गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 232

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:३९, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-232 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 232 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
23.निर्वाण और संसार में कर्म

इसीलिये , मालूम होता है कि, गीता में ज्ञान और कर्म की अपनी साधारण पद्धति के साथ - साथ राजयोग की विशिष्ट ध्यान - प्रकिृया भी बतायी गयी है जो एक शक्तिशाली अभ्यास है, मन और उसकी सब वृत्तियों के पूर्ण निरोध का एक बलवान् साधन है। इस प्रक्रिया में बतलाया गया है कि , योग आत्मा से युक्त ररहने का ससत अभ्यास करे, ताकि अभ्यास करते - करते यह अवस्था उसकी साधारण चेतना बन जाये। उसे काम- क्रोधादि सब विकारों को मन से निकालकर सबसे अलग किसी एकांत स्थन में जाकर बैठ जाना होगा और अपनी समग्र सत्ता और चेतना पर आत्मवशित्व लाना होगा- ‘‘ वह श्तुति देश में अपना स्थिर आसन लगावें , आसन न बहुत ऊंचा हो न बहुत नीचा, वह कुशा का हो, उसपर मृग - चर्म और मृग - चर्म के ऊपर वस्त्र बिछा हो और ऐसे आसन पर बैठकर मन को एकाग्र तथा मन और इन्द्रियों की सब वृत्तियों को वश में कर आत्मविशुद्धि के लिये योगाभ्यास करे।”[१]वह ऐसा आसन जमावे कि उसका शरीर अचल और सीधा तना रहे जैसा कि राजयोग के अभ्यास में बताया गया है;।
उसकी दृष्टि एकाग्र हो जाये और भ्रूमध्य में स्थित रहे, ‘‘ दिशओं की ओर दृष्टि न जाये।”[२] मन को स्थिर और निर्भय रखे और ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन करे; इस प्रकार संयत समग्र वित्तवृत्ति को भगवान् में ऐसे लगावे कि चैतन्य की निम्नतर क्रिया उच्चतर शांति में निमज्जित हो जाये। क्योंकि इस साधना का लक्ष्य निर्वाण की नीरव निश्चल शांति को प्राप्त होना है। ‘‘ इस प्रकार नियत मानस होकर सतत योग में लगा हुआ योगी निर्वाण की उस परम शांति को प्राप्त होता है जिसकी नींव मेरे अंदर है।”[३]निर्वाण की यह परम शांति तब प्राप्त होती है जब चित्त पूर्णतया संयत और कामनामुक्त होकर आत्मा में स्थित रहता है, जब वह निर्वात स्थान में स्थित दीपशिखा के समान अचल होकर अपने चंचल कर्म करना बंद कर देता है , अपनी बहिर्मुख वृत्तियों से अंदर खिंचा हुआ रहता है और जब मन के निश्चल - नीरव हो जाने के कारण अंतर में आत्मा का दर्शन होने लगता है , मन में आत्मा का विकृत भान नहीं, बल्कि आत्मा में ही आत्मा का साक्षात्कार होता है, मन के द्वारा अयथार्थ या आशिंक रूप में नहीं, अहंकार में से प्रतिभात होने वाले रूप में नहीं, बल्कि स्वप्रकाश रूप में। तब जीव तृप्त होता और अपने वास्तविक परम सुख को अनुभव करता है , वह अशांत सुख नहीं जो मन और इन्द्रियों को प्राप्त है, बल्कि वह आंतरिक और प्रशांत आनद जिसमें मन का कोई विक्षोभ नहीं, जिसमें स्थित होने पर पुरूष अपनी सत्ता के आध्यात्मिक सत्य से कभी च्युत नहीं होता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 6.11-2
  2. 8.13
  3. 6.15

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध