गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 106

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गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

इस प्रकार से जो कर्म नियत होता है , वही नियतं कर्म१ है । बुद्धि योग कर्म द्वारा परिपूर्ण होता है, आत्म - मुक्ति को देने वाला बुद्धियोग निष्काम कर्मयोग द्वारा सार्थक होता है। निष्काम कर्म की आवश्यकता का यह सिद्धांत गीता प्रस्थावित करती है, और सांख्यों की ज्ञान - साधना को - मात्र बाह्म विधि का परित्याग करके - योग की साधना के साथ एक करती है। परंतु फिर भी एक मूलगत समस्या का अभीतक समाधान नहीं हुआ। मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी - न - किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है, कि पुरूष यदि कामना से मुक्त हो जाये, तो फिर मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी - न - किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है कि पुरूष यदि कामना से मुक्त हो जाये तो फिर उसके लिये कर्म का प्रेरक कोई कारण नहीं रहता । हो सकता है कि शरीर की रक्षा के लिये फिर भी हमें कुछ- न- कुछ कर्म करना पडे़ । पर यह भी शरीर संबंधी वासना की एक अधीनता हुई और यदि हमें सिद्धि प्राप्त करनी है तो ऐसी वासना से भी मुक्त होना होगा। परंतु यदि हम यह मान लें कि ऐसा नहीं किया जा सकता , तो फिर एक ही रास्ता रह जाता है, कि हम कर्म का कोई ऐसा नियम मान लें जो हमारे भाहर हो और हमारे अंत:करण की किसी चीज से परिचालित न होता हो, अर्थात् जो मुमुक्षु है वह वैदिक नित्यकर्म ,आनुष्ठानिक यज्ञ , दैनन्दिन कर्म, सामाजिक कर्तव्य आदि किया करे और इन सबको केवल इसलिये करे कि यह शास्त्र की आज्ञा है तथा इनमें वह न तो काई वैयक्तिक हेतु रखे और न आंतरिक रस ले, वह जो कुछ करे सर्वथा उदासीन रहकर करे, प्रकृति के वश होकर नहीं, बल्कि शास्त्र का आदेश समझकर।
परंतु यदि कर्मत्व इस प्रकार बाहर की कोइ चीज न होकर अंत:करण की वस्तु हो, यदि मुक्त और ज्ञानी पुरूषों के कर्म भी उनके स्वभाव से ही नियत और निश्चित होते हों, तब तो वह आंतरिक तत्व एकमात्र कामना ही हो सकती है ,फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो - चाहे वह शरीर की लालसा हो या हृदय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय- पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही। [१]नियतं कर्म, का आजकल जो अर्थ लगाया जाता है, में उसे नहीं आ सकता। नियतं कर्म का अर्थ बंधे - बंधाये और वैध कर्म अर्थात् वेदोक्त याज्ञिक आनुष्ठानिक नित्यकर्म और दिनचार्य नहीं है । निश्चय ही पिछले श्लोक के ‘नियम्य’ शब्द का तात्पर्य लेकर ही इस श्लोक में ‘नियत’ शब्द प्रयुक्त हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्म, ब्रह्म अक्षर इन शब्दों का यही वास्तविक अर्थ है, यह बात आठवें अध्याय के उपक्रम से भी स्पष्ट होती है जहां अक्षर (ब्रह्म) स्वभाव , कर्म , क्षरभाव, पूरूष, अधियज्ञ इन विश्व तत्वों का विवरण है। अक्षर अचल अविनाशी आत्मा है; स्वभाव आत्मतत्व जो पुरूष की मूल प्रकृति , स्वयभू - स्वयं होने की प्रकृति है और अक्षर ब्रह्म से ही इसकी प्रवृत्ति है ; कर्म की प्रवृत्ति उसी से होती है, यह कर्म सर्जन - कर्म अर्थात् विसर्ग है जिससे प्रकृति के सब भूत और भूतों के अंतर और बाह्म रूप निर्मित होते हैं; कर्म का फल , इस प्रकार , यह सारा क्षर भाव है जो स्वभाव से ही निकलकर प्रकृति के इन नानात्व को प्राप्त हुआ; पुरूष आत्मा,जीव - भूत प्रकृति में भगवत्तत्व है, अधिदैवत है जिसकी उपस्थिति से ही कर्म को क्रिया अंतः स्थित भगवान् के प्रति यज्ञ - स्परूप होती है; अधियज्ञ ये ही गूढ़ाशय- स्थित भगवान् हैं जो यज्ञ को ग्रहण करते हैं।

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