथ ताँबे की वस्तुएँ, बर्तन आदि रखते थे। नारी मूर्तियों के संबंध में अनुमान किया जाता है कि वे मातृका की प्रतीक हैं। उनकी पूजा वहाँ के निवासी करते रहे होंगे।  
 
 
 
 
 
  
 
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१३:३७, २२ मार्च २०१४ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
कुल्ली संस्कृति
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 75
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

कुल्ली संस्कृति दक्षिण बलूचिस्तान के कोलवा प्रदेश के कुल्ली नाम स्थान के पुरातात्विक उत्खनन से ज्ञात एक कृषि प्रधान ग्रामीण संस्कृति जो सिंधु घाटी में हड़प्पा-मुअन-जो-दाड़ो आदि के उत्खनन से ज्ञात नागरिक संस्कृति की समकालिक अथवा उससे कुछ पूर्व की अनुमान की जाती है। यह संस्कृति उत्तरी बलूचिस्तान के झांब नामक स्थान के उत्खनन से ज्ञात संस्कृति तथा दक्षिणी बलूचिस्तान के अन्य स्थानों की पुरातन संस्कृति से सर्वथा भिन्न है।

इस संस्कृति की विशिष्टता और उसका निजस्व मृद्भांडों के आकार, उनपर खचित चित्र, शव दफनाने की पद्धति तथा पशु और नारी मूर्तियों से प्रकट होता हैं। यहाँ से उपलब्ध मृद्भांडों हिरवँजी रंग के है और उनपर ताँबे के रंग की चिकनी ओप है और काले रंग से चित्रण हुआ हैं। कुछ भांड राख के रंग के भी हैं। इन भांडों में थाल, गोदर उदर के गड़ वे तथा बोतल के आकार के सुराही आदि मुख्य हैं। बर्तनों पर बैल, गाय, बकरी, पक्षी, वृक्ष आदि का चित्रण हुआ है। शव दफनाने के लिए वहाँ के निवासी मृद्भांडों का उपयोग करते थे। उसमें मृतक की अस्थि रखकर गाड़ते थे और उसके साथ ताँबे की वस्तुएँ, बर्तन आदि रखते थे। नारी मूर्तियों के संबंध में अनुमान किया जाता है कि वे मातृका की प्रतीक हैं। उनकी पूजा वहाँ के निवासी करते रहे होंगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ