चमड़ा उद्योग

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लेख सूचना
चमड़ा उद्योग
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 159-162
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्याम किशोर वासिष्ठ

बड़े या छोटे पशुओं की साफ की हुई खाल को रासायनिक प्रक्रिया द्वारा 'कमाकर' चमड़ा बनाया जाता है। बिना कमाई खाल सड़ने लगती है। ६०° से. ताप के जल में खाल लगभग पूरी घुल जाती है, किंतु कमाया हुआ चमड़ा सड़ता नहीं। आर्द्र अवस्था में भी उसका जीवाणु-पूयन नहीं होता और न वह जल में विलेय होती है। कई चमड़े तो पानी के क्वथानांक पर भी यथावत्‌ बने रहते हैं। कमाने से चमड़े में कुछ मौलिक गुण, जैसे मजबूती, तनाव सामर्थ्य, प्रत्यास्थता, अपघर्षंणरोध इत्यादि भी आ जाते हैं।

संसार का लगभग ९० प्रतिशत चमड़ा बड़े पशुओं, जैसे गोजातीय पशुओं, एवं भेड़ तथा बकरों की खालों से बनता है, किंतु घोड़ा, सूअर, कंगारू, हिरन, सरीसृप, समुद्री घोड़ा, और जलव्य्घ्रा की खालें भी न्यूनाधिक रूप में काम में आती हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर, खालें मांस उद्योग की उपजात हैं। यदि वे प्रधान उत्पाद होतीं, ता चमड़ा अत्यधिक महँगा पड़ता। उपजात होने के कारण उनमें कुछ दोष भी प्राय: पाए जाते हैं, जैसे पशुसंवर्धक लोग खाल के सर्वोत्तम भाग, पुठ्‌ठों को दाग लगाकर बिगाड़ डालते हैं। उनकी असावधानी से कीड़े मकोड़े खाल में छेद कर जाते हैं। उसको छीलने या पकाने सुखाने के समय कीई और दोषों का आना संभव है।

यों तो खालें प्रत्येक देश में मिलती ही हैं, किंतु संसार के खालउत्पादन-आँकड़ों को देखने से ज्ञात होता है कि सन्‌ १९५५ में खाल-उत्पादक देशों में भारत का बड़ी खालें पैदा करने में द्वितीय, तथा बकरी और मेमनों की खालें पैदा करने में सर्वप्रथम, स्थान था। यदि थोड़ा और प्रयास किया जाय तो चमड़ा उद्योग का भविष्य यहाँ बहुत उज्वल हो सकता है।

व्यापार में, चमड़ा कमाना आरंभ करने के पहले, खालों का बड़े परिमाण में संचयन अनिवार्य है। इसमें ध्यान इस बात का रखना पड़ता है कि कमाई घर पहुँचने से पहले खालें सड़ने न लग जायँ। इसके लिये खालों का अस्थायी परिरक्षण किया जाता है। इसका सामान्य उपाय है, लवण द्वारा उपचार। सर्वोत्तम बड़ी या बछड़ों की खालों पर, छलने की तुरंत बाद, सूखा नमकचूर्ण छिड़ककर उन्हें पैक कर देते हैं, या अति संतृप्त नमक के विलयन में उन्हें रख देते हैं। यदि अधिक दिनों तक रखना पड़े तो लवणित खालों को छाया में फैला या लटका कर सुखाना। इसमें खालों को क्षय या कीटक्षति से बचाने के लिये आर्सेनिक विलयन का उपचार वांछनीय है।

खाल में दो प्रकार की सुस्पष्ट परतें होती हैं, जिनकी उत्पत्ति तथा विन्यास भिन्न होता है : १. एपिथीलिअल कोशिकाओं की बनी पतली ऊपरी तह, एपिडर्मिस (इसके छोटे छोटे अवनयनों में बालगर्त ओर बाल स्थित रहते हैं); २. इसके नीचेवाली सापेक्षत: अत्यधिक मोटी तह, डर्मिस या कोरियम। चमड़ा वास्तव में इसी तह का बनता है। चमड़ा बनाने में बाल और एपिडर्मिस को पूर्णत: अलग करके कोरियम के नीचे लगे वसा ऊतक और मांस को छीलकर कोरियम का शोधन करते हैं, जिसमें वह पूयनरोधी हो जाय। सूखे कोरियम में कम से कम ८५ प्रतिश्त कोलेजन नामक तंतु-प्रोटीन होता है। इसी का वास्तविक चमड़ा बनता है। बाकी १५ प्रतिशत भाग में जलसंयोजक ऊतक, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज, बैक्टीरिया, एंजाइम इत्यादि सम्मिलित रहते हैं। कोलेजन अपनी प्राकृतिक अनुपचारित दशा में जलशोषण के पश्चात्‌ जिलेटिन में परिणत हो जाता है। अत: चर्मशोधन द्वारा इसे जलप्रतिरोधी बनाते हैं। कोरियम श्वेत तंतु-निर्मित रचना है, जिसे बिना क्षति पहुँचाए अलग करने में ही शोधनपूर्व प्रारंभिक कार्यों की सफलता है। भिन्न-भिन्न खालों के कोरियम में संयोजक ऊतक तथा वसीय पदार्थों की मात्रा न्यूनाधिक हाती है। चर्मशोधक की दृष्टि से खालों में संयोजक ऊतक का होना महत्वपूर्ण है। इसके रेशे कोलेजन से भीतर के भाग इलास्टिन नामक पीले रंग के प्रोटीन के बने होते हैं। चमड़े के तनाव तथा प्रत्यास्थता, दोनों पर इलास्टिन की मात्रा का प्रभाव पड़ता है। खाल में वसाकोशिकाओं का भी अपना पृथक्‌ महत्व है। उदाहणार्थ, किसी खाल में यदि इनके बड़े बड़े समूह कोलेजन तंतुओं में विकीर्ण हैं, तो निश्चय ही उसका चमड़ा कोमल और स्पंजी बनेगा; कारण यह है कि चर्म-शोधन-पूर्व के प्रारंभिक कार्यों में वसाकोशिकाओं के हट जाने से छोटे छोटे असंख्य रिक्त स्थान बनेंगे, जिनसे चमड़े में लचक आ जायगी।

चर्मशोधन से पूर्व की तैयारियाँ

धोना और फुलाना

खालों के गट्ठरों को खोलकर, प्रत्येक खाल का दोष जानने के लिये पहले निरीक्षण करते हैं। दोषयुक्त भाग और ऐसे छोर, जिनसे चमड़ा नहीं बनता, जैसे कान और खुर, को काटकर जिलेटिन या सरेस निर्माता के पास भेज देते हैं। शेष खालों को परिभ्रामी पीपों में ठंढे जल से कई बार धोते हैं। पीपों में खूँटियों का ऐसा प्रबंध रहता है कि खालें निरंतर मुड़ती और अलग खिंचती रहें। विलेय प्रोटीनों के जीवाणुपूयन के नियंत्रणार्थ जल में कुछ प्रतिरोधक भी डालते हैं। धेने के पश्चात्‌ खालों को बड़े बड़े कुंडों (vats) में, सापेक्षत: ठंढे अक्षारीय जल में डुबोकर, फुलाते हैं। इन क्रियाओं का उद्देश्य परिरक्षक नमक, रक्त तथा लसीकाजनित प्रोटीन, गोबर या अन्य बाह्म पदार्थों को पूर्णत: निकालना और खालों को फुलाकर नम्य, कोमल तथा पूर्व आकार और आयम का बनाना है। कभी कभी भिगोना और धोना दुहराना भी पड़ता है, किंतु खालों का अत्यधिक उत्फुल्लन रोकने के लिये विवेकपूर्ण जलशोषण और जीवणुपूयन का दृढ़ नियंत्रण अनिवार्य है।

मांस छुड़ाना

फूली हुई खालों में नीचे की ओर लगे अनावश्यक वसा या मांस को हथचाकू, या ब्लेडयुक्त परिभ्रामी बेलनों, द्वारा रगड़कर निकाल देते हैं।

चूना उपचार

इसके लिये खलों को बड़े कुंडों में जल और बुझे हुए चूने की पर्याप्त मात्रा के साथ विलोड़ित करते हैं। चूना-जल सदा संतृप्त रहना चाहिए। चूना-उपचार का अनुकूलतम ताप १८° सें. बताया जाता है। चूना-जल की क्रिया से एपिडर्मिस की परत घुल जाती है तथा बालों की जड़ें किरेटिन नामक प्रोटीन के सुलभ क्षारविघटन के फलस्वरूप ढीली हो जाती हैं। चूने की क्रिया में तीव्रता लाने के लिये चूने का लगभग दशमांश सोडियम सल्फाइड भी कुंडों में घोलते हैं। इसके जलविश्लेषण से सोडियम हाइड्रोसल्फाइड बनता है, जो केशशिथिलीकरण की गति को तीव्र कर देता है। इसके उचित प्रयोग से बाल विलेय या विघटित होकर आसानी से निकल जाते है, किंतु चमड़ा उद्योग को इस बहुमूल्य उपजात (बाल) की हानि उठानी पड़ती है। बालों से नमदे और कंबल बनते हैं। भेड़ की खाल का मुख्य उत्पादन ऊन है। अत: प्रत्येक खाल के नीचे की ओर चूने और सोडियम सल्फाइड का एक गाढ़ा लेप लगाकर, लेप को अंदर करके खालों को लपेटकर कुछ घंटों तक छोड़ देते हैं। लेप का ऊन से न्यूनतम स्पर्श होना चाहिए। फलस्वरूप हाइड्रोसल्फाइड खाल में विसरित होकर ऊन पकड़नेवाली कोशिकाओं को घोल लेता है और ऊन सुगमतापूर्वक एकत्र कर ली जाती है।

अलोमीकरण

अब खाल को बालों की ओर परिभ्रामी, कुंद तथा सर्पिल फलों द्वारा रगड़कर ढीले हुए बालों को हटाते हैं। इसके पश्चात्‌ बचे हुए रोएँ छुड़ाने के लिये खाल को एक मेहराबदार, ढालू पटरे पर बिछाकर दुहत्थे, कुंद चाकुओं द्वारा ऊपर से नीचे की ओर बलपूर्वक छीलते हैं। अलोमीकरण की यह प्राचीन, मंदगामी तथा श्रमसाध्य स्कडिंग विधि इस पूरक रूप में आज भी प्रचलित है।

चूना धावन

खाल को १५° से २३° सें. तक ताप के जल से धोकर, अम्लीकृत जल में विलोड़ित करते हैं। सभी मोटे चमड़ों का, जिनमें तले, पट्टे और मशीनी चमड़े सम्मिलित हैं, पृष्ठीय चूना-निराकरण आवश्यक है, अन्यथा शोधक द्रवों के संपर्क से उनका विवर्णन हो जाता है। किंतु हल्के चमड़ों के लिये पूर्ण अनुप्रस्थ काट में एकसम निराकरण होना चाहिए, जिसके लिय निम्नलिख्ति क्रियाएँ आवश्यक हैं:

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इस क्रिया में खालों को कुंडों या पीपों में अम्लों, लवणों और पूर्वनिर्धारित मानकित एंजाइमों से उपचारित करते हैं। इससे एपिडर्मिस के अवक्रमण उत्पादों, का निष्कासन, प्रत्यास्थी तंतुओं का जलविश्लेषण, पीएच का नियंत्रण और खाल उत्फुल्लन का ्ह्रास होता है।

अम्लमार्जन

यह विशेषत: क्रोम चर्मपाक के पूर्व किया जाता है। इसमें खालों को तनु सलफ्यूरिक अम्ल और नमक के साथ पीपों में विलोड़ित कर अम्लता की साम्यावस्था लाई जाती है। इस अंतिम सफाई से चमड़े में कोमलता बढ़ती है।

चर्मपाक

यही वह रासायनिक परिवर्तन है जिसके फलस्वरूप चमड़ा बनता है। प्राचीनतम काल में इसके लिये केवल वनस्पति वर्ग के पदार्थ्ज्ञ प्रयुक्त होते थे, किंतु आधुनिक औद्योगिकी ने चर्मपाक के लिये अनेक रासायनिक द्रव्यों का अविष्कार किया है। आजकल अधिकतम चमड़ा क्रोम विधि से बनता है, किंतु कुछ चमड़े अभी तक वानस्पतिक चर्मपाक द्वारा तैयार किए जाते हैं :

वानस्पतिक चर्मपाक

प्राचीन काल में चर्मपाक के लिये एकमात्र वंजुलछाल प्रयुक्त होती थी, किंतु अब अन्य अनेक वानस्पतिक पदार्थों का उपयोग होता है। इन्हें पर्किन महोदय में मुख्यतया तीन वर्गों में बाँटा है :

इलागी टैनिस

टैनिनांश सहित इस वर्ग के पदार्थ, हैं : वंजुलछाल, १०-१२ प्रतिशत; हर्रा ३३-३६ प्रतिशत; वैलोनिया ३०-४० प्रतिशत; डिवी-डिवी ३९-४२ प्रतिशत; हर्रा का निष्कर्ष ५०-५५ प्रतिशत और अलगारोविल्ला ६०-८० प्रतिशत।

गैलो टैनिन

इनमें अग्रलिखित टैनिनांश हैं : सुमाख २६-३० प्रतिशत; पांगर काष्ठ, २६-३० प्रतिशत और माजूफल ५०-६० प्रतिशत।

कैटिकोल टैनिन

लार्च में ९-१० प्रतिशत; हेमलाक में ८-२० प्रतिशत; मैलेट की छाल में २०-२५ प्रतिशत; वंजुलकाष्ठसत्व में २६-२८ प्रतिशत; कानाएग्रे में २५-३० प्रतिशत; गैंबियर में ३५-४५ प्रतिशत; मिमोसा में ३८-४९ प्रतिशत; मिमोसा निष्कर्ष में ६२-६४ प्रतिशत और क्युब्रेको निष्कर्ष में ६२-६८ प्रतिशत टैनिन रहता है।

इलागी टैनिनों का एक गुण यह है कि इनके उपचार से चमड़े पर इलैगिक अम्ल का एक रवेदार, पृष्ठीय निक्षेप बन जाता है, किंतु अन्य दोनों वर्गों के टैनिनों से नहीं बनता। इस निक्षेप से तैयार चमड़े में दृढ़ता आती है, किंतु बाद में यदि चमड़े को रँगना हो, तो यह बाधक होता है।

संश्लिष्ट टैनिन

इनमें एक जाति की टैनिन सिंटैंस कहलाती है। यह फिनोलसल्फोनिक अम्ल और फामैंल्डोहाइड को मिश्रित करने से बनती है। चर्मपाक के लिये यह एकांतिक रूप से प्रयुक्त नहीं हाती, किंतु क्रोम अथवा वनस्पतिपाचित चमड़े के पुनर्पाक में अत्यधिक उपयोगी है। चमड़े में द्रुत प्रवेश और वर्णोन्नति करने के अतिरिक्त अनेक वांछित बचत इन सहायक पाकों द्वारा हो सकती हैं। दूसरी संश्लिष्ट टैनिनें रेजिन वर्ग की हैं। विभिन्न वांछित गुणवाले चमड़ों के निर्माण में इनका भविष्य आशाजनक है।

वानस्पतिक चर्मपाक

तले, पट्टे, मशीनों या गद्दी के मोटे चमड़ों के लिये ग्रेटब्रिटेन में भारी खालों की चूना उपचार के पश्चात्‌ ही काट छाँट कर लेते हैं। इन कामों के लिये मुख्य तथा सर्वोत्तम भाग पुट्ठों का होता है, जिसकी पाकविधि भिन्न है। बाकी लगभग आधे क्षेत्रफल में पेट और कंधों के भाग होते हैं। इनसे हल्के कामों का चमड़ा बनाते हैं, जैसे जूते का उपरला, अस्तर, जिल्दसाजी के चमड़े, मनोहारी वस्तुएँ इत्यादि। इन हल्के भागों और छोटी खालों का चर्मपाक बिना काटे छाँटे ही कर लेते हैं। फिर उनकी मोटाई यदि आवश्यकता से अधिक हो, तो चिराई मशीन द्वारा वांछित मोटाईवाली समतल पर्तें बना लेते हैं।

वानस्पतिक चर्मपाक के संपूर्ण प्रक्रम में, आपेक्षिक घनत्व और अम्लता अंकित करनेवाले उपकरणों द्वारा चर्मपाक द्रवों की सांद्रता यथार्थतापूर्वक नियंत्रित रखते हैं।

मोटे चमड़ों का पाक

इसका परिचानल तीन क्रमों में करते हैं :

  1. खालों को धीरे धीरे बढ़ती सांद्रतावाले तनु पाकद्रवों में लटकाकर और हिला डुलाकर रँगा जाता है। यह क्रिया निलंबक या दोलक कुंडों में होती है। इनमें पूर्वप्रयुक्त तनु द्रव का प्रयोग करते हैं। खाल प्रतिदिन एक कुंड से निकालकर दूसरे, क्रमश: अधिक सांद्र द्रववाले, कुंड में लटकाते हैं तथा एक कुंड के अंदर भी प्रति दिन एक दो बार उलट पलट देते हैं। कुंडों की संख्या और उनमें लगनेवाला समय चमड़ा कमाने के विभिन्न कारखानों में न्यूनाधिक होता है।
  2. सांद्रतम दोलक कुंडों के पश्चात्‌ खाल को हस्तन या प्लावक कुडों में लाते हैं। यहाँ खाल को प्रतिदिन एक बगल, ऊपर खींचकर अपवाहित होने देते हैं, फिर उसे क्रमश: बढ़ती सांद्रतावाले अगले कुंड में क्षैतिज स्थिति में रखते हैं। इसी विधि से हस्तन कुंडों में चर्मशोधन प्राय: पूर्ण हो जाता हैं।
  3. ये चमड़े अब धूलित्र में आते हैं। यहाँ चमड़ों की प्रत्येक तह के बीच में ठोस पाक सामग्री बुरककर उनहें सांद्र द्रवों में अपेक्षातया लंबी अवधि तक छोड़ देते हैं। एक दो सप्ताह बाद उन्हें अधिक सांद्रतावाले दूसरे कुंड में स्थानांतरित करते हैं। अंत में सांद्रतम द्रव अर्थात्‌ पूर्व-अप्रयुक्त चर्मपाक निष्कर्ष काम में लाते हैं। ऐसी अवस्था में चमड़े पर पृष्ठीय निक्षेप बन जाता है, जिसके कारण वह अधिक दृढ़, कठोर, भारी तथा घर्षणरोधक हो जाता है। अंत में चमड़े को निकालकर, पानी बह जाने के पश्चात्‌, उसके दानेदार पार्श्व पर जमे हुए निक्षेप को रगड़कर छुड़ाया जाता है।

बछड़ों की खाल का चर्मपाक

इन खालों का चूना निराकरण पूर्ण करने के लिये इन्हें जल से और कभी कभी अम्ल से भी धोते हैं। इसके बाद इनको पूर्वप्रयुक्त वानस्पतिक पाक द्रवों में दो से लेकर सात दिनों तक निलंबनकुंडों में चलाते रहते हैं, फिर हस्तन कुंडों के अधिक सांद्र द्रवों में उनका पाचन पूर्ण करते हैं, फिर हस्तन कुंडों के अधिक सांद्र द्रवों में उनका पाचन पूर्ण करते हैं। अंत में चमड़े का रंग हलका करने के लिये उसको पीपें या कुंड में सुमाख के उष्ण निषेक द्वारा पुनर्पाक करते हैं। चूँकि अधिकतर ऐसे चमड़े बाद में रँगे जाते हैं, अत: ऐसी अवस्था उत्पन्न ही नहीं की जाती कि उनपर पृष्ठीय निक्षेप बने।

भेड़ की चिरी हुई खल की दानेयुक्त परत, स्किवर्‌, का चर्मपाक

चूना उपचार के बार ही चिराई मशीन द्वारा ये परतें प्राप्त होती हैं। चिरी हुई परतों का क्षेत्रफल बराबर होता है, किंतु मोटाई कम होती है। स्किवरों का मुख्य उपयोग जिल्दसाजी में होता है। पहले इनका परिपूर्ण चूना निराकरण जल से धोकर और अम्लमार्जन द्वारा करते हैं, तब चर्मपाक के लिये इन्हें पैडल चक्र में, सुमाख पत्रों की बुकनी से ६०° सें. पर बने निषेक के साथ विलोड़ित करते हैं। प्रात: १२ घंटों में चर्मपाक पूर्ण होता है। तब चमड़ों का पानी निकालकर और धोकर सूखने देते हैं। इस प्रकार प्राप्त सफेद चमड़ा किसी भी रंग में रँगा जा सकता है।

कभी कभी क्रोमपाक चमड़े का वानस्पतिक पाक भी करते हैं। ऐसे संयुक्त पाक से चमड़े में दोनों रीतियों से प्राप्त होनेवाले गुण आते हैं, जैसे किसी विशिष्ट तले के चमड़े को संयुक्त पाक द्वारा क्रोम चमड़े जैसी घर्षणरोधकता और वनस्पति द्वारा पक्व चमड़े जैसी वर्धित मोटाई देते हैं।

खनिज चर्मपाक विधि

यद्यपि अधिकतर हल्की खालों के लिये आजकल क्रोम चर्मपाक ही प्रयोग में है, तथापि दस्तानों के चमड़े अभी तक खनिज पाक की प्राचीन विधि से ही बनाए जाते हैं। इसमें तैयार खाल के १०० भाग के साथ ८ भाग फिटकरी, ८ भाग नमक, ३ से लेकर ५ भाग तक आटा और २ से लेकर ४ भाग तक अंडपीत परिभ्रामी पीपे में डालकर दो घंटे तक चलाने से चमड़ा बनता है। इसे निस्सरण के बाद सुखाते हैं।

दुहरे अवगाह वाली क्रीम चर्मपाक विधि

व्यापार में यह मुख्यत: बकरे और बछड़े की खालों के शोधन में प्रयुक्त होती है, जिसकी आधुनिक विधि यह है :

पहले अवगाह में १०० भाग अम्लमार्जित खालों को ६ भाग सोडियम बाइक्रोमेट और १.७५ भाग सलफ्यूरिक अम्ल के तनु विलयन के मिश्रण के साथ पीपों या पैडल चक्रों में घुमाते हैं, ताकि अवशोषण पूर्ण हो जाय और खालों का रंग चमकदार नारंगी हो जाय। तब उन्हें निकालकर २४ घंटे तक निस्सरित करके मशीन द्वारा फैलाते हैं कि दाने समतल हो जायँ और सिकुड़न निकल जाय। तत्पश्चात्‌ दूसरे अवगाह में उन्हें १५ भाग सोडियम थायोसल्फेट के तनु विलयन के साथ पीपे इत्यादि में घुमाते हैं। ऊपर से एक भाग सलफ्यूरिक अम्ल जल में मिला हुआ देकर फिर चलाते हैं। इसी प्रकार लगभग एक घंटे में दो बार एक एक भाग अम्ल और देकर चलाते हैं। चमड़े का रंग अंत में फीका नीला हरा हो जाता है।

इस विधि की विशेषता यह है कि पहले अवगाह में बाइक्रोमेट और अम्ल की क्रिया द्वारा जो क्रोमिक अम्ल बनता है और खाल में अवशोषित होता है, वह दूसरे अवगाह में थायोसल्फेट और अम्ल की क्रिया द्वारा बने सलफ्यूरस अम्ल से अपचयित होकर समाक्षारीय क्रोमियम सल्फेट में परिणत होकर तंतुओं में निक्षिप्त हो जाता है। साथ ही थायोसल्फेट के उपचयन से टेट्राथायोनेट बनता है और उन्मुक्त गंधक भी तंतुओं के ऊपर और अंदर निक्षिप्त होता है। यह दुहरे अवगाह द्वारा पक्व चमड़े की पहचान है।

इकहरे अवगाहवाली क्रोम चर्मताप विधि

यह विधि सरल है, अधिक प्रचलित है और इससे निश्चित गुणवाले चमड़े बनते है। इसमें क्रमश: बढ़ती हुई सांद्रतावाले समाक्षारीय क्रोमियम लवण, क्रो (औहा) गं औ४ (Cr (OH) SO4) की खाल पर सीधी क्रिया होती है। इस रीति में भी चर्मपाक घूर्णमान पीपे इत्यादि में करते हैं और पाकद्रव के तनु विलयन से प्रारंभ करके सांद्रता बढ़ाते जाते हैं कि वेधन पूर्ण हो जाय। एक सामान्य पाकद्रव इस प्रकार बनता है :

एक सीसा मढ़ी टंकी में पहले १०० पाउंड सोडियम बाइक्रोमेट को २५ गैलन जल में घोलते हैं, तब १०० पाउंड सलफ्यूरिक अम्ल (९५ प्रतिशत) को अलग २५ गैलन जल में धीरे धीरे मिलाकर पहले विलयन में डालते हैं। ठंढा होने पर २५ पाउंड ग्लूकोज भी उसमें तब तक छोड़ते जाते हैं जब तक विलयन का प्रारंभिक नारंगी रंग बदलकर चमकदार गहरा हरा (बॉटल ग्रीन) न हो जाय।

क्रोम चर्मपाक द्रुतगामी प्रक्रम है। इससे सूक्ष्म नियंत्रित उत्पाद मिल सकते हैं। क्रोम चमड़े अपवाद रूप से घर्षण और रासायनिक क्रियारोधी होते हैं। उनकी तनाव क्षमता अधिक होती है और शुष्क तथा आर्द्र अवस्था में भी वे ऊँचे ताप, बिना हानि उठाए, सहन कर सकते हैं।

तेल चर्मपाक

कच्ची खाल से तेलों के प्रयोग द्वारा चमड़ा बनाना प्राचीनतम प्रक्रम है। आजकल साँभर का चमड़ा इसी विधि से बनाते हैं। भेड़, हिरन इत्यादि के आंतरिक चिराव को मंद क्षारीय स्थिति में लाकर मछली के किसी आक्सीकरणीय तेज, जैसे कॉड तेल, से तर करके, तेल को तंतुओं पर उपचयित करते हैं।

विलायक चर्मपाक

इसमें चर्मपाक पूर्व की तैयारियाँ करने के बाद खालों को ऐसीटोन सदृश विलायकों में विलीन पाकपदार्थो से उपचारित करते हैं। इसमें वेधन और चर्मपाक अति द्रुत होने के कारण तैयार चमड़े में सत्वर परिवर्तन करना संभव है। इस विधि से चर्म औद्योगिकी में आमूल परिवर्तन होने की प्रबल संभावना है।

चर्मपाक के बाद की क्रियाएँ

कमाया हुआ चमड़ा सदा रूक्ष होता है, इसलिये उसे समयागत कण आकारों से संबद्ध विभिन्न सतही फिनिश देते हैं, जिनके लिये निम्नलिखित प्रक्रम हैं :

सुखाना

बाद की क्रियाओं में चमड़ा विरूपित न हो जाय, इसके लिये उसके विभिन्न अंशों में आर्द्रता संतुलन बनाए रखना परमावश्यक है। क्रोम पाक चमड़ों को द्रुतता से ऊँचे ताप पर सुखा सकते हैं, किंतु भारी और वनस्पति द्वारा पक्व चमड़ों का सुखाना धीरे धीरे होना चाहिए। दानेदार तल की अति शुष्कता बचाने के लिये उनपर तेज का एक हल्का लेप लगाकर उन्हें एकसम अंतर्वाही वायुधारा में लटकाते हैं।

फैट-लिकरिंग

इसका उद्देश्य चर्मपाक काल में निष्कासित वसा का प्रतिस्थापन तथा तंतुओं का स्निग्धीकरण है। सूखे चमड़े का अडोलपन, दुर्नभ्यता और भंजन इन दुर्गुणां को दूर करने के लिये उसे साबुन द्वारा स्थिरीकृत, उपयुक्त जल-तेल पायस के साथ परिभ्रामी पीपों में विलोड़ित करते हैं। बहुधा इसमें रंग भी मिला दिया जाता हैं। इसे फैट-लिकरिंग प्रक्रम कहते हैं। इस प्रकार क्षुद्र वसा कणकों का अंतर्प्रवेश और तंतुसम्मिलन हो जाता है।

करीइंग तथा स्टफिंग

यदि पट्टे और साज जैसे काम आनेवाले चमड़ों को और अधिक वर्षा या ग्रीज अपेक्षित हो तो यह कार्य हस्तलेपन, डुबोना अथवा घूर्णायमान पीपों द्वारा पूर्ण किया जाता है। इसके लिये गोवसा, कॉड मछली का तेल, पैराफिन मोम, सल्फोनेटीकृत तेज इत्यादि प्रयुक्त होते हैं।

रँगना

इसके लिये अधिकतर ऐनिलीन रंग और रंजक तथा काष्ठनिष्कर्ष प्रयुक्त होते हैं। काष्ठों में हेमेटिन, लॉग काष्ठ, हाईपर्निक तथा फुस्टिक सामान्य हैं, किंतु ऐनिलीन रंगों की अपेक्षा काष्ठ सत्वों द्वारा कांति का पुनरुत्पादन कठिन है। व्यवसाय में प्राय: दोनों के संयोग से संतोषजनक कांति बनाई जाती है। कभी कभी एक सम कांति के लिये, रँगने के पूर्व एक आधार लेप भी किया जाता है। रँगने की सामान्य विधियाँ हैं ब्रशीकरण, डुबाना, ड्रमीकरण और फुहारना। घूमनेवाले पीपे द्वारा रंजक द्रवों में बंधक पदार्थ, जैसे केसीन, चपड़ा और कोई आधुनिक प्रलाक्षारस मिला सकते हैं। दस्तानों तथा अन्य वसनों का पृष्ठीय रंग पक्का और साबुन इत्यादि से अधाव्य होना चाहिए।

परिसज्जन

इसके अनेक प्रक्रम हैं जिनका चयन तैयार चमड़े के वांछनीय तल, ऊतकरचना, चमक दमक तथा रूप पर आश्रित है। तले के चमड़े में दृढ़ता लाने के लिये पहले उसे आर्द्र स्थिति में तथा पुन: शुष्क स्थिति में गरम बेलनों से दबाते हैं। जूते के उपरलों को स्टेकिंग (Staking) यंत्र द्वारा कोमल बनाकर निचली सतह को मखमली स्पर्श्‌ देने के लिये परिभ्रामी घर्षक बेलनों से रगड़ते हैं। पूर्ण द्युति के लिये केसीन, ऐलब्युमिन, मोम, गोंद, जटिल रंजन, प्रलाक्षारस, इत्यादि के स्थिर पायस हाथ बेलन या फुहार द्वारा लगाए जाते हैं। पालिश घर्षक मशीनें करती हैं। दानों का प्रभेदक प्रतिरूप स्थायी बनाने के लिये उपरलों पर उपयुक्त नक्काशीदार चद्दरों द्वारा समुचित उष्णता तथा दबाव देते हैं। बकरी के चमड़े को ऊँचे ताप पर सुखाने से उसके दाने स्थायी हो जाते हैं। पेटेंट चमड़े पर तीसी के तैलविलीन यौगिकों के कई लेप लगाते हैं।

तले के चमड़ों का पाक क्रोम विधि से नहीं किया जाता, क्योंकि उसकी प्राप्ति वानस्पतिक विधि द्वारा होनेवाली प्राप्ति से कम होती है। वानस्पतिक विधि से चमड़े का भार अधिक बढ़ता है, क्रोम विधि से उतना नहीं। वनस्पति से पका चमड़ा तौल से बिकता है, किंतु क्रोम से पका क्षेत्रफल के हिसाब से, जिसका मापन स्वचालित मशीन करती हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ