कृत्रिम वीर्यसेचन

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लेख सूचना
कृत्रिम वीर्यसेचन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 91-92
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कपिलदेव व्यास

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कृत्रिम वीर्यसेचन (Artificial Insemination) कृत्रिम प्रजनन अथवा कृत्रिम गर्भाधान का तात्पर्य मादा पशु को स्वाभाविक रूप से गर्भित करने के स्थान पर यंत्र या पिचकारी द्वारा गर्भित करना है। स्वच्छ और सुरक्षित रूप से एकत्र नर पशु के वीर्य को इस प्रक्रिया में जननेंद्रिय अथवा प्रजनन मार्ग में प्रवेश कराकर मादा पशु को गर्भित किया जाता है। इस प्रकार कृत्रिम गर्भाधान से जो बच्चे पैदा होते हैं वे प्राकृतिक ढंग से पैदा हुए बच्चों के ही समान बलवान्‌ और हृष्टपुष्ट होते हैं। छह सौ वर्ष पूर्व १३२२ ई. में अरब के एक सरदार ने अपने शत्रु सरदार के घोड़े का वीर्य निकालकर अपनी एक बहुमूल्य घोड़ी को कृत्रिम रूप से गर्भित करने में सफलता प्राप्त की थी। यूरोप में प्लानिस ने १८७६ ई. में कृत्रिम रूप से एक कुतिया को गर्भित किया था। कृत्रिम वीर्य सेचन पर प्रथम वैज्ञानिक अन्वेषण १७८० ई. में इटली के शरीरक्रिया के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ऐबट स्पलान जानी ने एक कुतिया के ऊपर किया। इसमें उन्हें पूर्ण सफलता मिली।

अश्वों का कृत्रिम प्रजनन पहले पहल १८९० ई. में आरंभ हुआ। एक फ्रांसीसी पशुचिकित्सक ने इसे पशुओं में वंध्यापन दूर करने का एक उत्तम साधन बताया। प्रोफेसर हॉफ़मैन ने कहा कि प्राकृतिक गर्भाधान के साथ ही यदि कृत्रिम वीर्यसेचन का भी प्रयोग किया जाए तो गर्भाधान प्राय: निश्चित होगा।

रूस में आइबनहाफ से १९०९ ई. में कृत्रिम प्रजनन की एक प्रयोगशाला स्थापित की और १९१२ ई. में ३९ घोड़ियों की योनि में कृत्रिम वीर्यसेचन किया। उनमें ३१ घोड़ियों गर्भित हुई। उसी समय स्वभाविक ढंग से २३ अन्य घेड़ियों को भी गर्भित किया गया, किंतु उनमें से केवल १० में ही गर्भधान हुआ। इससे कृत्रिम वीर्यसेचन की महत्ता प्रमाणित हुई और इसका प्रयोग बढ़ने लगा तथा अन्य पशुओं, यथा-भेड़, गाय, और कुत्ते आदि में भी कृत्रिम वीर्यसेचन किया जाने लगा।

अमरीका में १८९६ ई. में १९ कुतियों की योनि में वीर्यसेचन किया गया, जिनमें से १५ गर्भित हुई और बच्चे दिए। इस प्रयोग के फलस्वरूप कृत्रिम वीर्यसेचन को यूरोप और अमरीका ने बड़ी शीघ्रता से अपनाया । इस रीति का उपयोग सारे संसार-इंग्लैंड, इटली, जर्मनी, स्वीडन, डेन्मार्क, आस्ट्रेलिया, कैनेडा, चीन और रूस आदि-में बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। भारत में कृत्रिम वीर्यसेचन १९४२ ई. में भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्था (आइजटनगर) में आरंभ हुआ। तत्पश्चात्‌ इसके अनेक केंद्र बंगाल, बिहार, पंजाब, मद्रास, मध्यप्रदेश, बंबई और उत्तर प्रदेश में खुले। इस समय भारत में सहस्रों कृत्रिम वीर्यसेचन केंद्र हैं और इनकी संख्या प्रति वर्ष बढ़ती जा रहीं है। इस प्रयोग से अब हर साल लाखों पशु गर्भित किए जाते हैं।

इसके लिए वीर्य कई रीति से एकत्रित किया जाता है : (१) कृत्रिम योनि, (२) यांत्रिक प्रहस्तन तथा (३) वुदयुदुद्दीपन आदि द्वारा। वीर्य को एकत्र करने के उपरांत कृत्रिम गर्भाधान तुरंत कर देना सबसे अच्छा होता है। यदि तत्काल कृत्रिम वीर्यसेचन न किया जा सके तो वीर्य को स्वच्छ हतजीवाणु काचकूपी, या परखनली में सुरक्षित बंद करके, ठंडे में, १.३ से २.५ सें. पर रखा जा सकता है। इस ढंग से वीर्य तीन से लेकर पाँच दिनों तक गर्भाधान योग्य रहता है। वीर्य में अनेक प्रकार के विलयनों को मिलाकर मंदित भी किया जाता है; किंतु प्रयोग से सिद्ध हुआ है कि अमंदित वीर्य ही अधिक उपयोगी है।

वीर्य को एक विशेष ढंग से सूखी बर्फ (ऐल्कोहल-हिम-मिश्रण) द्वारा जमाकर रखा जाता है। वीर्य को उपयोग में लाने से पहले उसे पिघला लिया जाता है। वीर्य जमाने और उसके उपयोग पर संसार के विभिन्न भागों में बहुत से अनुसंधान कार्य हो रहे हैं। इस प्रयोग से विशेष युवा साँड़ों का वीर्य एक देश से दूसरे देशों में आसानी से भेजा जा सकता है। और हर समय उपयोग के लिए सरलता से मिल सकता है। इस प्रकार से जमाया हुआ वीर्य सफलतापूर्वक दो वर्षो तक उपयोग में लाया जा सकता है।

कृत्रिम वीर्यसेचन

जिस समय मादा पशु गरम होती है उस समय उसकी पूँछ को उठाकर जैसे चित्र में दिखाया गया है, एकत्रित वीर्य को उसकी योनि में पिचकारी द्वारा डाल दिया जाता है। १. पिचकारी २. सलाई (Catheter) ३. फैलाकर दर्सानेवाला यंत्र (Speculum) ४. श्रोण्यस्थि (Pelvic bone) ५. गर्भाशय ६. मूत्राशय ७. गुदा ८. डिंभाशय ९. चौड़ी स्नायु (Broad ligament) १०. गर्भाशय का प्रलंबन (Horn of the Uterus)।

गर्भाधान काल-प्रकृति के अनुसार हर मादा पशु निश्चित समय पर गरम होती रहती है और यह समय हर पशु के लिए अलग-अलग होता है, जैसे गाय, भैंस और घोड़ी २१ वें दिन गरम होती हैं। गरम रहने का समय भी भिन्न-भिन्न पशुओं में भिन्न होता है। गाय और भैंस में यह केवल १२ से १८ घंटे तक रहता है और घोड़ी में लगभग एक सप्ताह तक। गरम अवस्था समाप्त हो जाने पर, स्वभाविक अथवा कृत्रिम रूप से वीर्य प्रवेश कराने पर गर्भ नहीं ठहरता। प्राकृतिक किसी भी ढंग से गर्भाधान किया जाए, जब पशु में गर्भ ठहर जाता है तब २१वें दिन गरम पड़ना बंद हो जाता है।

देखा यह गया है कि मादा पशुओं में ५०-६० प्रतिशत गर्भ ही एक बार में स्थित होता है।

कृत्रिम वीर्यसेचन दुग्धोत्पादन और पशुसुधार तथा पशुसंपत्ति बढ़ाने के लिए सुगम और आवश्यक है। पशु की उन्नति केवल अच्छे साँड़ पर निर्भर करती है। यदि साँड़ अच्छी जाति का है तो उसके बच्चे भी बलवान्‌ और अधिक दूध देनेवाले होंगे। देखा गया है कि चार पाँच पीढ़ियों से दुग्धोत्पादन में निरंतर सुधार हो रहा है। यदि निम्नकोटि की, दो सेर दुग्ध देनेवाली गाय ऐसे साँड़ से, जिसकी माँ १६ सेर दूध देती थी, गर्भित की जाए तो दूसरी पीढ़ी में १२ सेर, चौथी पीढ़ी में १४ सेर और पाँचवीं पीढ़ी में १६ सेर के लगभग दूध मिलने लगेगा।

अच्छे साँड़ को दूर तक भेजना कठिन होता हैं; परंतु उत्तम तथा उच्च कोटि के साँड़ का वीर्य सरलतापूर्वक देश देशांतरों से, आधुनिक वैज्ञानिक रीति के अनुसार, हर समय उपलब्ध हो सकता है।

प्राकृतिक ढंग से एक साँड़ साल में केवल १०० गौओं को गर्भित कर सकता है; कृत्रिम रीति से उसी साँड़ से १,००० को गर्भित किया जा सकता है। क्योंकि एक बार एकत्र किया हुआ वीर्य कम से कम ८-१० गायों को गर्भित कर सकता है और प्रशीतक (Refrigerator) में रखने से कम से कम तीन चार दिन तक ठीक-ठीक पूर्ण शक्तिशाली रहता है।

बहुत से साँड़ देखने में तो हट्टे कट्टे दिखाई देते हैं, किंतु वीर्य में खराबी होने के कारण उनसे गर्भ नहीं ठहरता। कृत्रिम ढंग में इस बात का भय नहीं है क्योंकि गर्भित करने के पहले और बाद वीर्य की जाँच पूर्णत: कर ली जाती है।

कृत्रिम वीर्यसेचन से गाय, भैंस-घोड़ी आदि की जननेंद्रियों में रोग नहीं होते, जो सामान्यत: रोगी साँड़ों के संसर्ग से हो जाते हैं।

छोटी गाय, भैंस आदि को उच्च कोटि के बड़े साँड़ के बड़े से बड़े साँड़ के वीर्य का उपयोग छोटी से छोटी गौओं आदि के लिए किया जा सकता है।

कृत्रिम वीर्यसेचन द्वारा लूली, लँगड़ी, चोटही और बेकार गाय, भैंस घोड़ी आदि को भी गर्भित करके बच्चे प्राप्त किए जा सकते हैं

टीका टिप्पणी और संदर्भ