गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 293

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
4.राजगुह्य

क्योंकि यह एक ऐसा सत्य है जो जीवन में लाना पड़ता है , जो जीव के बढ़ते हुए आत्मप्रकाश में जीकर जानना पड़ता है , मन - बुद्धि के अंधकार में तर्क से टटोलकर नहीं जाना जाता। उसीके रूप में विकसित होना होता है , वही हो जाना होता है - उसकी सत्यता परखने का एकमात्र यही मार्ग है। निम्नगतिक जीवभाव को पार करके ही कोई वास्तविक भागवदीय दिव्यत्मा बनकर वास्तविक आत्मसत्ता को सत्य आचरण में ला सकता है। जितने भी सत्याभास इस एक सत्य के विरोध में खडे़ किये जा सकते हैं वे सब निम्न प्रकृति के रूप हैं। निम्न प्रकृति के इस अशुभ से मुक्त होना उस परतर ज्ञान को ग्रहण करने से ही बन सकता है जिसमें यह सत्याभास , यह अशुभ अपने स्वरूप का अंततः मिथ्या होना जान लेता है , यह स्पष्ट दीख पड़ता है कि यह हमारे अंधकार की सृष्टि थी।
पर इस प्रकार दिव्य परा आत्मप्रकृति के मुक्त भाव की ओर विकसित होने के लिये यह भगवान् गुप्त रूप से निवास करते हैं और भगवान् को हम वरण कर लें। जिस कारण से यह योग संभावित और सुखसाध्य होता है वह कारण यही है कि इसका साधन करने में हम अपनी संपूर्ण प्रकृति का व्यापार उन्हीं अंतस्थ भगवान् के हाथों में सौंप देते हैं। भगवान् हमारी सत्ता अपनी सत्ता में मिलाकर और अपने ज्ञान और शक्ति को, उसमें भरकर सहज , अचूक रीति से हमारे अंदर क्रम से हमारा दिव्य जन्म कराते हैं ; हमारी तमसाच्छन्न अज्ञानमयी प्रकृति को अपने हाथों में ले लेते और अपने प्रकाश और व्यापक भाव में रूपांतरिकत कर देते हैं । हम जो कुछ पूर्ण विश्वास के साथ और प्रकाश और अहंकार - रहित होकर मान लेते और उनके द्वारा प्रेरित होकर होना चाहते हैं उसे अंतस्थ भगवान् निश्चय ही सिद्ध कर देते हैं परंतु पहले अहंभाव मन - बुद्धि और प्राण को अर्थात् इस समय हम जो कुछ हैं या भासित होते हैं उसे इस दिव्यता - लाभ के लिये हमारे अंदर जो अंतस्तम गुप्त भगवत्स्वरूप हैं, उसकी शरण लेनी होगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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