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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

अर्जुन के सामने उस काल के उच्चतम आदर्श के अनुसार ऐसा ही एक व्यावहारिक समाधान पेश किया गया , पर उसकी चित्त - वृत्ति उसे स्वीकार करने के अनुकूल नहीं थी और वास्तव में भगवान् भी नहीं चाहते थे कि वह उसे स्वीकार कर ले। अतः गीता इस प्रश्न का समाधान बिलकुल दूसरे ही दृष्टिकोण से करती है और इसका बिलकुल दूसरा ही हल निकालती है। गीता का समाधान यही है कि अपनी प्राकृत सत्ता और साधारण मनोभाव से उपर, अपने बौद्धिक और नैतिक भ्रमजालों के उपर उस चिद्भाव में उठो जहां का जीवन - विधान कुछ और ही है और इसलिये वहां कर्म का विचार भी एक और ही दृष्टि से किया जाता है; वहां कर्म के चालक वैयक्तिक कामना और भावावेग नहीं होते; द्वन्द्व दूर हो जाते हैं; कर्म हमारे अपने नहीं रह जाते ; और इसलिये हम वैयक्तिक पाप और पुण्य को अतिक्रम कर जाते हैं। वहां विराट् नैव्र्यक्तिक भागवत सत्ता हमारे द्वारा जगत् में अपने हेतु को क्रियान्वित करती है; हम स्वयं एक दिव्य नवजन्म के द्वारा उसी सत् के सत् , उसी चित् के चित्, उसी आनंद के आनंद हो जाते हैं और तब हम अपनी इस निम्न प्रकृति में नहीं रहते , हमारे लिये कोई अपना कर्म नहीं रहता, कोई अपना वैयक्तिक हेतु नहीं रह जाता और यदि हम कर्म करते ही हैं- और यही तो एकमात्र वास्तविक समस्या और कठिनाई रह जाती है - तो वह केवल भागवत कर्म होता है।
जिसमें बाह्म प्रकृति कर्म का कारण या प्रेरक नहीं, केवल एक अबाध शांत उपकरण मात्र होती है, क्योंकि प्रेरक - शक्ति तो हमारे कर्मो के अधीश्वर की इच्छा में हमारे उपर रहती है। गीता ने इसीको सच्चे समाधान के रूप में सामने रखा है, क्योंकि यह हमें सत्ता के वास्तविक सत्य में ले जाता है और अपनी सत्ता के वास्तविक सत्य के अनुसार जीना ही स्पष्टतया जीवन के प्रश्नों का संपूर्णतः सर्वोत्कृष्ट और एकमात्र सत्य - समाधन है। हमारा मनोमय और प्राणमय व्यक्तित्व हमारे प्राकृत जीवन का सत्य है, पर यह सत्य अज्ञानगत सत्य है और जो कुछ उससे संबद्ध है वह उसी कोटि का सत्य है जो अज्ञानगत कर्मो के लिये व्यवहारतः मान्य है, पर जब हम अपनी सत्ता के यथार्थ सत्य में लौट आते हैं तब यह सत्य मान्य नहीं रहता। परंतु हमें इस बात का पूर्ण निश्चय कैसे हो कि यही सत्य है? पूर्ण निश्चय तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अपने मन के सामान्य अनुभवों से ही संतुष्ट हैं; कारण हमारे सामान्य मानस अनुभव सर्वथा निम्न प्रकृति के हैं जो अज्ञान से भरी पड़ी है। हम उस महत् सत्य को उसमें निवास करके अर्थात् योग के द्वारा मन - बुद्धि को पार करके आध्यात्मिक अनुभव में पहुंचने पर ही जान सकते हैं। कारण, आध्यात्मिक अनुभूति के बाह्म में तब तक निवास करना जब तक कि हम मानसभाव से छूटकर आत्मभाव में प्रतिष्ठित न हो जायें, तब तक अपनी वर्तमान प्रकृति के दोषों से मुक्त होकर अपनी यथार्थ और भागवत सत्ता में पूर्ण रूप से रहने न लग जायें, वह अंतिम भाव है जिसे हम योग कहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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