"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 177" के अवतरणों में अंतर

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कर्म का सच्चा संनयास ब्रह्म कर्मो का आधान करना ही है।‘‘ जो संग त्याग करके , ब्रह्म में कर्मो का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मो का आधार बना के ) कर्म करता है उसे पाप का लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता।”इसलिये योगी पहले शरीर से , मन से , बुद्धि से अथवा केवल कमेन्द्रियों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकांतिक शांति लाभ करता है , किंतु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम - संभूत कर्म से बंधा रहता है। यह स्थिति , यह पवित्रता , यह शांति जहां एक बार प्राप्त हो जाती है वहां देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्णतः वश में किये हुए , सब कर्मो का ‘ मनसा ’ (मन से , बाहर से नहीं) संन्यास करके ‘‘ नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है , वह न कुछ करता है न कुछ कराता है।” कारण यह आत्मा ही सबके अंदर रहने वाली नैव्यक्तिक आत्मा है , परब्रह्म है , प्रभु है , विभु है जो नैव्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपने को कर्ता समझने वाले मानसिक विचार की और न ही कर्मफल - संयोगरूप कार्यकारणसंबंध की । इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म- संभूति का मूल तत्व। सर्वव्यापी नैव्र्यक्त्कि आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य ।  
 
कर्म का सच्चा संनयास ब्रह्म कर्मो का आधान करना ही है।‘‘ जो संग त्याग करके , ब्रह्म में कर्मो का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मो का आधार बना के ) कर्म करता है उसे पाप का लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता।”इसलिये योगी पहले शरीर से , मन से , बुद्धि से अथवा केवल कमेन्द्रियों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकांतिक शांति लाभ करता है , किंतु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम - संभूत कर्म से बंधा रहता है। यह स्थिति , यह पवित्रता , यह शांति जहां एक बार प्राप्त हो जाती है वहां देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्णतः वश में किये हुए , सब कर्मो का ‘ मनसा ’ (मन से , बाहर से नहीं) संन्यास करके ‘‘ नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है , वह न कुछ करता है न कुछ कराता है।” कारण यह आत्मा ही सबके अंदर रहने वाली नैव्यक्तिक आत्मा है , परब्रह्म है , प्रभु है , विभु है जो नैव्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपने को कर्ता समझने वाले मानसिक विचार की और न ही कर्मफल - संयोगरूप कार्यकारणसंबंध की । इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म- संभूति का मूल तत्व। सर्वव्यापी नैव्र्यक्त्कि आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य ।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२७, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

वह समत्व,नैव्र्यक्तितत्व , शांति मुक्ति और आनंद कर्म के करने न करने जैसी किसी बाहरी चीज पर अवलंबित नहीं है। गीता ने बार - बार त्याग और संन्यास अर्थात् आंतर सन्यास और बाह्म संन्यास के पर जोर दिया है। त्याग के बिना संन्यास का कोई मूल्य नहीं है ; त्याग के बिना संन्यास हो भी नहीं सकता और जहां आंतरिक मुक्ति है वहां बाह्म संन्यास की कोई आवश्यकता भी नही होती । यथार्थ में त्याग ही सच्चा और पूर्ण संन्यास है। ‘‘ उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिये जो न द्वेष करता है न आकांक्षा , इस प्रकार का द्वन्दमुक्त व्यक्ति अनायास ही समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है।”बाह्म संन्यास का कष्टकर मार्ग , अनावश्यक हैं यह सर्वथा सत्य है कि सब कर्मो और फलों को अर्पण करना होता है , उनका त्याग करना होता है , पर यह अर्पण , यह त्याग आंतरिक है, बाह्म नहीं ; यह प्रकृति की जड़ता में नहीं किया जाता , बल्कि यज्ञ के उन अीधीश्वर को किया जाता है , उस नैवर्यक्तिक ब्रह्म की शांति और आनंद में किया जाता है जिसमे से बिना उसकी शांति को भंग किये सारा कर्म प्रवाहित होता है ।
कर्म का सच्चा संनयास ब्रह्म कर्मो का आधान करना ही है।‘‘ जो संग त्याग करके , ब्रह्म में कर्मो का आधान करके (या ब्रह्म को कर्मो का आधार बना के ) कर्म करता है उसे पाप का लेप नहीं लगता जैसे कमल के पत्ते पर पानी नहीं ठहरता।”इसलिये योगी पहले शरीर से , मन से , बुद्धि से अथवा केवल कमेन्द्रियों से ही आसक्ति को छोड़कर आत्मशुद्धि के लिये कर्म करते हैं। कर्मफलों की आसक्ति को छोड़ने से ब्रह्म के साथ होकर अंतरात्मा ब्राह्मी स्थिति की ऐकांतिक शांति लाभ करता है , किंतु जो ब्रह्म के साथ इस प्रकार युक्त नहीं है वह फल में आसक्त और काम - संभूत कर्म से बंधा रहता है। यह स्थिति , यह पवित्रता , यह शांति जहां एक बार प्राप्त हो जाती है वहां देही आत्मा अपनी प्रकृति को पूर्णतः वश में किये हुए , सब कर्मो का ‘ मनसा ’ (मन से , बाहर से नहीं) संन्यास करके ‘‘ नवद्वारा पुरी में बैठा रहता है , वह न कुछ करता है न कुछ कराता है।” कारण यह आत्मा ही सबके अंदर रहने वाली नैव्यक्तिक आत्मा है , परब्रह्म है , प्रभु है , विभु है जो नैव्यक्तिक होने के नाते न तो जगत् के किसी कर्म की सृष्टि करता है न अपने को कर्ता समझने वाले मानसिक विचार की और न ही कर्मफल - संयोगरूप कार्यकारणसंबंध की । इस सबकी सृष्टि मनुष्य में प्रकृति के द्वारा या स्वभाव द्वारा होती है, स्वभाव का अर्थ है आत्म- संभूति का मूल तत्व। सर्वव्यापी नैव्र्यक्त्कि आत्मा न पाप ग्रहण करती है न पुण्य ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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