गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 109

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गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

अतएवं सांख्य- सिद्धांत का कर्म की समाप्ति में पर्यवसान होना न्यायसंगत ही है । दूसरी ओर, योगमार्ग का निरूपण आरंभ होता है उन भगवान् की धारणा के साथ जो ईश्वर हैं, प्रकृति के कर्मो के स्वामी हैं, इसलिये उनके परे हैं, अतएव योगमार्ग का मुक्तिसंगत पर्यवसान कर्म की समाप्ति में नहीं , बल्कि आत्मा की श्रेष्ठता और समस्त कर्म करते हुए भी उसकी मुक्तावस्था में होता है। वेदवाद और वेदांतवाद के बीच जो विरोध है उसमें कर्म वैदिक कर्मो में ही परिसीमित हैं और कहीं - कहीं तो कर्म का अभिप्राय वैदिक यज्ञ और श्रौतकर्मो से ही है , बाकी सब कर्मो को मुक्तिमार्ग के लिये अनुपयुक्त् कहकर छोड़ दिया गया है । मीमांसको के वेदवाद ने इन कर्मो को मुक्ति का साधन मानकर इन पर जोर दिया और वेदांतवाद ने उपनिषदों पर आधार रखते हुए इनको केवल प्राथमिक अवस्था के लिये ही स्वीकार किया है और वह भी यह कहकर कि कर्म अज्ञान की अवस्था के हैं और अतं में इनका अतिक्रमण और त्याग ही करना होगा, क्योंकि मुमुक्षु के लिये कर्म बाधक हैं। वेदवाद यज्ञ के साथ देवताओं की पूजा करता और इन देवताओं को वे शक्तियां मानता है जो हमारी मुक्ति की सहायक हैं। वेदांतवाद के मत से ये सब देवता मानसिक और जड़प्राकतिक जगत् की शक्तियां हैं और हमारी मुक्ति में बाधक हैं (उपनिषदें कहती हैं कि मनुष्य देवताओं के ढोर हैं और देवता यह नहीं चाहते कि मनुष्य ज्ञानवान और मुक्त हो); इसने भगवान् को अक्षर ब्रह्म के रूप में देखा है और इसके अनुसार हम ब्रह्म को यज्ञकार्मो और उपासना - कर्मो के द्वारा नहीं , बल्कि ज्ञान द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
वेदांतवाद के मत से कर्म केवल भोतिक फल और निम्न कोटि का स्वर्ग देने वाले हैं; इसलिये कर्मो का त्याग करना ही होगा। गीता इस विरोध का समाधान इस सिद्धांत के प्रतिपादन से करती है कि ये देवता एक ही देव के , ईश्वर के , सब योगों, उपासनाओं , यज्ञों और तपों के परमेश्वर के ही केवल अनेक रूप हैं, और यदि यह सच है कि देवताओ को दिया हुआ हव्य भौतिक फल और स्वर्ग को देने वाला है , तो यह भी सच है कि ईश्वर- प्रीत्यर्थ किया हुआ यज्ञ इनसे परे ले जाने वाला और महान् मोक्ष देने वाला होता है । क्योंकि परमेश्वर और अक्षर ब्रह्म दो अलग - अलग सत्ताएं नहीं हैं , बल्कि दोनों एक ही हैं और इसलिये जो कोई इनमें से किसी को भी पाने की कोशिश करता है वह उसी एक भागवत सत्ता को पाने की कोशिश करता है। समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त होते हैं, कर्म बाधा नहीं है , बल्कि परम ज्ञान के साधन हैं। इस प्रकार इस विरोध का भी यज्ञ शब्द के अर्थ को व्यापक दृष्टि से सुस्पष्ट करके समाधान किया गया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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