गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 222

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३४, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-222 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 222 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
22.त्रैगुणातीत्य

अक्षरभाव में सबके अध्यक्ष (प्रभु) और सर्वव्यापक निर्गुण ब्रह्म (विभु) हैं, और क्षरभाव में सर्वव्यापी भगतसंकल्प और सर्वत्र विद्यमान सक्रिय ईश्वर हैं। वे अपने व्यक्तित्व का खेल लेखते हुए भी अपने निर्गुण और स्वरूप में नित्यमुक्त हैं; वे न तो केवल निर्गुण हैं, न केवल सगुण ही, बल्कि सगुण और निर्गुण उस एक ही सत्ता के दो पहलू हैं, उपनिषद् ने इनको निर्गुण गुणी कहा है। किसी घटना के घटने से पहले ही वे उनका संकल्प कर चुकते हैं- तभी वे अभीतक जीते - जागते धार्तराष्ट्रों के संबंध में कहते हैं कि (मैं उन्हें पहले ही मार चुका हूं) - और प्रकृति का कार्य - संपादन उन्हींके संकल्प का परिणाम मात्र होता है; फिर भी चूंकि उनके व्यक्ति - स्वरूप् के पीछे उनका नैव्र्यक्तिक स्वरूप रहता है इसलिये वे अपने कर्मो से नहीं बंधते ।परंतु मनुष्य , कर्म और भूतभाव के साथ अज्ञानवश तदात्म हो जाने के कारण अहंकार विमूढ़ हो जाता है मानों वे कर्मादि उसे निःसृत आत्मा की एक शक्ति ही नहीं , समग्र आत्मा है।
वह सोचता है कि सब कुछ वह और दूसरे लोग ही कर रहे हैं; वह यह नहीं देख पाता कि सारा कर्म प्रकृति कर रही है और अज्ञान तथा आसक्ति के कारण प्रकृति के कर्मो को वह गलत समझता और विकृत करता है। गुणों ने उसे अपना गुलाम बना रखा है कभी तो तमोगुण उसे जड़ता में धर दबाता है, कभी रजोगुण की जोरदार आंधी उसे उड़ा ले जाती है और कभी सत्वगुण का आंशिक प्रकाश उसे बांध रखता है और वह यह नहीं देख पाता कि वह अपने प्राकृत मन से अलग है और गुणों के द्वारा केवल प्रकृत मन में फेर - फार होता रहता है। इसीलिये सुख और दुःख , हर्ष और शोक, काम और क्रोध, असक्ति ओर जुगुप्सा उसे अपने वश में कर लेते हैं, उसे जरा भी स्वाधीनता नहीं रहती ।मुक्त होने के लिये उसे प्रकृति के कर्म से पीछे हटकर अक्षर पुरूष की स्थिति में आ जाना होगा; तब वह त्रिगुणातीत होगा। अपने - आपको अक्षर, अविकार्य, अपरिवर्तनीय पुरूष जानकर वह अपने - आपको अक्षर, निर्गुण आत्मा जानेगा और प्रकृति के कर्म को स्थिर शांति के साथ देखेगा तथा उसे निष्पक्षभाव से सहारा देगा, पर खुद स्थिर, उदासीन, अलिप्त, अचल, विशुद्ध तथा सब प्राणियों के साथ उनकी आत्मा में एकीभूत रहेगा, प्रकृति और उसके कर्म के साथ नहीं। यह आत्मा यद्यपि अपनी उपस्थिति से प्रकृति को कर्म करने का अधिकार देती है,


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध