गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 167

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गीता-प्रबंध
17.दिव्य जन्म और दिव्य कर्म

मानव - समाज को भागवत सत्ता और भागवत चेतना की ओर आकर्षित करता है , तथा भागवत प्रेम का वह विधन देता है जो ज्ञान और कर्म की शक्ति है , चरम सिद्धि है। गीता में जहां प्रेम और भक्ति के द्वारा भगवन् को पाने की साधना बतलायी गयी है वहीं संघ और भागवत भक्तों के द्वारा भगवत्प्रेम और भगवदनुसंधान में सख्य और परस्पर - साहाय्य का मौलिक भाव आ गया है , पर गीता की शिक्षा का असली संघ तो समग्र मानवजाति है सारा जगत् और अपनी - अपनी योग्यता के अनुसार प्रत्येक मुनष्य इसी धर्म की ओर जा रहा है। ‘‘ यह मेरा ही तो मार्ग है जिसपर सब मनुष्य चले आ रहे हैं ,” और वह भवदन्वेषक जो सबके साथ एक हो जाता , सबके सुख - दुःख तथा समस्त जीवन को अपना सुख दुःख और जीवन बना लेता है , वह मुक्त पुरूष जो सब भूतों के साथ एकात्मभाव को प्राप्त हो चुका है , वह समर्ग मानवजाति के जीवन में ही वास करता है , मावजाति के अखिलांतरात्मा के लिये , सर्वभूतांतरात्मा भगवान् के लिये ही जीता है , वह लोक - संग्रह के लिये अर्थात् सबमें अपने - आपको विशिष्ट धर्म में और सार्वभौम धर्म में स्थित रखने के लिये , उन्हें सब अवस्थाओं और सब मार्गो से भगवान् की ओर ले जाने के लिये कर्म करता है । क्योंकि यद्यपि स्थल पर अवतार श्रीकृष्ण ने नाम और स्पष्ट में प्रकट हैं पर वे अपने मानवजन्म के इस एक रूप पर ही जोर नही दे रहे ; बल्कि उन भगवान पुरूषोत्तम की बात कह रहे हैं जिनका यह एक रूप है , समस्त अवतार जिनके मानवजन्म हैं और मनुष्य जिन - जिन देवताओं के नाम और उनकी पूजा करते हैं , वे सब भी उन्हीके रूप हैं। श्रीकृष्ण ने जिस मार्ग का वर्णन किया है उसके बारे में यद्यपि यह घोषित किया गया है कि यह वह मार्ग है जिसपर चलकर मुनष्य सच्चे ज्ञान और सच्ची मुक्ति को प्राप्त कर सकता है , किंतु यह वह मार्ग है जिसमें अन्य सब मार्ग समाये हुए हैं , उनका इसमें बहिष्कार नहीं है। भगवान् अपनी विश्वव्यापकता में समस्त अवतारों , समस्त शिक्षाओं और समस्त धर्मो को लिये हुए है। यह जगत् जिस युद्ध की रंगभूमि है गीता उसके दो पहलूओं पर जोर देती है , एक आंतरिक संघर्ष , दूसरा बाह्म युद्ध। आंतरिक संघर्ष में में शत्रुओं का दल अंदर , व्यक्ति के अपने अंदर है , और इसमें कामना , अज्ञान और अंकार को मारना ही विजय है। पर मानव - समूह के अंदर धर्म और अधर्म की शक्त्यिों के बीच एक बाह्म युद्ध भी चल रहा है । भगवान् , मनुष्य की देवोपम प्रकृति और उसे मानवजीवन में सिद्ध करने का प्रयास करने वाली शक्तियां धर्म की सहायता करती है। उद्दंड अहंकार ही जिनका अग्रभाग है ऐसी आसुरी या राक्षसी प्रकृति , अहंकार के प्रतिनिधि और उसे संतुष्ट करने का प्रसास करने वालों को साथ लेकर अधर्म की सहायता करती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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