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०७:२७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म

दूसरी बात यह है कि हमारे अंदर जो भागवत प्रकृति है उसे भी तो हमारे अंदर विकसित और व्यक्त होना है , और इस दृष्टि से धर्म अंतः-क्रियाओं का वह विधान है जिसके द्वारा भागवत प्रकृति हमारी सत्ता में विकसित होती है। फिर एक तीसरी दृष्टि से धर्म वह विधान है जिससे हम अपने बहिर्मुखी विचार , कर्म और पारस्परिक संबंधो का नियंत्रण करते हैं ताकि भागवत आदर्श की ओर उन्नत होने में हमारी और मानवजति की अधिक - से - अधिक सहायता हो। धर्म को साधारणतया सनातन और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, और इसका मूल तत्व और आदर्श हो भी ऐसा ही;पर इसके रूप निरंतर बदला करते है, उनका विकास होता रहता है ; कारण मनुष्य अभी उस आदर्श को प्राप्त नहीं किया है या यह कहिये कि उसमें अभी उसकी स्थिति नहीं है ; अभी तो इतना ही है कि मनुष्य उसे प्राप्त करने की अधूरी या पूरी इच्छा कर रहा है , उसके ज्ञान और अभ्यास की ओर आगे बढ़ रहा है। और इस विकास में धर्म वही है जिससे भागवत पवित्रता , विशालता , ज्योति , स्वतंत्रता , शक्ति , बल , आनंद , प्रेम , शुभ , एकता , सौन्दर्य हमें अधिकाधिक प्राप्त हों । इसके विरूद्ध इसकी परछाई और इनकार खड़ा है , अर्थात् वह सब जो इसकी बुद्धि का विरोध करता है, जो इसके विधान के अनुगत नहीं है , वह जो भागवत संपदा के रहस्य को न तो समर्पण कारण है न समर्पण करने की इच्छा रखता है , बल्कि जिन बातों को मनुष्य को अपनी प्रगति के मार्ग में पीछे छोड़ देना चाहिये ,जैसे अशुचिता , संकीर्णता , बंधन , अंधकार , दुर्बलता , नीचता, आसमंजस्य , दुःख , पार्थक्य , वीभत्सत्ता और असंस्कृति आदि एक शब्द में , जो कुछ धर्मो का विकार और प्रत्याख्यान है उस सबका मोरचा बनाकर सामने डट जाता है यही अधर्म है जो धर्म से लड़ता और उसे जीतना चाहता है , जो उसे पीछे और नीचे की ओर खींचना चाहता है , यह वह प्रतिगामी शक्ति है जो अशुभ , अज्ञान और अंधकार का रास्ता साफ करती है। इन दोनों में सतत संग्राम और संर्घष चल रहा है , कभी इस पक्ष की विजय होती है कभी उस पक्ष की , कभी ऊपर की ओर ले जानेवाली शक्तियों की जीत होती है तो कभी नीचे की ओर खींचने वाली शक्तियों की। मानव - जीवन और मानव - आत्मा पर अधिकार जमाने के लिये जो संग्राम होता है उसे वेदों ने देवासुर - संग्राम कहा है (देवता अर्थात् प्रकाश और अखंड अनंतता के पुत्र , असुर अर्थात् अंधकार और भेद की संतान) ; जरथुस्त्र के मत में यही अहुर्मज्द - अहिर्मन - संग्राम है और पीछे के धर्मसंप्रदायों में इसीको मानव जीवन और आत्मा पर अधिकार करने के लिये ईश्वर और उनके फरिश्तों के साथ शैतान या इबलीस और उनके दानवों का संग्राम कहा गया है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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