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गोरखनाथ का आविर्भावकाल-मध्यकालीन भारतीय धर्मसाधन के क्षेत्र में गोरखनाथ बहुत ही प्रभावशाली महापुरुष हुए हैं। ये नाथ मच्छंदरनाथ (मच्छंदपाद, मत्स्येंद्रनाथ) के शिष्य थे। सारे भारतवर्ष में इनके अद्भुत योगबल और सिद्धियों की अगणित कहानियाँ प्रचलित हैं। इनका समय भी बहुत ऊहापोह का विषय बना हुआ है। इनके द्वारा रचित दर्जनों पुस्तकों की चर्चा मिलती है जिनमें कुछ संस्कृत में हैं और कुछ देशी भाषाओं में। सभी अनुश्रुतियाँ इस बात में एकमत हैं कि नाथ संप्रदाय के आदिप्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं। उनके दो शिष्य हुए: (1) जालंधरनाथ और (2) मत्स्येंद्रनाथ या मच्छंदरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे कृष्णपाद<ref>कान्हपाद, कान्हपा, कानफा</ref>और मत्स्येंद्रनाथ के गोरख (गोरख) नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध गोगीश्वर नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इनमें जालंधर नाथ और कृष्णपाद का संबंध कापालिक साधना से था। परवर्ती नाथ संप्रदाय में मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन चार में से किसी एक का समय यदि ठीक ठीक निश्चित हो सके तो चारों का समय निश्चित किया जा सकेगा, क्योंकि ये चारों ही समसामयिक माने जाते हैं। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है- 1. मत्स्येंद्र और जालंधर समसामयिक गुरुभाई थे और इन दोनों के प्रधान शिष्य क्रमश: गोरखनाथ और कृष्णपाद थे, 2. मत्स्येंद्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योगमार्ग के प्रवर्तक थे परंतु बाद में किसी ऐसी साधना में जा फँसे थे जहाँ स्त्रियों का अबाध संसर्ग आवश्यक माना जाता था (कौल ज्ञान के निर्माण से जान पड़ता है कि वह वामाचारी कौल साधना था जिसे कौल मत कहते थे। गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था)। 3. शुरू से ही मत्स्येंद्र और गोरख की साधनापद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधनापद्धति से कुछ भिन्न थी।
 
गोरखनाथ का आविर्भावकाल-मध्यकालीन भारतीय धर्मसाधन के क्षेत्र में गोरखनाथ बहुत ही प्रभावशाली महापुरुष हुए हैं। ये नाथ मच्छंदरनाथ (मच्छंदपाद, मत्स्येंद्रनाथ) के शिष्य थे। सारे भारतवर्ष में इनके अद्भुत योगबल और सिद्धियों की अगणित कहानियाँ प्रचलित हैं। इनका समय भी बहुत ऊहापोह का विषय बना हुआ है। इनके द्वारा रचित दर्जनों पुस्तकों की चर्चा मिलती है जिनमें कुछ संस्कृत में हैं और कुछ देशी भाषाओं में। सभी अनुश्रुतियाँ इस बात में एकमत हैं कि नाथ संप्रदाय के आदिप्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं। उनके दो शिष्य हुए: (1) जालंधरनाथ और (2) मत्स्येंद्रनाथ या मच्छंदरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे कृष्णपाद<ref>कान्हपाद, कान्हपा, कानफा</ref>और मत्स्येंद्रनाथ के गोरख (गोरख) नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध गोगीश्वर नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इनमें जालंधर नाथ और कृष्णपाद का संबंध कापालिक साधना से था। परवर्ती नाथ संप्रदाय में मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन चार में से किसी एक का समय यदि ठीक ठीक निश्चित हो सके तो चारों का समय निश्चित किया जा सकेगा, क्योंकि ये चारों ही समसामयिक माने जाते हैं। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है- 1. मत्स्येंद्र और जालंधर समसामयिक गुरुभाई थे और इन दोनों के प्रधान शिष्य क्रमश: गोरखनाथ और कृष्णपाद थे, 2. मत्स्येंद्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योगमार्ग के प्रवर्तक थे परंतु बाद में किसी ऐसी साधना में जा फँसे थे जहाँ स्त्रियों का अबाध संसर्ग आवश्यक माना जाता था (कौल ज्ञान के निर्माण से जान पड़ता है कि वह वामाचारी कौल साधना था जिसे कौल मत कहते थे। गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था)। 3. शुरू से ही मत्स्येंद्र और गोरख की साधनापद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधनापद्धति से कुछ भिन्न थी।
  
इनके समय के बारे में ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- 1. मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित कहे जानेवाले ग्रंथ कौलज्ञाननिर्णय की प्रति का लिपिकाल डा. प्रबोधचंद्र बागची के अनुसार 11वीं शती से पहले होना चाहिए। 2. सुप्रसिद्ध काश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक में मच्छंदविद्र को बड़े आदर से याद किया है। अभिनवगुप्त को निश्चित रूप से सन्‌ ईसवी की 1०वीं शती के अंत में और 11वीं शती के पहले विद्यमान होना चाहिए। इस प्रकार मत्स्येंद्रनाथ इस समय से काफी पहले हुए होंगे। 3. मत्येंद्रनाथ का एक नाम मीननाथ है। वज्रयानी सिद्धों में एक मीनपा हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के पिता बताए गए हैं। वज्रयानी राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे।<ref>कार्डियर, पृ. 24७</ref>देवपाल का राज्यकाल ८०९ ई. से ८4९ ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्र ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। 4. तिब्बती परंपरा के अनुसार कान्ह (कृष्णपाद) राज देवपाल के राज्यकाल में ही आविर्भूत हुए थे। इस प्रकार मत्स्येंद्र आदि सिद्धों का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और 1०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध समझना चाहिए। कुछ ऐसी ही दंतकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का प्रयत्न करती हैं, जैसे कबीर और नानक से इनका संवाद, परंतु ये बहुत बाद की बातें हैं जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बंगाल की दंतकथाएँ और धर्मपूजा संप्रदाय की प्रसिद्धियां, महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर आदि की परंपराएँ इस काल को 12०० ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक सबूत है कि ई. 13वीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था इसलिये इसके बहुत पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। उनकी अनुश्रुतियों का संबंध गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिये कभी कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित किया जाता है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही माना जाता ठीक जान पड़ता है।
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इनके समय के बारे में ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- 1. मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित कहे जानेवाले ग्रंथ कौलज्ञाननिर्णय की प्रति का लिपिकाल डा. प्रबोधचंद्र बागची के अनुसार 11वीं शती से पहले होना चाहिए। 2. सुप्रसिद्ध काश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक में मच्छंदविद्र को बड़े आदर से याद किया है। अभिनवगुप्त को निश्चित रूप से सन्‌ ईसवी की 1०वीं शती के अंत में और 11वीं शती के पहले विद्यमान होना चाहिए। इस प्रकार मत्स्येंद्रनाथ इस समय से काफी पहले हुए होंगे। 3. मत्येंद्रनाथ का एक नाम मीननाथ है। वज्रयानी सिद्धों में एक मीनपा हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के पिता बताए गए हैं। वज्रयानी राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे।<ref>कार्डियर, पृ. 247</ref>देवपाल का राज्यकाल ८०९ ई. से ८4९ ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्र ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। 4. तिब्बती परंपरा के अनुसार कान्ह (कृष्णपाद) राज देवपाल के राज्यकाल में ही आविर्भूत हुए थे। इस प्रकार मत्स्येंद्र आदि सिद्धों का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और 1०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध समझना चाहिए। कुछ ऐसी ही दंतकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का प्रयत्न करती हैं, जैसे कबीर और नानक से इनका संवाद, परंतु ये बहुत बाद की बातें हैं जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बंगाल की दंतकथाएँ और धर्मपूजा संप्रदाय की प्रसिद्धियां, महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर आदि की परंपराएँ इस काल को 12०० ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक सबूत है कि ई. 13वीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था इसलिये इसके बहुत पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। उनकी अनुश्रुतियों का संबंध गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिये कभी कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित किया जाता है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही माना जाता ठीक जान पड़ता है।
 
==गोरखनाथ की पुस्तकें==  
 
==गोरखनाथ की पुस्तकें==  
गोरखनाथ के नाम से अनेक पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और बहुत सी आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी कही जाती हैं: (1) अमनस्क, (2) अवरोधशासनम्‌, (3) अवधूतगीता, (4) गोरक्षकाव्य, (5) गौरक्षकौमुदी, (6) गोरक्षगीता () गोरक्षचिकित्सा, (८) गोरक्षपश्चय (९) गोरक्षपद्धति (1०) गोरक्षशतक, (11) गोरक्षशास्त्र, (12) गोरक्षसंहिता, (13) चतुरशीत्यासन (14) ज्ञानप्रकाश शतक (15) ज्ञानशतक (16) ज्ञानामृत योग (1७) नाड़ीज्ञान प्रदीपिका (1८) महार्थमंजरी (1९) योगचिंतासंहिता (2०) योगमार्तंड (21) योगबीज (22) योगशास्त्र, (23) गोरखसिद्धासन पद्धति (24) विवेकमार्तड (25) श्रीनाथसूत्र (26) सिद्धसिद्धांतपद्धति (2७) हठयोग (2८) हठसंहिता। इनमें महार्थमंजरी के लेखक गोरक्षा अथवा महेश्वराचार्य की लिखी और प्राकृत में हैं, बाकी संस्कृत में हैं। कई एकदूसरी से मिलती हैं। कई पुस्तकों के गोरक्षलिखित होने से संदेह है, हिंदी में सब मिलाकर 4० छोटी बड़ी रचनाएँ गोरखनाथ की रचित कही जाती हैं जो संदेह से परे नहीं है। पुस्तकें ये हैं (1) सबदी (2) पद (3) शिष्यादर्सन (4) प्राणसंकली (5) नरवै बोध (6) आतम बोध (पहला), () अभैमात्रा भोग (८) पंदह तिथि (९) सप्तवाह (1०) मछींद्र गोरखबोध (11) रोमावली (12) ग्यानतिलक (13) ग्यान चौंतीसा (14) पंचमात्रा (15) गोरखगणेश गोष्ठी (16) गोरख दत्त गोष्ठी ज्ञानदीय बोध (1७) महादेव गोरखपुष्ट (1८) सिस्ट पुराण (1९) दयाबोध् (2०) जाती र्भौरावली (छंद गोरख) (21) नवग्रह (22) नवरात्र (23) अष्ट पारछया (24) रहरास (25) ग्यानमाल (26) आत्माबोध (दूसरा) (2७) ्व्रात, (2८) निरंजनपुराण (2९) गोरखबचन (3०) इंद्रीदेवता (31) मूलगर्भावती (32) खांणीवाणी (33) गोरखसत (34) अष्टमुदा (35) चौबीस सिधि (36) षड़क्षरी (3७) पंचअग्नि (3८) अष्टचक्र (3९) अवलिसिलूक (4०) काफिरबोध।
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गोरखनाथ के नाम से अनेक पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और बहुत सी आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी कही जाती हैं: (1) अमनस्क, (2) अवरोधशासनम्‌, (3) अवधूतगीता, (4) गोरक्षकाव्य, (5) गौरक्षकौमुदी, (6) गोरक्षगीता (7) गोरक्षचिकित्सा, (८) गोरक्षपश्चय (९) गोरक्षपद्धति (1०) गोरक्षशतक, (11) गोरक्षशास्त्र, (12) गोरक्षसंहिता, (13) चतुरशीत्यासन (14) ज्ञानप्रकाश शतक (15) ज्ञानशतक (16) ज्ञानामृत योग (17) नाड़ीज्ञान प्रदीपिका (1८) महार्थमंजरी (1९) योगचिंतासंहिता (2०) योगमार्तंड (21) योगबीज (22) योगशास्त्र, (23) गोरखसिद्धासन पद्धति (24) विवेकमार्तड (25) श्रीनाथसूत्र (26) सिद्धसिद्धांतपद्धति (27) हठयोग (2८) हठसंहिता। इनमें महार्थमंजरी के लेखक गोरक्षा अथवा महेश्वराचार्य की लिखी और प्राकृत में हैं, बाकी संस्कृत में हैं। कई एकदूसरी से मिलती हैं। कई पुस्तकों के गोरक्षलिखित होने से संदेह है, हिंदी में सब मिलाकर 4० छोटी बड़ी रचनाएँ गोरखनाथ की रचित कही जाती हैं जो संदेह से परे नहीं है। पुस्तकें ये हैं (1) सबदी (2) पद (3) शिष्यादर्सन (4) प्राणसंकली (5) नरवै बोध (6) आतम बोध (पहला), (7) अभैमात्रा भोग (८) पंदह तिथि (९) सप्तवाह (1०) मछींद्र गोरखबोध (11) रोमावली (12) ग्यानतिलक (13) ग्यान चौंतीसा (14) पंचमात्रा (15) गोरखगणेश गोष्ठी (16) गोरख दत्त गोष्ठी ज्ञानदीय बोध (17) महादेव गोरखपुष्ट (1८) सिस्ट पुराण (1९) दयाबोध् (2०) जाती र्भौरावली (छंद गोरख) (21) नवग्रह (22) नवरात्र (23) अष्ट पारछया (24) रहरास (25) ग्यानमाल (26) आत्माबोध (दूसरा) (27) ्व्रात, (2८) निरंजनपुराण (2९) गोरखबचन (3०) इंद्रीदेवता (31) मूलगर्भावती (32) खांणीवाणी (33) गोरखसत (34) अष्टमुदा (35) चौबीस सिधि (36) षड़क्षरी (37) पंचअग्नि (3८) अष्टचक्र (3९) अवलिसिलूक (4०) काफिरबोध।
  
 
इन ग्रंथों में से अधिकांश गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। ग्रंथरूप में स्वयं गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, यह बात संदिग्ध है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, जैसे बँगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में, इसी प्रकार की रचनाएँ प्राप्त होती हैं।
 
इन ग्रंथों में से अधिकांश गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। ग्रंथरूप में स्वयं गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, यह बात संदिग्ध है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, जैसे बँगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में, इसी प्रकार की रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

०८:३१, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
गोरखनाथ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 27
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक हजारीप्रसाद द्विवेदी

गोरखनाथ का आविर्भावकाल-मध्यकालीन भारतीय धर्मसाधन के क्षेत्र में गोरखनाथ बहुत ही प्रभावशाली महापुरुष हुए हैं। ये नाथ मच्छंदरनाथ (मच्छंदपाद, मत्स्येंद्रनाथ) के शिष्य थे। सारे भारतवर्ष में इनके अद्भुत योगबल और सिद्धियों की अगणित कहानियाँ प्रचलित हैं। इनका समय भी बहुत ऊहापोह का विषय बना हुआ है। इनके द्वारा रचित दर्जनों पुस्तकों की चर्चा मिलती है जिनमें कुछ संस्कृत में हैं और कुछ देशी भाषाओं में। सभी अनुश्रुतियाँ इस बात में एकमत हैं कि नाथ संप्रदाय के आदिप्रवर्तक चार महायोगी हुए हैं। आदिनाथ स्वयं शिव ही हैं। उनके दो शिष्य हुए: (1) जालंधरनाथ और (2) मत्स्येंद्रनाथ या मच्छंदरनाथ। जालंधरनाथ के शिष्य थे कृष्णपाद[१]और मत्स्येंद्रनाथ के गोरख (गोरख) नाथ। इस प्रकार ये चार सिद्ध गोगीश्वर नाथ संप्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इनमें जालंधर नाथ और कृष्णपाद का संबंध कापालिक साधना से था। परवर्ती नाथ संप्रदाय में मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ का ही अधिक उल्लेख पाया जाता है। इन चार में से किसी एक का समय यदि ठीक ठीक निश्चित हो सके तो चारों का समय निश्चित किया जा सकेगा, क्योंकि ये चारों ही समसामयिक माने जाते हैं। इन सिद्धों के बारे में सारे देश में जो अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ प्रचलित हैं, उनसे आसानी से इन निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है- 1. मत्स्येंद्र और जालंधर समसामयिक गुरुभाई थे और इन दोनों के प्रधान शिष्य क्रमश: गोरखनाथ और कृष्णपाद थे, 2. मत्स्येंद्रनाथ किसी विशेष प्रकार के योगमार्ग के प्रवर्तक थे परंतु बाद में किसी ऐसी साधना में जा फँसे थे जहाँ स्त्रियों का अबाध संसर्ग आवश्यक माना जाता था (कौल ज्ञान के निर्माण से जान पड़ता है कि वह वामाचारी कौल साधना था जिसे कौल मत कहते थे। गोरखनाथ ने अपने गुरु का वहाँ से उद्धार किया था)। 3. शुरू से ही मत्स्येंद्र और गोरख की साधनापद्धति जालंधर और कृष्णपाद की साधनापद्धति से कुछ भिन्न थी।

इनके समय के बारे में ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- 1. मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित कहे जानेवाले ग्रंथ कौलज्ञाननिर्णय की प्रति का लिपिकाल डा. प्रबोधचंद्र बागची के अनुसार 11वीं शती से पहले होना चाहिए। 2. सुप्रसिद्ध काश्मीरी आचार्य अभिनवगुप्त ने तंत्रालोक में मच्छंदविद्र को बड़े आदर से याद किया है। अभिनवगुप्त को निश्चित रूप से सन्‌ ईसवी की 1०वीं शती के अंत में और 11वीं शती के पहले विद्यमान होना चाहिए। इस प्रकार मत्स्येंद्रनाथ इस समय से काफी पहले हुए होंगे। 3. मत्येंद्रनाथ का एक नाम मीननाथ है। वज्रयानी सिद्धों में एक मीनपा हैं जो मत्स्येंद्रनाथ के पिता बताए गए हैं। वज्रयानी राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे।[२]देवपाल का राज्यकाल ८०९ ई. से ८4९ ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्र ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विद्यमान थे। 4. तिब्बती परंपरा के अनुसार कान्ह (कृष्णपाद) राज देवपाल के राज्यकाल में ही आविर्भूत हुए थे। इस प्रकार मत्स्येंद्र आदि सिद्धों का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और 1०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध समझना चाहिए। कुछ ऐसी ही दंतकथाएँ हैं जो गोरखनाथ का समय बहुत बाद में रखने का प्रयत्न करती हैं, जैसे कबीर और नानक से इनका संवाद, परंतु ये बहुत बाद की बातें हैं जब मान लिया गया था कि गोरखनाथ चिरंजीवी हैं। गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बंगाल की दंतकथाएँ और धर्मपूजा संप्रदाय की प्रसिद्धियां, महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर आदि की परंपराएँ इस काल को 12०० ई. के पूर्व ले जाती हैं। इस बात का ऐतिहासिक सबूत है कि ई. 13वीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था इसलिये इसके बहुत पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए। बहुत से पूर्ववर्ती मत गोरक्षनाथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। उनकी अनुश्रुतियों का संबंध गोरखनाथ से जोड़ दिया गया है। इसलिये कभी कभी गोरक्षनाथ का समय और भी पहले निश्चित किया जाता है। सब बातों पर विचार करने से गोरखनाथ का समय ईसवी सन्‌ की नवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही माना जाता ठीक जान पड़ता है।

गोरखनाथ की पुस्तकें

गोरखनाथ के नाम से अनेक पुस्तकें संस्कृत में मिलती हैं और बहुत सी आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी चलती हैं। निम्नलिखित पुस्तकें गोरखनाथ की लिखी कही जाती हैं: (1) अमनस्क, (2) अवरोधशासनम्‌, (3) अवधूतगीता, (4) गोरक्षकाव्य, (5) गौरक्षकौमुदी, (6) गोरक्षगीता (7) गोरक्षचिकित्सा, (८) गोरक्षपश्चय (९) गोरक्षपद्धति (1०) गोरक्षशतक, (11) गोरक्षशास्त्र, (12) गोरक्षसंहिता, (13) चतुरशीत्यासन (14) ज्ञानप्रकाश शतक (15) ज्ञानशतक (16) ज्ञानामृत योग (17) नाड़ीज्ञान प्रदीपिका (1८) महार्थमंजरी (1९) योगचिंतासंहिता (2०) योगमार्तंड (21) योगबीज (22) योगशास्त्र, (23) गोरखसिद्धासन पद्धति (24) विवेकमार्तड (25) श्रीनाथसूत्र (26) सिद्धसिद्धांतपद्धति (27) हठयोग (2८) हठसंहिता। इनमें महार्थमंजरी के लेखक गोरक्षा अथवा महेश्वराचार्य की लिखी और प्राकृत में हैं, बाकी संस्कृत में हैं। कई एकदूसरी से मिलती हैं। कई पुस्तकों के गोरक्षलिखित होने से संदेह है, हिंदी में सब मिलाकर 4० छोटी बड़ी रचनाएँ गोरखनाथ की रचित कही जाती हैं जो संदेह से परे नहीं है। पुस्तकें ये हैं (1) सबदी (2) पद (3) शिष्यादर्सन (4) प्राणसंकली (5) नरवै बोध (6) आतम बोध (पहला), (7) अभैमात्रा भोग (८) पंदह तिथि (९) सप्तवाह (1०) मछींद्र गोरखबोध (11) रोमावली (12) ग्यानतिलक (13) ग्यान चौंतीसा (14) पंचमात्रा (15) गोरखगणेश गोष्ठी (16) गोरख दत्त गोष्ठी ज्ञानदीय बोध (17) महादेव गोरखपुष्ट (1८) सिस्ट पुराण (1९) दयाबोध् (2०) जाती र्भौरावली (छंद गोरख) (21) नवग्रह (22) नवरात्र (23) अष्ट पारछया (24) रहरास (25) ग्यानमाल (26) आत्माबोध (दूसरा) (27) ्व्रात, (2८) निरंजनपुराण (2९) गोरखबचन (3०) इंद्रीदेवता (31) मूलगर्भावती (32) खांणीवाणी (33) गोरखसत (34) अष्टमुदा (35) चौबीस सिधि (36) षड़क्षरी (37) पंचअग्नि (3८) अष्टचक्र (3९) अवलिसिलूक (4०) काफिरबोध।

इन ग्रंथों में से अधिकांश गोरखनाथी मत के संग्रहमात्र हैं। ग्रंथरूप में स्वयं गोरखनाथ ने इनकी रचना की होगी, यह बात संदिग्ध है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी, जैसे बँगला, मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि में, इसी प्रकार की रचनाएँ प्राप्त होती हैं।

गोरक्ष संप्रदाय- गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित योगी संप्रदाय मुख्य रूप से 12 शाखाओं में विभक्त है। इसीलिय इसे 'बारह' कहते हैं। इस मत के अनुयायी कान फड़वाकर मुद्रा धारण करते हैं इसलिये इन्हें कनफड़ा या कनफटा योगी भी कहते हैं। 12 पंथों में छ: तो शिव द्वारा प्रवर्तित माने जाते हैं और छ: गोरखनाथ द्वारा। (1) चांदनाथ कपिलानी, जिससे गंगानाथ, आयनाथ, कपिलानी, नामनाथ, पारसनाथ आदि का संबंध है। (2) हेठनाथ, जिससे लक्ष्मणनाथ या बालनाथ, दरियापंथ, नाटेसरी, जाकर पीर आदि का संबंध बताया जाता है, (3) आई पंथ के चोलीनाथ जिससे (4) वैराग पंथ, जिससे भाईनाथ, प्रेमनाथ, रतननाथ, आदि का संबंध है और कायानाथ या कायमुद्दीन द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय भी संबंधित है, मस्तनाथ, आई पंथ छोटी दरगाह, बड़ी दरगाह आदि का संबंध है (5) जयपुर के पावनाथ जिससे पापंथ, कानिया, बाभारग आदि का संबंध है और (6) धजनाथ जो हनुमान जी के द्वारा प्रवर्तित कहा जाता है, ये छ: गोरखनाथ के संप्रदाय कहे जाते हैं। इनका विश्लेषण करने से पता चलता है कि इनमें अनेक पुराने मत, जैसे कपिल का योगमार्ग, लकुलीश मत, कापालिक मत, वाममार्ग आदि सम्मिलित हो गए हैं।

गोरखनाथ का मत

गोरक्षमत के योग को पातंजल वर्णित योग से भिन्न बताने के लिये ऊँचा योग कहते हैं। इसमें केवल छह अंगों का ही महत्व है। प्रथम दो अर्थात्‌ यम और नियम इसमें गौण हैं। इसका साधना पक्ष या प्रक्रिया अंग हठयोग कहा जाता है। शरीर में प्राण और अपान, सूर्य और चंद्र नामक जो बहिर्मुखी और अंतर्मुखी शक्तियाँ हैं उनको प्राणायाम आसन, बंध आदि के द्वारा सामरस्य में लाने से सहज समधि सिद्ध होती है। जो कुछ पिंड में है वही ब्रह्मांड में भी है। इसलिये हठयोग की साधना पिंड या शरीर को ही केंद्र बनाकर विश्वब्रह्मांड में क्रियाशील परा शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास है। गोरक्षनाथ के नाम पर चलनेवाले ग्रंथों में विशेष रूप से इस साधन प्रक्रिया का ही विस्तार है। कुछ ग्रंथ दर्शन या तत्ववाद के समझाने के उद्देश्य से लिखे गए हैं। अमरोधशासन, सिद्धसिद्धांत पद्धति, महार्थमंजरी (त्रिकदर्शन) आदि ग्रंथ इसी श्रेणी में आते हैं। अमरोध शासन में[३]गोरखनाथ ने वेदांतियां, मीमांसकों, कौलों, वज्रयानियों और शक्ति तांत्रिकों के मोक्ष संबंधी विचारों को 'मूर्खता' कहा है। असली मोक्ष वे सहज समाधि को मानते हैं। सहजसमाधि उस अवस्था को बताया जाता है जिसमें मन स्वयं ही मन को देखने लगता है। दूसरे शब्दों में स्वसंवेद ज्ञान की अवस्था ही सहजसमाधि है। यही चरम है।

आधुनिक देशी भाषाओं के पुराने रूपों में जो पुस्तकें मिलती हैं उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। इनमें अधिकतर योगांगों, उनकी प्रक्रियाओं, वैराग्य, ब्रह्मचर्य, सदाचार आदि के उपदेश हैं और माया की भर्त्सना है। तर्क वितर्क को गर्हित कहा गया है, भवसागर में पच पचकर मरनेवाले जीवों पर तरस खाई गई है और पाखंडियों को फटकार बताई गई है। सदाचार और ब्रह्मचर्य पर गोरखनाथ ने बहुत बल दिया है। शंकराचार्य के बाद भारतीय लोकमत को इतना प्रभावित करनेवाला आचार्य शक्ति काल के पूर्व दूसरा नहीं हुआ। निर्गुणपंथी भक्ति शाखा पर भी गोरखनाथ का भारी प्रभाव है। निस्संदेह गोरखनाथ बहुत तेजस्वी और प्रभावशाली व्यक्तित्व लेकर आए थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कान्हपाद, कान्हपा, कानफा
  2. कार्डियर, पृ. 247
  3. पृ. ८-९