गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 61

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

न स्थापित हो जाये , जब तक वह मुक्त अवस्था न प्राप्त हो जाये जहां ये कोई दुख न दे सकें , जब तक कि संसार की सब पार्थिव घटनाएं , चाहे वे सुखद हो या दु:खद , ज्ञानयुक्त स्थिरता और समता से वैसे ही ग्रहण न की जा सकें जैसे हमारे अंदर रहने वाली शांत सनातन गूढ आत्मा उन्हें ग्रहण करती है । शोक और भय से विचलित होना , जैसे अर्जुन हुआ है , और अपने गंतव्य पथ से भ्रष्ट हो जाना , तथा दैन्य और दु:खभार से दबकर शरीरिक मृत्यु की अनिवार्य और अतिसामान्य घटना का सामना करने से पीछे हटना अनार्यजुष्ट है, आर्य अपनी धीर शक्ति के साथ जिस अमर जीवन की ओर ऊपर चढता रहता है उसका यह रास्ता नहीं है । मुत्यु यथार्थ में कोई चीज नहीं है , क्योंकि मरता तो शरीर है और शरीर मनुष्य नहीं है जो वास्तव में है , उसका अस्त्त्वि कभी नष्ट नहीं हो सकता; हां , वह जिन रूपों को लेकर प्रकट होता है उनको बदल सकता है। वैसा ही , जो नहीं है वह हो भी नहीं सकता । आत्मा है और उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता । यह सत् और असत् (है और नहीं) का जो अंतर है , आत्मभाव और भूतभाव का अंतर दिखाने वाली यह जो तुला है जिससे मुनष्य का मन इस जगत् और जीवन को देखा करता है , इसकी परिणति उस आत्मानुभव में हुआ करती है जहां यह बोध होता है कि एक आत्मा ही अविनाशी पुरूष है जिसके द्वारा यह सारा विश्व प्रसारित है ।
शरीर शांत है , उसका अंत हुआ करता है पर जो इस शरीर को धारण करता है और इससे काम लेता है वह अनंत , परिच्छिन्न ,सनातन और अविनाशी है । वह जीर्ण -शीर्ण शरीरों को छोड़कर नये शरीर धारण करता है, जैसे मनुष्य अपने फटे - पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्र धारण करता है ; इसमें शोक करने , सहमने और पीछे हटने की कौंन- सी बात है ? वह न जनमता है न मरता है , न वह ऐसी वस्तु है जो होकर लुप्त हो जाये और कभी न हो । वह अज , अनादि , अव्यय आत्मा है ; शरीर के मारे जाने से वह नहीं मारा जाता । अजर - अमर आत्मा को मार ही कौंन सकता है । शस्त्र उसे छेद नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल भिगों नहीं सकता, हवा सुखा नहीं सकती । वह स्थाणु है , अचल है , सर्वव्यापी है , सनानम है - सदा से है ओर सदा रहेगा - शरीर की तरह वह व्यक्ति नहीं है, लेकिन समस्त अभिव्यक्ति से महत्तर है , उसका विचार द्वारा विश्लेषण नहीं हो सकता , क्योंकि वह समूचे मन से बडा है , प्राण शक्ति और उसके करणोपकरण एवं उनके विषयों की तरह उसमें विकार और परिवर्तन नहीं होते , बल्कि वह मन , प्राण और शरीर के परिवर्तनों के परे है , फिर भी वह सद्वस्तु है जिसे ये सब मूर्तिमान् करने में लगे हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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