जन्म दर

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लेख सूचना
जन्म दर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 382
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक भवानी शंकर याज्ञिक

जन्म दर एक कैलेंडर वर्ष में प्रति सहस्र जनसंख्या में घटित होनेवाली लेखबद्ध जीवितजात संख्या है। किसी देश की स्वास्थ्य दशा की वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिये तथा उसकी क्रमोन्नति अथवा अवनति का पता लगाने के लिए नाना प्रकार के जन्ममरण के आँकड़ों में देश की जनसंख्या, जन्मसंख्या, मृत्युसंख्या आदि हैं। विवाह, शिक्षा, व्यवसाय, आय व्यय आदि अनेक अनेक अर्थशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय आँकड़े भी उपयोगी होते हैं।

जन्म-मरण का लेखा

देश के विभिन्न नगरों तथा ग्रामों में सर्वत्र प्रत्येक व्यक्ति के जन्म-मरण का नगरपालिका, ग्राम पंचायत तथा अन्य निकायों द्वारा लेखा रखा जाता है। परिवार के मुख्य सदस्य द्वारा जन्ममरण की सूचना देना अनिवार्य है। इस प्रकार के प्राप्त आँकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा जनता की स्वास्थ्य दशा की जानकारी प्राप्त की जाती है। दो या अधिक स्थानों की जनसंख्या की न्यूनाधिकता के आधार पर परस्पर तुलना की जा सकती। जिस स्थान की जनसंख्या अधिक होगी वहाँ अधिक बालक जन्म लेंगे। इस कारण जनसंख्या की अपेक्षा जन्म दर द्वारा तुलना करना अधिक समीचीन होता है, जो जन्मसंख्या और जन्मसंख्या के परस्पर अनुपात के आधार पर निर्धारित की जाती है।

जनगणना

किसी नगर या विशेष ग्राम की जन्मसंख्या का पता जनगणना द्वारा लगाया जाता है, जो प्रति दस वर्ष के अंतर पर व्यवस्थित रीति से की जाती है। उस स्थान में प्रति वर्ष पहिली जनवरी से इकतीस दिसंबर तक पूरे वर्ष भर में जीवित अवस्था में जन्म लेनेवाले सभी बालक-बालिकाओं की संख्या नगरपालिका तथा ग्राम पंचायत से प्राप्त की जाती है। जिस बालक ने जन्मते ही एक बार भी साँस लिया हो वह जीवितजात माना जाता है, भले ही वह कुछ ही देर बाद मर जाए। उपर्युक्त जनसंख्या तथा जन्मसंख्या के आँकड़ों से साधारण गणित द्वारा जन्म दर का परिकलन किया जाता है।

जनगणना प्रति दस वर्ष में एक बार की जाती है। जन्ममरण तथा आवागमन के कारण जन्मसंख्या निरंतर घटती-बढ़ती रहती है। इस कारण सन्‌ 1961 ई. की जनगणना के आँकड़ों का 1963 ई. में उपयोग करना ठीक नहीं हो सकता। इसी प्रकार किसी वर्ष की पहली जनवरी की जनसंख्या उसी वर्ष के 365 दिन पश्चात्‌ इकतीस दिसंबर को नही व्यवहृत हो सकती। इस कठिनाई को दूर करने के लिए प्रति वर्ष तीस जून की मध्यवर्गीय जनसंख्या का परिकलन किया जाता है और जन्ममरण संबंधी अनुपातों में इसी मध्यवर्षीय अनुमानित जनसंख्या का उपयोग किया जाता है। गत दो दशकों की जनगणनाओं में प्राप्त जनसंख्या की घटाबढ़ी के आधार पर मध्यवर्षीय जनसंख्या का परिकलन किया जाता है। परिकलन करते समय यह परिकल्पना की जाती है कि गत दशक में जनसंख्या में जो फेरफार हुआ हैं, चालू दशक में भी यथावत्‌ विद्यमान रहा है। मध्यवर्षीय जनसंख्या के आधार पर जन्म दर निकालने का सूत्र इस प्रकार है :

किसी स्थान की वर्ष विशेष की जन्मदर=(उस वर्ष में जीवित जात बालकों की संख्या*1000)/30 जून की मध्यवर्षीय जनसंख्या

पूरे वर्ष भर की जनसंख्या के स्थान में यदि एक सप्ताह अथवा मास (चार सप्ताह अथवा 28 दिन का मास और 52 सप्ताह का वर्ष) में लेखबद्ध जन्मसंख्या के आधार पर जो जन्म दर गणित द्वारा निकाली जाती है, उसे निम्नलिखित सूत्र से पूरे वर्ष की जन्म दर का रूप दिया जाता है।

सप्ताहगत जन्म दर=(सप्ताह में घटित जीविततजात बालकों की संख्या 1000*365)/(30 जून की मध्यवर्षीय जनसंख्या*7)

मासगत जन्म दर=(चार सप्ताह में घटित जीविततजात बालकों की संख्या 1000*365)/(30 जून की मध्यवर्षीय जनसंख्या*28)

किसी स्थान विशेष की लेखबद्ध जन्मसंख्या सर्वथा शुद्ध नहीं होती। बड़े बड़े नगरों में चिकित्सालयों की सुविधा होने के कारण दूर और पास के अन्य स्थानों की अनेक माताओं की प्रसव क्रिया चिकित्सालयों में होती है। वास्तविक जन्म दर तो उसी स्थान के निवासियों से संबंधित होनी चाहिए। अन्य स्थानों के निवासियों में होनेवाले प्रसवों की गुणना उनके मूल निवासस्थान में ही की जानी चाहिए, किंतु भारत में इस प्रकार का निवासस्थानिक संशोधन कठिन जान कर नहीं किया जाता। निवासस्थान संबंधी संशोधन न करने के कारण इस देश में असंशोधित जन्म दर का ही चलन है।

प्रसवन दर

जनसंख्या की घटा बढ़ी में छोटे बड़े सभी स्त्री पुरुष समान रूप से योगदान नहीं करते। यह घटा-बढ़ी वास्तव में प्रसव धारण योग्य 15 से 45 वर्ष की स्त्रियों की संख्या पर निर्भर है। उद्योग धंधों में व्यस्त श्रमिक वर्ग अपने परिवार को ग्रामों में छोड़कर स्वयं जीविकोपार्जन के लिये औद्योगिक क्षेत्रों में जा बसते हैं। इस कारण ऐसे स्थानों का स्त्री-पुरुष अनुपात बिगड़ जाता है और अन्य दर में अंतर आ जाता है। इसलिये वास्तविक जन्मदर की गणना प्रति सहस्र जनसंख्या के अनुपात के बदले प्रति सहस्र 15 से 45 वर्ष की आय की स्त्रियों की संख्या के आधार पर की जानी चाहिए। ऐसा किया भी जाता है, किंतु उसे सामान्यत: प्रचलित जन्म दर की संज्ञा न देकर प्रसवन दर कहा जाता है। यह अनुपात इस प्रकार सूचित किया जाता है :

प्रसवन दर=(कैलेंडर वर्ष में जीविततजात बालकों की संख्या*1000)/(15 से 45 वर्ष की स्त्रियों की मध्यवर्षीय संख्या)

पुंस्त्वानुपात

बालक तथा बालिकाओं की जन्म दरें पृथक्‌ रूप से भी निकाली जाती हैं, किंतु नवजात बालक तथा बालिकाओं की संख्या के परस्पर अनुपात की गणना अधिक उपयोग में लाई जाती है। इस अनुपात को पुंस्त्वानुपात कहते हैं जो इस प्रकार सूचित किया जाता है -

पुंस्त्वानुपात=(वर्षभर में बालकों की जन्मसंख्या*1000)/(वर्षभर में बालिकाओं की जन्मसंख्या)

जिस प्रकार बालक तथा बलिकाओं की जन्म दरें पृथक्‌ रूप से निकाली जाती हैं, उसी प्रकार औरस और जारज संतानों की जन्म दरें भी निकली जा सकती हैं, जिसकी गणना इस प्रकार होती है : औरस जन्मदर=(वर्षभर में औरस की जन्मसंख्या*1000)/(15 से 45 वर्ष की विवाहिता स्त्रियों की संख्या)

जारज जन्मदर=(वर्षभर में जारज संतानों की जन्मसंख्या*1000)/(15 से 45 वर्ष की अविवाहिता और विधवाओं की संख्या)

किंतु सुगमता के लिये जारज जन्म दर की अपेक्षा उसकी संपूर्ण जन्मसंख्या का प्रति शत अनुपात हो अधिक उपयुक्त होता है।

जारज प्रतिशत अनुपात=(वर्ष में जारज संतानों की जन्मसंख्या*1000)/(लेखबद्ध जीवितजात बालकों की संख्या)

मृतजात दर

मृतजात संतानों की संख्या जन्मसंख्या में सम्मिलित नहीं की जाती। गर्भधारण के अट्ठाईस सप्ताह के पश्चान्‌ होनेवाले मृत बालक का जन्म मृतजात जन्म कहा जाता है। अठ्‌ठाईस सप्ताह के पूर्व होनेवाले प्रसव में जीवित बालक के जन्म की संभावना नहीं होती। मृत जात की गणना जन्म तथा मृत्यु दोनों लेखां में न कर उसे पृथक्‌ रूप से मृतजात शीर्षक के अंतर्गत जन्मसंख्या के लेखे में लिखा जाता है। मृतजात संतानों का अनुपात इस प्रकार निकाला जाता है :

मृतजात दर=(वर्ष में जारज मृतजात की संख्या*1000)/(जीवितजात बालकों की संख्या)

जन्म दर की घटा-बढ़ी के कई कारण होते हैं। अधिकांश जन्म माता पिता की विवाहिता अवस्था में होने के कारण जन्म दर विवाहित व्यक्तियों की संख्या पर निर्भर होती है। इसके अतिरिक्त माताओं की प्रजनन शक्ति, परिवार में बांछनीय संतान संबंधी प्रचलित धारणा, विवाह के समय की आयु, अविवाहिता स्त्रियों की संख्या, सहगमन की सुविधा आदि का जन्म दर पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। संतति-निरोध के उपायों का चलन भी जन्म दर में कमी का कारण है। लगभग 100 वर्ष पूर्व इंग्लैंड में 35 प्रति शत परिवारों में आठ या उससे अधिक सतानें होती थीं और 20 प्रति शत में केवल दो या तीन। किंतु अब तो पाँच सात संतानों के स्थान में एक या दो ही होती हैं। अपेक्षित संतान संख्या में यह कमी इंग्लैंड निवासियों को खटकती है।

शिक्षा, उद्योग, वाणिज्य-व्यवसाय की उन्नति द्वारा जीवन स्तर में उत्तरोत्तर सुधार होने से जन्म दर में कमी होती देखी गई है।

भारत में जन्म दर में कोई विशेष कमी नहीं पाई जाती, संक्रामक रोगों की रोक थाम के फलस्वरूप मृत्यु दर में जो कभी दृष्टिगोचर होती है, उसके अनुपात में जन्म दर में कमी नहीं हुई। बाल मृत्यु दर में कमी होने से प्रत्याशित जीवन काल की अवधि में वृद्धि हुई। देश की जनसंख्या प्रबल वेग से बढ़ रही है और समस्त जनता के लिए आवश्यक जीवनोपयोगी साधन जुटाना निरंतर कठिन होता जा रहा है। जन्म दर में कमी होना देशहित में बहुत आवश्यक है और इस महत्कार्य को उच्चकोटि की प्राथमिकता दी गई है। परिवार नियोजन अथवा परिसीमन द्वारा इस उद्देश्य की पूर्ति संभव है। परिवार नियोजन वस्तुत: संतति निरोध नहीं है। इसका मुख्य उद्देश्य माताओं की स्वास्थ्य रक्षा के अतिरिक्त अवांछित अथवा अनावश्यक बहुप्रजननता का समाज सम्मत उपायों से नियंत्रण कर परिवार की सदस्य संख्या को आर्थिक स्थिति के अनुसार सीमित करना है, जिससे भरणपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुखी जीवन के समस्त साधन सबको यथोचित मात्रा में प्राप्त हो सकें और सबका पूर्णत: सुव्यवस्थित विकास हो सके।

टीका टिप्पणी और संदर्भ