"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 215" के अवतरणों में अंतर

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और सदा अपनी वर्तमान अवस्था से भूतकाल की ओर नहीं लौटते , इसलिये हमारे मन में वर्तमान और उसके परिणाम ही स्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं; पर इस बात की बहुत ही अस्पष्ट धारणा होती है कि हमारा वर्तमान पूरी तरह हमारे भूतकाल का ही परिणाम है। भूतकाल के बारे में हमें ऐसा लगता है कि वह तो मरकर खतम हो गया । हम ऐसे बोलते और कहते हैं मानो इस विशुद्ध और अछूते क्षण में हम अपने साथ जो चाहें करने के लिये स्वाधीन हैं और ऐसा करते हुए हम अपनी पसंद की आंतरिक स्वाधीनता का पूर्ण उपयोग करते हैं। परंतु इस तरह की कोई पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है , हमारी पसंद के लिये ऐसी कोई स्वाधीनता नहीं है।हमारी इच्छा को सदा ही कतिपय संभावनाओं में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है, क्योंकि प्रकृति के काम करने का यही तरीका है ; यहां तक कि हमारी निश्चेष्टता , किसी प्रकार की इच्छा करने से इंकार करना भी एक चुनाव है, प्रकृति की हममें जो इच्छा - शक्ति है उसका वह एक कर्म ही है; परमाणु में भी एक इच्छा - शक्ति सदा काम करती है। अंतर केवल यही है कि कौंन कहांतक प्रकृति की इस इच्छा - शक्ति के साथ अपने - आपको जोड़ता है। जब हम अपने - आपको उसके साथ जोड़ लेते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि यह इच्छा हमारी है और यह कहने लगते हैं कि यह एक स्वाधीनता इच्छा है, हम ही कर्ता हैं। यह चाहे भूल हो या न हो, भ्रम हो या न हो,  
 
और सदा अपनी वर्तमान अवस्था से भूतकाल की ओर नहीं लौटते , इसलिये हमारे मन में वर्तमान और उसके परिणाम ही स्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं; पर इस बात की बहुत ही अस्पष्ट धारणा होती है कि हमारा वर्तमान पूरी तरह हमारे भूतकाल का ही परिणाम है। भूतकाल के बारे में हमें ऐसा लगता है कि वह तो मरकर खतम हो गया । हम ऐसे बोलते और कहते हैं मानो इस विशुद्ध और अछूते क्षण में हम अपने साथ जो चाहें करने के लिये स्वाधीन हैं और ऐसा करते हुए हम अपनी पसंद की आंतरिक स्वाधीनता का पूर्ण उपयोग करते हैं। परंतु इस तरह की कोई पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है , हमारी पसंद के लिये ऐसी कोई स्वाधीनता नहीं है।हमारी इच्छा को सदा ही कतिपय संभावनाओं में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है, क्योंकि प्रकृति के काम करने का यही तरीका है ; यहां तक कि हमारी निश्चेष्टता , किसी प्रकार की इच्छा करने से इंकार करना भी एक चुनाव है, प्रकृति की हममें जो इच्छा - शक्ति है उसका वह एक कर्म ही है; परमाणु में भी एक इच्छा - शक्ति सदा काम करती है। अंतर केवल यही है कि कौंन कहांतक प्रकृति की इस इच्छा - शक्ति के साथ अपने - आपको जोड़ता है। जब हम अपने - आपको उसके साथ जोड़ लेते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि यह इच्छा हमारी है और यह कहने लगते हैं कि यह एक स्वाधीनता इच्छा है, हम ही कर्ता हैं। यह चाहे भूल हो या न हो, भ्रम हो या न हो,  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:३१, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

तो, प्रकृति का नियंतृत्व यहांतक फैला हुआ है। सारांश यह कि जिस अहंकार से हमारे कर्म होते हैं वह अहंकार स्वयं ही प्रकृति के कर्म का एक कारण है और इसलिये प्रकृति के नियंत्रण से मुक्त नहीं हो सकता ; अहंकार की इच्छा प्रकृति द्वारा निर्धारित इच्छा है, यह उस प्रकृति का एक अंग है जो अपने पूर्व कर्मो और परिवर्तनों के द्वारा हमारे अंदर गठित हुई और इस प्रकार गठित प्रकृति में जो इच्छा है वह हमारे वर्तमान कर्म का निर्धारण करती है। कुछ लोगो का कहना है कि हमारे कर्म का मूलारंभ तो सर्वथा हमारी स्वाधीन पसंद से होता, पीछे जो कुछ होता है वह भले ही उस कर्म के द्वारा निश्चित होता हो, हममें कर्मारंभ करने की जो शक्ति है तथा इस प्रकार किये गये कर्म का हमारे भविष्य पर जो असर होता है वही हमें अपने कर्मो के लिये जिम्मेदार ठहराता है। परंतु प्रकृति के कर्म का वह मूलारंभ कौंन सा है जिसका नियंता कोई पूर्व कर्म न हो , हमारी प्रकृति की वह कौंन - सी वर्तमान अवस्था है जो समस्त रूप में और व्योरेवार हमारी पूर्व पकृति के कर्म का परिणाम न हो? किसी स्वाधीन कर्मारंभ को हम इसलिये मान लेते हैं, क्योंकि हम प्रतिक्षण अपनी वर्तमान अवस्था से भविष्य की ओर देखकर अपना जीवन बिताते हैं।
और सदा अपनी वर्तमान अवस्था से भूतकाल की ओर नहीं लौटते , इसलिये हमारे मन में वर्तमान और उसके परिणाम ही स्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं; पर इस बात की बहुत ही अस्पष्ट धारणा होती है कि हमारा वर्तमान पूरी तरह हमारे भूतकाल का ही परिणाम है। भूतकाल के बारे में हमें ऐसा लगता है कि वह तो मरकर खतम हो गया । हम ऐसे बोलते और कहते हैं मानो इस विशुद्ध और अछूते क्षण में हम अपने साथ जो चाहें करने के लिये स्वाधीन हैं और ऐसा करते हुए हम अपनी पसंद की आंतरिक स्वाधीनता का पूर्ण उपयोग करते हैं। परंतु इस तरह की कोई पूर्ण स्वतंत्रता नहीं है , हमारी पसंद के लिये ऐसी कोई स्वाधीनता नहीं है।हमारी इच्छा को सदा ही कतिपय संभावनाओं में से कुछ का चुनाव करना पड़ता है, क्योंकि प्रकृति के काम करने का यही तरीका है ; यहां तक कि हमारी निश्चेष्टता , किसी प्रकार की इच्छा करने से इंकार करना भी एक चुनाव है, प्रकृति की हममें जो इच्छा - शक्ति है उसका वह एक कर्म ही है; परमाणु में भी एक इच्छा - शक्ति सदा काम करती है। अंतर केवल यही है कि कौंन कहांतक प्रकृति की इस इच्छा - शक्ति के साथ अपने - आपको जोड़ता है। जब हम अपने - आपको उसके साथ जोड़ लेते हैं तब यह सोचने लगते हैं कि यह इच्छा हमारी है और यह कहने लगते हैं कि यह एक स्वाधीनता इच्छा है, हम ही कर्ता हैं। यह चाहे भूल हो या न हो, भ्रम हो या न हो,


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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