कृत्रिम जीन

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लेख सूचना
कृत्रिम जीन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 90-91
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक निरंकार सिहं

कृत्रिम जीन मनुष्य के द्वारा प्रयोगशाला में तैयार किया गया जीन। जीन, डी. एन. ए. (अम्ल) के उस खंड को कहते हें जिसमें आनुवंशिक कूट (द्र. आनुवंशिकी) निहित होता है। जीन संसार का सबसे विचित्र रसायन है जिसमें अपनी प्रतिकृति उत्पन्न करने के साथ-साथ जीवधारियों के शरीर में होने वाली अनेक क्रियाओं को आरंभ और नियंत्रित करने की भी क्षमता होती है। इस प्रकार जीन जीवन की इकाई भी है।

१९७० में भारत के डॉ. हरगोविंद खुराना, वितोरियो गासमेला तथा हांस वांद सांदे, नार्वे के रवेल क्लेप के साथ मिलकर कृत्रिम उपायों से प्रयोगशाला में जीवन की इकाई जीन को बनाने में सफल हुए। प्रयोगशाला में जीन का संश्लेषण एक जटिल समस्या रही है। इस समस्या के समाधान के लिए ये वैज्ञानिक अपना कार्य १९६५ से ही कर रहे थे। जीनका जीवन से घनिष्ठतम संबंध है और जीवन के संबंध में हम आजतक भी ठीक-ठीक नहीं जान सके हैं। इतना ही मालूम हो पाया है कि हर जीवित प्राणी का शरीर अत्यंत सूक्ष्म कोशिकाओं से बना है। कोशिकाओं में जीवद्रव्य नामक तरल पदार्थ पाया जाता है।

जीवद्रवय का निर्माण मुख्य रूप से प्रोटीन से हुआ है। प्रोटीन शरीर के लिए अत्यावश्यक है। उसके अभाव में शरीर अपनी कई क्रियाएँ पूरी नहीं कर सकता है। प्रोटीन को बनानेवाले रसायनों में एमिनों अम्ल प्रमुख हैं।

कोशिकाओं के अंदर जीवद्रव्य के अतिरिक्त एक केंद्रक भी होता है। केंद्रक में अत्यंत सूक्ष्म रेशे जैसी वस्तु भी होती है जिसे क्रोमोजोम कहते हैं। क्रोमोजोम का निर्माण प्रोटीन और एमिनो अम्ल से होता है एमिनो अम्ल कई जीवित वस्तुओं को बनानेवाले अत्यंत महत्वपूर्ण अणु हैं। एमिनो अम्ल दो हैं-

  • डिआक्सीराइबोन्यूक्लि अम्ल (डी. एन. ए.)
  • राइबोन्यूक्लि अम्ल (आर. एन. ए.)

जीन का निर्माण डी. एन. ए. द्वारा होता है । कोशिका विभाजन के बाद जब नए जीव के जीवन का सूत्रपात होता है तो यही जीन पैत्रिक एवं शारीरिक गुणों के साथ-साथ माता-पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह अदान-प्रदान माता-पिता के डिंब तथा पिता के शुक्राणु (Sperms) में होता है।

डॉ. खुराना और उनके सहयोगी प्रयोगशाला में ट्रांसफर आर. एन. ए. का संश्लेश्षण करके कृत्रिम जीन तैयार करने में सफल हुए। ट्रांसफर आर. एन. ए.का वास्तविक संश्लेषण करने के पूर्व ७७ न्यूक्लिओटाइडों में से कुछ न्यूक्लिओटाइडो का अलग-अलग छोटे-छोटे अंशों का संश्लेषण किया गया। इसके लिए ३-५ फास्फाडाई ऐस्टर बंध का सफलतापूर्वक निर्माण किया गया। उसके बाद डी. एन. ए. के वलय में ऐसे अनेक अंशों को, जो एक दूसरे के पूरक, पर अंशंत: एक दूसरे पर हुए (ओवरलैपिंग) की क्रियाएं कराई गई। डी. एन. ए. लाइगेज का प्रयोग करके दोनों वलयों के मेल खानेवाले भागों को बैक्टिरियाजन्य एंजाइम की सहायता से जोड़ दिया गया।

उपर्युक्त क्रिया में प्रयुक्त होने वाले एंजाइम में द्विवलयधारी डी. एन. ए. अणु के किसी भी एक वलय के रिक्त स्थान (ब्रेक) की पूर्ति करने की क्षमता होती है और यह द्विवलयधारी डी. एन. ए. के एक वलय की मरम्मत भी कर सकता है। इस प्रकार एक ऐसे डी. एन. ए. अणु के संश्लेषण में सफलता मिली जिसके दो वलयों में से प्रत्येक में ७७ न्यूक्लिओटाइड थे। यह अणु एलानीन ट्रांसफर आर. एन. ए. की प्राकृतिक जीन के समान है। इस प्रकार संश्लेषित अणु (कृत्रिम जीन) के गुणों का परीक्षण करने पर उसमें न्यूक्लिओटाइडो का वही क्रम पाया गया जो यीस्ट की एलानीन ट्रांसफर आर. एन. ए. की प्राकृतिक जीन में मिलता है। साथ-साथ यह प्राकृतिक जीन की ही भांति उपयुक्त एंजाइमों नथा अन्य रसायनों की उपस्थिति में अपनी प्रतिकृति बनाने की क्षमता भी रखता है। इस प्रकार साधारण रासायनिक यौगिकों से जीन का संश्लेषण संभव हो सका।

प्रयोगशाला में कृत्रिम जीन का निर्माण हो जाने के बाद भी अभी यह पता लगाना बाकीं है कि इस जीन को जीवित कोशिका में कैसे प्रविष्ट कराया जाए तथा प्रविष्ट होने के बाद इसकी प्रतिक्रिया अनुकूल होगी या नहीं? इन समस्याओं पर अभी अध्ययन और अनुसंधन हो रहा है, कोई निष्कर्ष नहीं प्राप्त हो सका है ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ