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पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई हिस्से पर विश्र्व के महासागरों का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगミग 1400 मिलियन घन किलोमीटर है जो कि पृथ्वी पर 3000 मीटर गहरी परत बिछा देने के लिए काफी है। तथापि जल की इस विशाल मात्रा में स्वच्छ जल का अनुपात बहुत कम है। पृथ्वी पर उपलब्ध समग्र जल में से लगभग 2.7 प्रतिशत जल स्वच्छ है जिसमें से लगभग 75.2 प्रतिशत जल ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा रहता है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में विद्यमान है। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमण्डल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। जल की जो मात्रा उपभोग और अन्य प्रयोगों के लिए वस्तुतः उपलब्ध है, वह नदियों, झीलों और भूजल में उपलब्ध मात्रा का छोटा-सा हिस्सा है। इसलिए जल संसाधन विकास और प्रबन्ध की बाबत संकट इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि अधिकांश जल उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता और दूसरे इसका विषमतापूर्ण स्थानिक वितरण इसकी एक अन्य विशिष्टता है। फलतः जल का महत्व स्वीकार किया गया है और इसके किफायती प्रयोग तथा प्रबन्ध पर अधिक बल दिया गया है।
 
पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई हिस्से पर विश्र्व के महासागरों का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगミग 1400 मिलियन घन किलोमीटर है जो कि पृथ्वी पर 3000 मीटर गहरी परत बिछा देने के लिए काफी है। तथापि जल की इस विशाल मात्रा में स्वच्छ जल का अनुपात बहुत कम है। पृथ्वी पर उपलब्ध समग्र जल में से लगभग 2.7 प्रतिशत जल स्वच्छ है जिसमें से लगभग 75.2 प्रतिशत जल ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा रहता है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में विद्यमान है। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमण्डल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। जल की जो मात्रा उपभोग और अन्य प्रयोगों के लिए वस्तुतः उपलब्ध है, वह नदियों, झीलों और भूजल में उपलब्ध मात्रा का छोटा-सा हिस्सा है। इसलिए जल संसाधन विकास और प्रबन्ध की बाबत संकट इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि अधिकांश जल उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता और दूसरे इसका विषमतापूर्ण स्थानिक वितरण इसकी एक अन्य विशिष्टता है। फलतः जल का महत्व स्वीकार किया गया है और इसके किफायती प्रयोग तथा प्रबन्ध पर अधिक बल दिया गया है।
  
           
 
 
पृथ्वी पर उपलब्ध जल जल-वैज्ञानिक चक्र के माध्यम से चलायमान है। अधिकांश उपभोक्ताओं जैसे कि मनुष्यों, पशुओं अथवा पौधों के लिए जल के संचलन की जरूरत होती है। जल संसाधनों की गतिशील और नवीकरणीय प्रकृति और इसके प्रयोग की बारम्बार जरूरत को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल संसाधनों को उनकी प्रवाह दरों के अनुसार मापा जाए। इस प्रकार जल संसाधनों के दो पहलू हैं। अधिकांश विकासात्मक जरूरतों के लिए प्रवाह के रूप में मापित गतिशील संसाधन अधिक प्रासंगिक हैं। आरक्षित भण्डार की स्थिर अथवा नियत प्रकृति और साथ ही जल की मात्रा तथा जल निकायों के क्षेत्र की लम्बाई व मत्स्यपालन, नौ संचालन आदि जैसे कुछेक क्रियाकलापों के लिए भी प्रासंगिक है। इन दोनों पक्षों पर नीचे चर्चा की गई है।
 
पृथ्वी पर उपलब्ध जल जल-वैज्ञानिक चक्र के माध्यम से चलायमान है। अधिकांश उपभोक्ताओं जैसे कि मनुष्यों, पशुओं अथवा पौधों के लिए जल के संचलन की जरूरत होती है। जल संसाधनों की गतिशील और नवीकरणीय प्रकृति और इसके प्रयोग की बारम्बार जरूरत को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल संसाधनों को उनकी प्रवाह दरों के अनुसार मापा जाए। इस प्रकार जल संसाधनों के दो पहलू हैं। अधिकांश विकासात्मक जरूरतों के लिए प्रवाह के रूप में मापित गतिशील संसाधन अधिक प्रासंगिक हैं। आरक्षित भण्डार की स्थिर अथवा नियत प्रकृति और साथ ही जल की मात्रा तथा जल निकायों के क्षेत्र की लम्बाई व मत्स्यपालन, नौ संचालन आदि जैसे कुछेक क्रियाकलापों के लिए भी प्रासंगिक है। इन दोनों पक्षों पर नीचे चर्चा की गई है।
 
===सिंचाई का संसार===     
 
===सिंचाई का संसार===     
विश्र्व में देश-वार भौगोलिक क्षेत्र, कृषि-योग्य भूमि और सिंचित क्षेत्र का विश्र्लेषण करने पर ऐसा पता चलता है कि महाद्वीपों के बीच सर्वाधिक विशाल भौगोलिक क्षेत्र अफ्रीका में स्थित है जो कि विश्र्व के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 23 प्रतिशत बैठता है। तथापि मात्र 21% भौगोलिक क्षेत्र वाले एशिया (यूएसएसआर के भूतपूर्व देशों को छोड़कर) में विश्र्व की लगभग 32 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है जिसके बाद उत्तर केन्द्रीय अमरीका का स्थान आता है जिसमें लगभग 20 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है। अफ्रीका में विश्र्व की केवल 12% कृषि-योग्य भूमि है। यह देखा गया है कि विश्र्व में सिंचित क्षेत्र 1994 में कृषि-योगय भूमि का लगミग 18.5 प्रतिशत है। 1989 में विश्र्व का 63% सिंचित क्षेत्र एशिया में था जबकि 1994 में इस आशय का प्रतिशत बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंच गया। साथ ही 1994 में एशिया की 37 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि की सर्वाधिक विशाल मात्रा है जो कि एशिया की कृषि-भूमि का लगभग 39 प्रतिशत बैठती है। केवल संयुक्त राज्य अमरीका ऐसा देश है जहां भारत की तुलना में अधिक कृषि-योग्य भूमि है।
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विश्र्व में देश-वार भौगोलिक क्षेत्र, कृषि-योग्य भूमि और सिंचित क्षेत्र का विश्र्लेषण करने पर ऐसा पता चलता है कि महाद्वीपों के बीच सर्वाधिक विशाल भौगोलिक क्षेत्र अफ्रीका में स्थित है जो कि विश्र्व के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 23 प्रतिशत बैठता है। तथापि मात्र 21% भौगोलिक क्षेत्र वाले एशिया (यूएसएसआर के भूतपूर्व देशों को छोड़कर) में विश्र्व की लगभग 32 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है जिसके बाद उत्तर केन्द्रीय अमरीका का स्थान आता है जिसमें लगभग 20 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है। अफ्रीका में विश्र्व की केवल 12% कृषि-योग्य भूमि है। यह देखा गया है कि विश्र्व में सिंचित क्षेत्र 1994 में कृषि-योग्य भूमि का लगभग 18.5 प्रतिशत है। 1989 में विश्र्व का 63% सिंचित क्षेत्र एशिया में था जबकि 1994 में इस आशय का प्रतिशत बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंच गया। साथ ही 1994 में एशिया की 37 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि की सर्वाधिक विशाल मात्रा है जो कि एशिया की कृषि-भूमि का लगभग 39 प्रतिशत बैठती है। केवल संयुक्त राज्य अमरीका ऐसा देश है जहां भारत की तुलना में अधिक कृषि-योग्य भूमि है।
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==भारतीय संविधान में जल की स्थिति==
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भारत राज्यों का संघ है। राज्य और केन्द्र के बीच दायित्वों के आबंटन के सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधान तीन श्रेणियों में आते हैं: संघ सूची (सूची-I), राज्य सूची (सूची-II) तथा समवर्ती सूची (सूची-III)। संविधान के अनुच्छेद 246 का सम्बन्ध संसद और राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाई जाने वाली विधियों की विषय-वस्तु के साथ है। क्योंकि देश में अधिकांश नदियां अन्तर्राज्यीय हैं, इन नदियों के पानी का विनियमन और विकास अन्तर्राज्यीय मतभेदों और विवादों का कारण है। संविधान में जल सूची-II अर्थात राज्य सूची की प्रविष्टि 17 में शामिल है। यह प्रविष्टि सूची-I अर्थात संघ सूची की प्रविष्टि 56 के प्रावधान के अध्यधीन है। इस सम्बन्ध में विशिष्ट प्रावधान निम्नानुसार हैः
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====अनुच्छेद 246====
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(1) खंड (2) और खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद का सातवीं अनुसूची की सूची 1 में (जिसे इस संविधान में 'संघ सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी  विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।<br />
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(2) खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद को और खंड (1) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को भी, सातवीं अनुसूची की सूची III में (जिसे इस संविधान में 'समवर्ती सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है।<br />
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(3) खंड (1) और खंड (2) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को सातवीं अनुसूची की सूची II में (जिसे इस संविधान में 'राज्य सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में उस राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।<br />
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(4) संसद को भारत के राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के लिए जो किसी राज्य के अंतर्गत नहीं है, किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है, चाहे वह विषय राज्य सूची में प्रगणित विषय ही क्यों न हो।
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====अनुच्छेद 262====
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जल सम्बन्धी विवादों के सम्बन्ध में अनुच्छेद 262 में निम्न प्रावधान हैः
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(1) संसद, विधि द्वारा, किसी अंतर्राज्यिक नदी या नदी-घाटी के या उसमें जल के प्रयोग, वितरण या नियंत्रण के सम्बन्ध में किसी विवाद या शिकायत के न्याय निर्णयन के लिए उपबंध कर सकेगी।<br />
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(2) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संसद, विधि द्वारा, उपबंध कर सकेगी कि उच्चतम न्यायालय या कोई अन्य न्यायालय खंड (1) में निर्दिष्ट किसी विवाद या शिकायत के सम्बन्ध में अधिकारिता का प्रयोग नहीं करेगा।
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====सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56====
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सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि में यह प्रावधान है कि उस सीमा तक अंतरराज्यिक नदियों और नदी-घाटियों का विनियमन और विकास, जिस तक संघ के नियंत्रण के अधीन ऐसे विनियमन और विकास को संसद विधि द्वारा, लोकहित में समीचीन घोषित करें।
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====सातवीं अनुसूची की सूची I I====
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सातवीं अनुसूची की सूची II के अधीन प्रविष्टि 17 में यह प्रावधान है कि सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन रहते हुए जल अर्थात जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, जल निकास और तटबन्ध, जल भंडारकरण और जलशक्ति।<br />
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इस प्रकार केन्द्रीय सरकार को सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन केन्द्रीय सरकार को उस सीमा तक अन्तरराज्यिक नदियों का विनियमन और विकास करने की शक्ति प्राप्त है जिस तक संसद, विधि द्वारा लोकहित में समीचीन घोषित करे। साथ ही उसे संविधान के अनुच्छेद 262 के अधीन अन्तर्राज्यीय नदी अथवा नदी घाटी से सम्बन्धित किसी विवाद के अधिनिर्णय के लिए विधियां बनाने की शक्ति भी प्राप्त है।
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==विकास की स्थिति==
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====अंग्रेजों के समय में सिंचाई विकास====
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अंग्रेजी शासन के दौरान सिंचाई विकास की शुरूआत मौजूदा कार्यों जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है के नवीकरण, सुधार और विस्तार के साथ हुई। पर्याप्त अनुभव और विश्र्वास अर्जित कर लेने के बाद सरकार ने नए वृहद कार्य हाथ में लिए जैसे कि ऊपरी गंगा नहर, ऊपरी बड़ी दोआब नहर तथा कृष्णा और गोदावरी डेल्टा प्रणालियां जो सभीकाफी बड़े आकार के नदी-अपवर्तन कार्य थे। 1836 से 1866 तक की अवधि इन चार वृहद कार्यों की जांच, विकास और पूर्ति के प्रति समर्पित थी। 1867 में सरकार ने ऐसे कार्य हाथ में लेने की परिपाटी अपनाई जो कि न्यूनतम शुद्ध लाभ का आश्र्वासन देते थे। इसके बाद अनेक परियोजनाएं हाथ में ली गईं जिनमें सिरहिन्द, निम्न गंगा, आगरा और मुथा नहरों तथा पेरियार बांध और नहरों जैसे वृहद नहर कार्य शामिल थे। इस अवधि के दौरान सिंधु प्रणाली पर कुछ अन्य वृहद नहर परियोजनाएं भी पूरी की गईं। इनमें निम्न स्वात, निम्न सोहाग और पारा, निम्न चिनाब और सिघनई नहर शामिल थी जिनमें से सभी1947 में पाकिस्तान में चली गई।
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19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सूखे और अकाल की पुनरावृत्ति के कारण फसलों के असफल हो जाने की स्थिति में सुरक्षा प्रदान करने और बाढ़ राहत पर बड़े पैमाने पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए सिंचाई का विकास जरूरी हो गया। क्योंकि न्यून वर्षा भू-भाग में सिंचाई कार्यों के सम्बन्ध में ऐसा सोचा गया था कि उनके लिए उत्पादकता परीक्षण की पूर्ति करना संभव नहीं होगा, इसलिए उनका वित्तपोषण चालू राजस्व से करना पड़ा। इस अवधि के दौरान निर्मित महत्वपूर्ण संरक्षणात्मक कार्य थेः बेतवा नहर, नीरा बायां तट नहर, गोकक नहर, खसवाड़ तालाब तथा ऋषिकुल्य नहर। दो प्रकार के कार्यों अर्थात उत्पादक और सुरक्षात्मक कार्यों के बीच सरकार की तरफ से उत्पादक कार्यों की ओर अधिक ध्यान दिया गया। अंग्रेजों के शासनाधीन भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सिंचित सकल क्षेत्रफल लगभग 7.5 मिलियन हैक्टेयर था। इसमें से 4.5 मिलियन हैक्टेयर लघु कार्यों जैसे कि तालाबों, आप्लावन आदि से प्राप्त हुआ था जिनके सम्बन्ध में कोई स्वतंत्र पूंजी लेखे नहीं रखे गए थे। सुरक्षा कार्यों से सिंचित क्षेत्र 0.12 मिलियन हैक्टेयर से थोड़ा-सा अधिक था।
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====घरेलू जल आपूर्ति====
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राष्ट्रीय जल नीति ने पेयजल आपूर्ति की जरूरत को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है जिसके बाद सिंचाई, जल-विद्युत, नौसंचालन और औद्योगिक तथा अन्य प्रयोगों का स्थान आता है। क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं तथा उनके बीच आने वाली वार्षिक योजनाओं में जल आपूर्ति और सफाई प्रणालियां तेजी से विकसित करने की दिशा में प्रयास किए गए हैं। "अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और सफाई दशक" के सन्दर्भ में इस दशक के अन्त अर्थात मार्च, 1991 तक शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत जनता को जल आपूर्ति सुविधाएं उपलब्ध कराने, शहरी क्षेत्रों में 80 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 25 प्रतिशत जनता तक सफाई सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार ने अप्रैल, 1981 में दशकीय कार्यक्रमों की शुरूआत की। तथापि वित्तीय तथा अन्य कठिनाइयों के चलते दशक के लिए मूलतः जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उन्हें घटाकर शहरी जल आपूर्ति के मामले में 90 प्रतिशत तथा ग्रामीण जल आपूर्ति के मामले में 85 प्रतिशत और शहरी स्वच्छता के मामले में 50 प्रतिशत तथा ग्रामीण स्वच्छता के मामले में 5 प्रतिशत कर दिया गया। अपनाई गई नीति के अनुसार पेयजल के लिए प्रावधान सभीजल संसाधन परियोजनाओं में किया जाएगा। भारत में अधिकांश महानगरों/शहरों की पेयजल मांगों की पूर्ति निकटस्थ क्षेत्रों में स्थित सिंचाई/बहुद्देश्यीय स्कीमों के जलाशयों और यहां तक कि लम्बी दूरी के अन्तरण द्वारा की जाती है। टिहरी बांध से दिल्ली को तथा तेलुगु गंगा परियोजनाओं के जरिए चेन्नई को कृष्णा जल से पेयजल की आपूर्ति अनूठे उदाहरण हैं।
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====जल-विद्युत शक्ति====
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भारत के पास विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल-विद्युत उत्पादन की विशाल क्षमता मौजूद है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के एक अनुमान के अनुसार देश में 60 प्रतिशत भार गुणांक पर 84,000 मेगावाट क्षमता का आकलन किया गया है जो कि वार्षिक ऊर्जा उत्पादन के लगभग 450 बिलियन यूनिटों के बराबर है। बेसिन-वार विभाजन नीचे प्रस्तुत हैः
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{| width="100%" class="bharattable"
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|-
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! क्रम संख्या
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!  बेसिन
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! 60 प्रतिशत भार गुणांक पर क्षमता (मेगावाट)
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|-
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| 1.
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| सिंधु बेसिन
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| 20,000
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|-
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| 2.
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| ब्रह्मपुत्र बेसिन
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| 35,000
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|-
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| 3.
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| गंगा बेसिन
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| 11,000
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|-
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| 4.
 +
| केन्द्रीय भारत बेसिन
 +
| 3,000
 +
|-
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| 5.
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| पश्चिम की ओर बहने वाली नदी प्रणाली
 +
| 6,000
 +
|-
 +
| 6.
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| पूर्व की ओर बहने वाली नदी प्रणाली
 +
| 9,000
 +
|-
 +
|
 +
| योग
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| 74,000
 +
|}
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स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1362 मेगावाट की कुल स्थापित क्षमता में से जल-विद्युत उत्पादन क्षमता 508 मेगावाट थी। तदनन्तर क्षमता बढ़कर 13,000 मेगावाट तक पहुंच चुकी है। इसके अलावा निर्माणाधीन परियोजनाओं से 6,000 मेगावाट अलग से उपलब्ध है। पहले ही मंजूर की जा चुकी परियोजनाओं से लगभग 3,000 मेगावाट क्षमता के उपलब्ध होने की संभावना है। इस प्रकार काम में लगाई गई/लगाई जा रही कुल क्षमता लगभग 22,000 मेगावाट बैठेगी जो कि अनुमानित क्षमता का लगभग एक चौथाई है।
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====मध्यकालीन भारत में सिंचाई====
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मध्यकालीन भारत में आप्लावन नहरों के निर्माण में तेज प्रगति की गई। नदियों पर बांधों का निर्माण करके पानी को अवरुद्ध किया गया। ऐसा करने से पानी का स्तर ऊंचा उठ गया और खेतों तक पानी ले जाने के लिए नहरों का निर्माण किया गया। इन बांधों का निर्माण राज्य और निजी स्रोतों--दोनों द्वारा किया गया। गियासुद्दीन तुगलक (1220-1250) को ऐसा पहला शासक होने का गौरव प्राप्त है जिसने नहरें खोदने को प्रोत्साहन दिया। तथापि फ्रज तुगलक (1351-86) को, जो कि केन्द्रीय एशियाई अनुभव से प्रेरित था उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व सबसे बड़ा नहर निर्माता माना गया था। ऐसा कहा जाता है कि दक्षिण भारत में पंद्रहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य की उन्नति और विस्तार के पीछे सिंचाई एक प्रमुख कारण रहा था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अपवादात्मक मामलों को छोड़कर अंग्रेजी साम्राज्य के आगमन से पूर्व अधिकांश नहर सिंचाई अपवर्तनात्मक प्रकृति की थी। सिंचाई को बढ़ावा देने के माध्यम से राज्य ने राजस्व बढ़ाने का प्रयास किया और उर्वर भूमि के लिए पुरस्कारों तथा विभिन्न श्रेणियों के लिए अन्य अधिकारों के माध्यम से संरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया। सिंचाई ने रोजगार अवसरों में भीवृद्धि कर दी थी तथा सेना और अधिकारी-तंत्र को बनाए रखने के लिए अधिशेष के सृजन में मदद भीकी थी। क्योंकि कृषि-विकास अर्थव्यवस्था का मूलाधार था इसलिए सिंचाई प्रणालियों की ओर विशेष ध्यान दिया गया। यह बात इस तथ्य से पता चलती है कि सभीविशाल, शक्तिशाली और स्थिर साम्राज्यों ने सिंचाई विकास की ओर ध्यान दिया।
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====योजना विकास====
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स्वतंत्रता के बाद योजना अवधि के दौरान जल संसाधन विकास के प्रारम्भिक चरण में जल संसाधनों को तेजी से काम में लगाना मुख्य प्रयोजन था। तदनुसार राज्य सरकारों को सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, जल विद्युत उत्पादन, पेयजल आपूर्ति, औद्योगिक तथा विभन्नि विविध प्रयोगों जैसे विशिष्टि प्रयोजनों के लिए जल संसाधन परियोजनाएं तैयार और विकसित करने को प्रोत्साहित किया गया। इसका फल यह हुआ कि क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के साथ सारे देश के भीतर बांधों, बराजों, जल विद्युत संरचनाओं, नहर नेटवर्क आदि से युक्त परियोजनाएं काफी संख्या में उभर कर आईं। भारत में विशाल भण्डारण क्षमता जल संसाधन विकास के क्षेत्र में एक अनन्य उपलब्धि मानी जा सकती है। तैयार किए गए इन भण्डारण कार्यों के कारण कमान क्षेत्र में सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध कराना, जल विद्युत तथा विभन्नि स्थानों पर स्थित तापीय विद्युत संयंत्रों के लिए आपूर्ति तथा विभन्नि अन्य प्रयोगों के लिए मांग की पूर्ति सुनिश्चित करना संभव हो सका है। बाढ़ संभावित क्षेत्रों में जहां भण्डारण उपलब्ध करा दिया गया है, बाढ़ नियंत्रण प्रभावी हो सका था। इसके अलावा देश के भीतर विभन्नि हिस्सों में दूरस्थ इलाकों में सारे वर्ष पेयजल की आपूर्ति संभव हो सकी है।
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जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना शुरू हुई तो उस समय भारत की जनसंख्या लगभग 361 मिलियन और खाद्य का वार्षिक उत्पादन 51 मिलियन टन था जो कि काफी नहीं था। खाद्य की इस कमी को पूरा करने के लिए खाद्यान्न का आयात करना जरूरी था। इसलिए योजना अवधि में खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया था और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए अनेक वृहद, मध्यम और लघु सिंचाई तथा बहुद्देश्यीय परियोजनाएं तैयार और कार्यान्वित की गईं ताकि सारे देश के भीतर सिंचाई की अतिरिक्त क्षमता पैदा की जा सके। कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति सहित उक्त आन्दोलन के कारण खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में भारत पिछड़े हुए देश के स्थान पर अपनी आवश्यकता से किंचित फालतू मात्रा में खाद्यान्न पैदा करने वाला देश बन गया है। इस प्रकार निवल सिंचित क्षेत्र कुल बुवाई क्षेत्र का 39 प्रतिशत तथा कुल कृषि-योग्य भूमि का 30 प्रतिशत बैठता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है वृहद तथा मध्यम परियोजनाओं के कारण अन्ततः 58 मिलियन हैक्टेयर सिंचित क्षेत्र का आकलन किया गया है जिसमें से 64% अनुमानतः विकसित किया जाएगा।
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====संस्थानगत व्यवस्थाएं====
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केन्द्रीय सरकार पर एक राष्ट्रीय संसाधन के रूप में जल के विकास, संरक्षण और प्रबन्ध के लिए अर्थात जल संसाधन विकास और सिंचाई, बहुद्देश्यीय परियोजनाओं, भूजल अन्वेषण तथा दोहन, कमान क्षेत्र विकास, जल निकास, बाढ़ नियंत्रण, जलग्रस्तता, समुद्र कटाव समस्याओं, बांध सुरक्षा तथा नौसंचालन और जल विद्युत के लिए जल वैज्ञानिक संरचनाओं के सम्बन्ध में राज्यों को तकनीकी सहायता प्रदान करने के निमित्त सामान्य नीति के लिए केन्द्री स्तर पर जल संसाधन मंत्रालय जिम्मेदार है। यह मंत्रालय अन्तर्राज्यीय नदियों के विनियमन और विकास पर भी निगाह रखता है। ये कार्य विミन्नि केन्द्रीय संगठनों द्वारा किए जाते हैं। शहरी जल आपूर्ति तथा जलमल निपटान की देखभाल शहरी विकास मंत्रालय करता है जबकि ग्रामीण जल आपूर्ति ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन पेयजल विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है। जल-विद्युत ऊर्जा और तापीय विद्युत का विषय विद्युत मंत्रालय की जिम्मेदारी है। प्रदूषण और पर्यावरण, पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है। क्योंकि पानी एक राज्य-विषय है इसलिए इस संसाधन के प्रयोग और नियंत्रण की मौलिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है। पानी के प्रशासनिक नियंत्रण और विकास की जिम्मेदारी विभन्नि राज्य सरकारों और निगमों के ऊपर है। वृहद और मध्यम सिंचाई की देखभाल सिंचाई/जल संसाधन विभागों द्वारा की जाती है। लघु सिंचाई की देखभाल अंशतः जल संसाधन विभागों, लघु सिंचाई निगमों, जिला परिषदों/पंचायतों तथा कृषि जैसे अन्य विभागों द्वारा की जाती है। शहरी जल आपूर्ति आमतौर पर जन स्वास्थ्य विभागों की जिम्मेदारी है जबकि ग्रामीण जल आपूर्ति पंचायतों का काम है। सरकारी नलकूपों का निर्माण और देखभाल सिंचाई/जल संसाधन विभाग द्वारा अथवा इस प्रयोजन के लिए स्थापित नलकूप निगमों द्वारा की जाती है। जल-विद्युत राज्य विद्युत बोर्डों की जिम्मेदारी है।
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====सिचाई====
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सिचाई परियोजनाएं तीन श्रेणियों अर्थात बृहद, मध्यम और लघु में रखी जाती हैं। जिन परियोजनाओं का कृषि-योग्य कमान क्षेत्र (सीसीए) 10,000 हैक्टेयर से अधिक होता है, उन्हें बृहद परियोजनाएं कहा जाता है और जिन परियोजनाओं का कृषि-योग्य कमानक्षेत्र 10,000 हैक्टेयर से कम किन्तु 2,000 हैक्टेयर से अधिक होता है, वे मध्यम परियोजनाएं कहलाती हैं। जिन परियोजनाओं का सीसीए 2,000 हैक्टेयर या इससे कम होता है, वे लघु परियोजनाएं कहलाती हैं। जो क्षेत्र अन्ततः सतही तथा भूजल--दोनों द्वारा सिंचाई के अधीन लाया जा सकता है, उसके बारे में विभिन्न राज्यों द्वारा 1960 के दशक में किए गए एक स्थूल मूल्यांकन से ऐसा पता चला है कि देश की सिंचाई की अन्तिम क्षमता 113 मिलियन हैक्टेयर भूमि की होगी। लेकिन अन्तिम क्षमता 139 मिलियन हैक्टेयर है, इस वृद्धि का मूल कारण लघु भूजल स्कीमों और लघु सतही जल स्कीमों की आकलित क्षमता में क्रमशः 64 मिलियन हैक्टेयर तथा 17 मिलियन हैक्टेयर तक का बढ़ने वाला संशोधन है। लघु सिंचाई परियोजनाओं के स्रोत के रूप में सतही और भूजल दोनों होते हैं जबकि बृहद और मध्यम परियोजनाएं अधिकतर सतही जल संसाधनों का दोहन करती हैं।
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====सिचाई विकास का इतिहास====
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भारत में सिंचाई विकास का इतिहास प्रागैतिहासिक समय से शुरू होता है। वेदों और प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में कुओं, नहरों, तालाबों और बांधों का उल्लेख मिलता है जो कि समुदाय के लिए उपयोगी होते थे और उनका कुशल संचालन तथा अनुरक्षण राज्य की जिम्मेदारी होती थी। सम्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ था और जीवित रहने के लिए उन्होंने पानी का लाभ उठाया। प्राचीन भारतीय लेखकों के अनुसार कोई कुआं या तालाब खोदना मनुष्य का सबसे अधिक पुण्य कार्य होता था। विधि और राजनीति के प्राचीन लेखक बृहस्पति का कहना है कि बांधों का निर्माण और मरम्मत एक पावन कार्य है और इसका भार समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के कंधों पर डाला जाना चाहिए। विष्णु पुराण में कुओं, वाटिकाओं और बांधों की मरम्मत करने वाले व्यक्ति की सराहना की गई है।
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मानसून के मौसम में और भारत जैसे कृषि अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रक्रिया में सिंचाई की एक बहुत महत्वूपर्ण भूमिका रही है। सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसा पूर्व) के दौरान व्यवस्थित कृषि के समय से सिंचाई की प्रथा के साक्ष्य मिलते हैं। ये सिंचाई प्रौद्योगिकियां छोटे और लघु कार्यों के रूप में होती थीं जिनका प्रयोग भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की सिंचाई करने के लिए छोटे-छोटे परिवारों द्वारा किया जा सकता था और उनके लिए सहकारितापूर्ण प्रयास जरूरी नहीं थे। प्रायः ये सभी सिंचाई प्रौद्योगिकियां किंचित प्रौद्योगिकीय बदलाव सहित भारत में आज भी मौजूद हैं और स्वतंत्र परिवारों द्वारा छोटे-छोटे जोत क्षेत्रों की सिंचाई के लिए उनका प्रयोग अभी भी किया जाता है। इस समय विशाल सिंचाई कार्यों के साक्ष्य का अभाव विशाल अधिशेष राशि की, जिसे बड़ी स्कीमों में निवेश किया जा सकता था कमी का अथवा दूसरे शब्दों में कठोर और असमान सम्पत्ति अधिकारों के अभाव का द्योतक है। जहां कृषि में ग्राम समुदाय और सहकारिता निश्चित रूप से मौजूद थे जैसाकि सुविकसित शहरों और अर्थव्यवस्था में देखा जा सकता है विशाल सिंचाई कार्यों में ऐसी सहकारिता की जरूरत नहीं थी क्योंकि ऐसी बस्तियां उर्वर और सुसिंचित सिंधु बेसिन पर स्थित थीं। कृषि बस्तियों के कम उर्वर और कम सिंचित क्षेत्रों में फैल जाने के कारण सिंचाई विकास में सहयोग देखने को मिला और जलाशयों तथा छोटी-छोटी नहरों के रूप में अपेक्षतया विशाल सिंचाई कार्य उभर कर आए। जहां छोटी-छोटी स्कीमों का निर्माण ग्राम समुदायों की क्षमता के भीतर था विशाल सिंचाई कार्य राज्यों, साम्राज्यों के विकास तथा शासकों के हस्तक्षेप के कारण ही उभर पाए। सिंचाई और राज्य के बीच एक निकट सम्बन्ध हुआ करता था। राजा के पास श्रमिक जुटाने का अधिकार था जिनका प्रयोग सिंचाई कार्यों के लिए किया जा सकता था।
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दक्षिण में चोलाओं द्वारा कावेरी नदी से सिंचाई उपलब्ध कराने के प्रयोजन से बहुत पहले अर्थात दूसरी शताब्दी में ग्रैण्ड अनीकट के निर्माण के साथ बारहमासी सिंचाई की शुरूआत हुई होगी। जहां कहीं स्थलाकृति तथा भू-भाग की दृष्टि से संभव होता, वहां सतही जल निकास पानी को तालाबों अथवा जलाशयों में अवरुद्ध करने की पुरानी परिपाटी मौजूद थी जिसके लिए जहां कहीं जरूरी हो वहां फालतू पानी ले जाने के लिए एक अतिरिक्त अनीकट सहित मिट्टी का एक बांध बना दिया जाता था, नीचे की भूमि को सिंचित करने के लिए उपयुक्त स्तर पर एक स्लूस होता था। कुछ तालाबों को नदी तथा नदी-नहरों से पूरक आपूर्ति प्राप्त होती थी। केन्द्रीय और दक्षिणी भारत में समूचा भू-दृश्य ऐसे अनेक सिंचाई तालाबों से परिपूर्ण है जिनका समय ईस्वी सन की शुरूआत से कई शताब्दियों पुराना है। उत्तरी भारत में भी नदियों की ऊपरी घाटियों में कई छोटी-छोटी नहरें हैं जो कि बहुत पुरानी हैं।
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====स्वतंत्रता के समय सिंचाई विकास====
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स्वतंत्रता के समय भारतीय उपमहाद्वीप में, जिसमें अंग्रेजों के प्रान्त और रजवाड़े शामिल थे, निवल सिंचित क्षेत्र लगभग 28.2 मिलियन हैक्टेयर था। लेकिन देश के विभाजन के कारण स्थिति में अचानक और जबरदस्त बदलाव आ गया जिसके फलस्वरूप सिंचित क्षेत्र दो देशों के बीच बंट गया; भारत और पाकिस्तान में निवल सिंचित क्षेत्र क्रमशः 19.4 मिलियन हैक्टेयर तथा 8.8 मिलियन हैक्टेयर रह गया। सतलज और सिंधु प्रणालियों सहित वृहद नहर प्रणालियां पाकिस्तान के हिस्से में चली गई। पूर्वी बंगाल, जिसे अब बांग्लादेश कहते हैं और जिसमें उर्वर गंगा ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र आता है, वह भीपाकिस्तान का हिस्सा बन गया। उत्तर प्रदेश में और दक्षिण के डेल्टाओं में कुछ पुराने कार्यों को छोड़कर भारत के पास शेष बच रहे सिंचाई कार्य अधिकाशतः संरक्षात्मक प्रकृति के थे जिनका प्रयोजन महत्वपूर्ण पैदावार नहीं बल्कि अकाल की स्थिति को टालना था।
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====नौसंचालन====
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देश के भीतर अन्तर्देशीय जल मार्गों की कुल नौसंचालनयोग्य दूरी 15,783 किलोमीटर है जिसमें अधिकतम उत्तर प्रदेश में पड़ता है और उसके बाद क्रमशः पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, असम, केरल और बिहार का स्थान आता है। नदी प्रणाली के बीच गंगा में सबसे अधिक लम्बा नौ-संचालनयोग्य जलमार्ग है जिसके बाद गोदावरी, ब्रह्मपुत्र तथा पश्चिम बंगाल की नदियों का स्थान आता है। भीतरी स्थानों तक पहुंचना जलमार्गों का एक अनूठा लाभ है। इसके अलावा वे कहीं कम प्रदूषण और कम संचार विषयक बाधाओं सहित यातायात के सस्ते साधन उपलब्ध कराते हैं। जलमार्ग यातायात का प्रयोग जो 1980-81 में 0.11 एमटी होता था वह 1994-95 में बढ़कर 0.33 एमटी तक पहुंच गया। अन्तर्देशीय जल परिवहन का विकास ऊर्जा संरक्षण की दृष्टि से भीअत्यधिक महत्व का है। जिन दस जल मार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किए जाने के लिए अभिज्ञात किया गया है, वे इस प्रकार हैं:
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# गंगा-भगीरथ-हुगली
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# ब्रह्मपुत्र
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# माण्डवी, जुआरी नदी तथा गोवा में कुम्बराजुआ नहर
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# महानदी
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# गोदावरी
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# नर्मदा
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# सुन्दरवन क्षेत्र
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# कृष्णा
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# तापी
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# पश्चिम तट नहर
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गंगा-ब्रह्मपुत्र-हुगली तथा ब्रह्मपुत्र को पहले ही राष्ट्रीय जलमार्गों के रूप में घोषित किया जा चुका है। फरक्का नौ-संचालन जलपाश (लॉक) परिवहन के लिए खोला जा चुका है और इस प्रकार कलकत्ता से जुड़े हुए गंगा के प्रतिप्रवाह खण्डों के लिए परिवहन की सुविधा उपलब्ध हो गई है। राष्ट्रीय जलमार्गों के नेटवर्क के चलते इस क्षेत्र में 10 नदी प्रणालियों के जरिए सवारी और माल की ढुलाई में 35 एमटी प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि होने की संभावना है। नौ-संचालन के लिए पानी का खपतकारी प्रयोग पर्याप्त नहीं है क्योंकि क्षय केवल अन्तिम भण्डारण परियोजनाओं पर होता है।
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====जल विकास और स्वास्थ्य====
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जहां जल मानव जीवन के अस्तित्व के लिए जरूरी है, वहां यह मानवीय स्वास्थ्य के लिए समस्याएं भी पैदा कर सकता है क्योंकि यह टाइफायड, हैजा, अतिसार, मलेरिया, फाइलेरिया, शिष्टोसोमियासिस आदि जैसे रोगों के लिए रोगवाहकों का वाहक भी होता है। फिर भी जल विकास परियोजना का कुप्रबन्ध होने पर भी उन्होंने देश में मानवीय स्वास्थ्य में उपयोगी योगदान दिया है।
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मानवीय स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभों में महत्वपूर्ण लाभ बुनियादी खाद्यों के बढ़े हुए उत्पादन के फलस्वरूप बेहतर खुराक, फल और सब्जियां उगाने का नया अवसर, ऐसे लोगों की खाद्य के लिए बढ़ी हुई क्रय शक्ति जो कि उनके द्वारा पैदा नहीं किए जाते जो कि खेत पर होते हैं। अन्य पौषणिक सुधार मत्स्य पालन के विकास तथा घरेलू पशुओं को चारा खिलाने और पानी पिलाने की बेहतर सुविधाओं का परिणाम है जो कि खुराक और आय में भी काफी बढ़ोतरी कर सकती है। जल विकास परियोजनाओं की उन्नति से केवल यही नहीं कि देश बाढ़ और सूखे पर काबू पाने के योग्य हो सका बल्कि उसने निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पर्याप्त भोजन और कपड़ा भी मुहैया कराया है।
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देश के अधिकांश भागों में आजकल सुरक्षित जल की जिस कमी का अनुभव किया जा रहा है, उसे देखते हुए जल विकास परियोजनाओं में मानवीय प्रयोग के लिए सुरक्षित जल की सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। देश में कार्यान्वित प्रायः सभी परियोजनाएं घरेलू प्रयोग के लिए पानी उपलब्ध कराती हैं हालांकि इनमें से कुछ परियोजनाएं मूलतः इस लक्ष्य को सामने रख कर नहीं बनाई गई थीं। क्योंकि 80-90 प्रतिशत वर्षा केवल मानसून के दौरान ही होती है इसलिए घरेलू प्रयोग के लिए पानी को संचित करना जरूरी हो जाता है। जल आपूर्ति ने बेहतर जल निकासी और सफाई के जरिए आबादी वाले क्षेत्रों के साफ और स्वच्छ रखने में भी सहायता प्रदान की है। इस प्रकार जल आपूर्ति ने स्वास्थ्य के सुधार में योगदान दिया है।
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====अन्तर्देशीय मत्स्य पालन====
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जल संसाधन विकास कार्यों के फलस्वरूप प्रमुख लक्ष्यों के अलावा विभिन्न अन्य क्षेत्रों में भी उन्नति हुई है जिनमें अन्तर्देशीय मत्स्य उत्पादन में उन्नति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 1950-51 के दौरान कुल मत्स्य उत्पादन 0.22 मिलियन टन था जो कि 1994-95 तक बढ़कर 2.08 मिलिनय टन तक पहुंच गया है। भारत को अब विश्र्व में मत्स्य का सातवां सबसे बड़ा उत्पादक देश तथा स्वदेशी मत्स्य का चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश होने का गौरव प्राप्त है। जहां तक राज्यों का सम्बन्ध है पश्चिम बंगाल सबसे बड़ा उत्पादक है जिसके बाद आन्ध्र प्रदेश और बिहार का स्थान आता है। ये तीनों राज्य मिलकर देश में समग्र अन्तर्देशीय मत्स्य उत्पादन में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान देते हैं जबकि मत्स्य उत्पादन में लगभग एक तिहाई हिस्सा अकेले पश्चिमी बंगाल का रहता है।
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====औद्योगिक प्रयोग====
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औद्योगिक विकास की एक बुनियादी जरूरत पानी की समुचित उपलब्धता है। दूसरे सिंचाई आयोग ने 1972 में अपनी रिपोर्ट में पूरे देश के लिए औद्योगिक प्रयोजन के निमित्त 50 बिलियन घनमीटर प्रावधान की सिफारिश की थी। तथापि हाल के एक आकलन से ऐसा पता चलता है कि 2000 के दौरान औद्योगिक प्रयोग के लिए पानी की जरूरत 30 बिलियन घनमीटर होगी जबकि यह जरूरत 2025 तक बढ़कर 120 बिलियन घन मीटर हो जाएगी।
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==जल का भू-आकृति-विज्ञान==
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====कृषि-जलवायु क्षेत्र====
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कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्रीकरण सम्बन्धी पूर्व अध्ययनों की जांच करने के बाद योजना आयोग ने यह सिफारिश की कि कृषि-आयोजना कृषि-जलवायु क्षेत्रों के आधार पर तैयार की जानी चाहिए। संसाधन विकास के लिए देश को कृषि-जलवायु विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान और वर्षा सहित मृदा कोटि, जलवायु और जल संसाधन उपलब्धता के आधार पर स्थूलतः निम्नानुसार पंद्रह कृषि जलवायु क्षेत्रों में बांटा गया हैः
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#  पश्चिमी हिमालयी प्रभाग
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#  पूर्वी हिमालयी प्रभाग
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#  निचला गांगेय मैदानी क्षेत्र
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#  मध्य गांगेय मैदानी क्षेत्र
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#  उच्च गांगेय मैदानी क्षेत्र
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#  गांगेय-पार मैदानी क्षेत्र
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#  पूर्वी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
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#  केन्द्रीय पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
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#  पश्चिमी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
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#  दक्षिणी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
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#  पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
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#  पश्चिमी तटीय मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
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#  गुजरात मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
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#  पश्चिमी मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
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#  द्वीप क्षेत्र
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====जल निकाय====
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देश के अन्तर्देशीय जल संसाधन निम्न रूप में वर्गीकृत हैं नदियां और नहरें, जलाशय, कुंड तथा तालाब; बीलें, आक्सबो झीलें, परित्यक्त जल; तथा खारा पानी। नदियों और नहरों से इतर सभीजल निकायों ने लगभग 7 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र घेर रखा है। जहां तक नदियों और नहरों का सवाल है, उत्तर प्रदेश का पहला स्थान है क्योंकि उसकी नदियों और नहरों की कुल लम्बाई 31.2 हजार किलोमीटर है जो कि देश के भीतर नदियों और नहरों की कुल लम्बाई का लगभग 17 प्रतिशत बैठती है। इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के बाद जम्मू तथा काश्मीर और मध्य प्रदेश का स्थान आता है। अन्तर्देशीय जल संसाधनों के शेष रूपों में कुण्डों और तालाबों ने सर्वाधिक क्षेत्र (2.9 मिलियन हैक्टेयर) घेर रखा है जिनके बाद जलाशयों (2.1 मिलियन हैक्टेयर) का स्थान आता है।
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कुण्डों और तालाबों के अधीन अधिकांश क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के दक्षिणी राज्यों में स्थित है। पश्चिम बंगाल, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सहित इन राज्यों में स्थित कुण्डों और तालाबों ने देश के भीतर कुण्डों और तालाबों के अधीन आने वाले क्षेत्र का लगभग 62 प्रतिशत हिस्सा घेर रखा है। जहां तक जलाशयों का सम्बन्ध है आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में जलाशयों के अधीन अधिक बड़ा क्षेत्र आता है। बीलों, आक्सबों झीलों और परित्यक्त जल के अधीन क्षेत्र में से 77 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और असम राज्यों में है। जहां तक खारे पानी का सम्बन्ध है, उड़ीसा का पहला स्थान है जिसके बाद गुजरात, केरल और पश्चिम बंगाल का स्थान आता है। इस प्रकार से अन्तर्देशीय जल संसाधनों के अधीन कुल क्षेत्र देश के भीतर विषमतापूर्ण ढंग से बंटा हुआ है तथा देश के कुल अन्तर्देशीय जल निकायों में आधे से अधिक निकाय उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल--इन पांच राज्यों में स्थित हैं।
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====जलवायु====
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उत्तर में हिमालय पर्वत की विशाल पर्वतमालाओं और उनके वुजारोधों तथा दक्षिण में महासागर की मौजूदगी भारत की जलवायु पर सक्रिय दो प्रमुख प्रभाव हैं। पहला प्रभाव केन्द्रीय एशिया से आने वाले शीत बयारों के प्रभाव को अवेद्य रूप से रोकता है और इस उप-महाद्वीप को उष्णकटिबन्धीय प्रकार की जलवायु के तत्व प्रदान करता है। दूसरा प्रभाव भारत पहुचंने वाली शीतल नमी-धारक बयारों का स्रोत है और वह महासागरीय प्रकृति की जलवायु के तत्व उपलब्ध कराता है।
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भारत की जलवायु में अत्यधिक विविधता और कोटियां हैं और यहां तक कि वैविध्यपूर्ण जलवायु स्थितियां कहीं अधिक संख्या में है। यहां की जलवायु महाद्वीपी से लेकर समुद्री, अत्यधिक गर्मी से लेकर अत्यधिक ठण्डी, अत्यधिक सूखे और नाममात्र की वर्षा से लेकर अत्यधिक नमी और भीषण वर्षा तक की विविधताएं लिए रहती है। इसलिए किसी विशेष प्रकार की जलवायु की मौजूदगी को लेकर किसी भीप्रकार के सामान्यीकरण से बचना जरूरी है। जलवायु स्थितियां देश में जल संसाधनों के प्रयोग को बहुत सीमा तक प्रभावित करती हैं।
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====तापमान====
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तापमान में भिन्नताएं भीभारतीय उप-महाद्वीप की विशेष पहचान है। नवम्बर से फरवरी तक के सर्दियों के महीनों के दौरान देश के अधिकांश हिस्से में महाद्वीपी हवाओं के कारण तापमान में दक्षिण से पश्चिम की तरफ गिरावट आ जाती है। दिसम्बर और जनवरी के सबसे अधिक ठण्डे महीनों के दौरान औसत अधिकतम तापमान महाद्वीप के कुछ हिस्सों में 29 डिग्री सेंटीग्रेड से लेकर उत्तर में लगभग 18 डिग्री सेंटीग्रेड तक जबकि औसत न्यूनतम तापमान सुदूर दक्षिण में लगभग 24 डिग्री से लेकर उत्तर में 5 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तक रहता है। मार्च से मई तक आमतौर पर तापमान में सतत और तेज वृद्धि होती है। अधिकतम तापमान उत्तर भारत में, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम के रेगिस्तानी क्षेत्र में जहां का अधिकतम तापमान 48 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़कर होता है, देखने में आता है। जून में दक्षिण पश्चिम मानसून के आगमन के साथ देश के केन्द्रीय हिस्सों में अधिकतम तापमान में तेजी से गिरावट आती है। देश के लगभग दो तिहाई हिस्से में, जिसमें अच्छी वर्षा होती है तापमान लगभग एक समान रहता है। अगस्त में जबकि मानसून सितम्बर में उत्तर से वापिस चला जाता है तापमान में उल्लेखनीय गिरावट आ जाती है। उत्तर-पश्चिम भारत में नवम्बर के महीने में औसत अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड तथा औसत न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेंटीग्रेड रहता है। सुदूर उत्तर में तापमान हिमांक से भीनीचे गिर जाता है।
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====नदियां====
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भारत में नदियों की भरमार है। 252.8 मिलियन हैक्टेयर (एमएचए) के आवाह क्षेत्र सहित 12 नदियां वृहद नदियों के रूप में वर्गीकृत हैं। वृहद नदियों में गंगा-ब्रह्मपुत्र मेघना प्रणाली, जिसका आवाह क्षेत्र लगभग 110 मिलियन हैक्टेयर है जो कि देश की सभीवृहद नदियों के आवाह क्षेत्र के 43 प्रतिशत से बढ़ कर है सबसे विशाल प्रणाली है। 10 मिलियन हैक्टेयर से अधिक के आवाह क्षेत्र सहित अन्य वृहद नदियां इस प्रकार हैं सिंधु (32.1 मिलियन हैक्टेयर), गोदावरी (31.3 मिलियन हैक्टेयर), कृष्णा (25.9 मिलियन हैक्टेयर) तथा महानदी (14.2 मिलियन हैक्टेयर)। मध्यम आकार की नदियों का आवाह क्षेत्र लगभग 25 मिलिनय हैक्टेयर है तथा 1.9 मिलियन हैक्टेयर के आवाह क्षेत्र सहित सुबर्णरेखा देश की मध्यम आकार की नदियों में सबसे विशाल नदी है।
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====भू-आकृति-विज्====
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भू-आकृति-विज्ञान की दृष्टि से भारत को सात सुपरिभाषित क्षेत्रों में बांटा जा सकता है जो इस प्रकार हैं:
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(i)  हिमालय की विशाल पर्वतमालाओं सहित, उत्तरी पर्वतमालाएं;<br />
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(ii)  विशाल मैदानी क्षेत्र जिसके आर-पार सिंधु और गंगा ब्रह्मपुत्र नदी प्रणालियां मौजूद हैं। इसका एक तिहाई भाग पश्चिमी राजस्थान के सूखे-क्षेत्र में पड़ता है, शेष इलाका अधिकाशंतः उर्वर मैदानी क्षेत्र है;<br />
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(iii)  केन्द्रीय उच्च भूमि जिसमें पश्चिम में अरावली पर्वतमालाओं से शुरू होकर पूर्व-पश्चिम दिशा में जाती हुई और पूर्व में एक गहरे कगार पर समाप्त होती पर्वतमालाएं शामिल हैं। यह क्षेत्र विशाल मैदानी-क्षेत्र तथा दक्षिणी पठार के बीच स्थित है;<br />
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(iv)  पश्चिमी घाटों, पूर्वी घाटों, उत्तर दक्षिणी पठार, दक्षिण दक्खिनी पठार और पूर्वी पठार सहित प्रायद्वीपीय पठार;<br />
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(v)  पूर्वी घाटों से पूर्व में स्थित बंगाल की खाड़ी की सीमा पर लगミग 100-130 किलोमीटर चौड़ी भू-पट्टी के रूप में पूर्वी तट;<br />
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(vi)  अरब सागर की सीमा पर तथा पश्चिमी घाटों के पश्चिम में स्थित लगभग 10-25 किलोमीटर चौड़ी संकरी भू-पट्टी के रूप में पश्चिमी तट; <br />
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(vii) अरब सागर में लक्षद्वीप के प्रवालद्वीप तथा बंगाल की खाड़ी में अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूहों सहित द्वीपसमूह।<br />
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====वर्षा====
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भारत में वर्षा दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी मानसून की घटती-बढ़ती मात्रा, उथले चक्रवातीय अवनमन और विक्षोभ तथा तेज स्थानीय तूफानों पर निर्भर करती है जो ऐसे क्षेत्रों का निर्माण करते हैं जिनमें समुद्र की ठंडी नमीदार बयार पृथ्वी से उठने वाली गरम सूखी बयार से मिलती है और तूफानी स्थिति को प्राप्त होती है। भारत में (तमिलनाडु को छोड़कर) अधिकांश वर्षा जून से सितम्बर के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण होती है; तमिलनाडु में वर्षा अक्टूबर और नवम्बर के दौरान उत्तर-पूर्व मानसून से प्रभावित होती है। भारत में वर्षा की मात्रा अत्यधिक भन्निता, विषमतापूर्ण मौसमी वितरण और उससे भीअधिक विषमतापूर्ण भौगोलिक वितरण तथा अक्सर सामान्य से कमी-अधिकता की परिचायक है। भारत में आमतौर पर 78 डिग्री रेखांश के पूर्व में स्थित क्षेत्रों में 1000 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होती है। वर्षा की यह मात्रा समूचे पश्चिमी तट और पश्चिमी घाटों के साथ-साथ तथा अधिकांश असम और पश्चिम बंगाल के उपहिमालयी क्षेत्र में बढ़कर 2500 मिलीमीटर तक पहुंच जाती है। पोरबन्दर से दिल्ली को जोड़ने वाली और उसके बाद फिरोजपुर तक जाने वाली रेखा के पश्चिम में वर्षा की मात्रा 500 मिलीमीटर से तेजी से घटकर पश्चिमी छोर तक 150 मिलीमीटर रह जाती है। इस प्रायद्वीप में ऐसे विशाल क्षेत्र हैं जहां 600 मिलीमीटर से कम और ऐसी बस्तियां हैं जहां 500 मिलीमीटर से भीकम बारिश होती है। इसलिए अन्य तकनीकों के प्रयोग के जरिए देश के भीतर लगाए गए स्थानीय वर्षा के अनुमान, विशेष रूप से भारत जैसे विशाल देश में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
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====वाष्पीकरण====
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वाष्पीकरण की दरें मौसमों के बदलाव की दरों के बहुत निकट होती हैं और वे अप्रैल तथा मई के गर्मियों के महीनों में अपने शीर्षस्थ स्तर तक पहुंच जाती हैं तथा इस अवधि के दौरान देश के केन्द्रीय हिस्से वाष्पीकरण की उच्चतम दरों का परिचय देते हैं। मानसून के आगमन के साथ वाष्पीकरण की दर में भारी गिरावट आ जाती है। देश के अधिकांश भागों में वार्षिक संभावित वाष्पीकरण 150 से 250 सेंटीमीटर के भीतर रहता है। प्रायद्वीप में मासिक संभावित वाष्पीकरण जो कि दिसम्बर में 15 सेंटीमीटर होता है, मई में बढ़कर 40 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। पूर्वोत्तर में यह दर दिसम्बर में 6 सेंटीमीटर होती है जो कि मई में बढ़कर 20 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। पश्चिमी राजस्थान में वाष्पीकरण जून में बढ़कर 40 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। मानसून के आगमन के साथ संभावित वाष्पीकरण की दर आमतौर पर सारे देश में गिर जाती है।
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====सामान्य====
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भारत अनेक नदियों और पहाड़ों का देश है। लगभग 329 मिलियन हैक्टेयर के इसके भौगोलिक क्षेत्र में अनेक छोटी-बड़ी नदियां प्रवाहित हो रही हैं जिसमें से कुछ नदियां विश्र्व की सर्वाधिक विशाल नदियों के रूप में गिनी जाती हैं। भारत की सांस्कृतिक उन्नति, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में नदियों और पहाड़ों का बहुत अधिक महत्व है। भारत एक संघीय तंत्र सहित राज्यों का एक संघ है। राजनीतिक दृष्टि से देश 28 राज्यों और 7 संघशासित क्षेत्रों में बंटा हुआ है। भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अर्थात 1,027,015,247 (2001 की जनगणना) आबादी ग्रामीण और कृषि-आधारित है और उसकी खुशहाली का स्रोत देश की नदियां हैं।
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==भूजल==
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====भारत का भूजलवैज्ञानिक ढांचा====
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# भारत का भूजलवैज्ञानिकी ढांचा
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उल्लेखनीय अश्मवैज्ञानिकी एवं कालक्रम विविधताओं सहित विविध भूवैज्ञानिकी संरचनाओं, जटिल विवर्तनिक संरचना, जलवायुवैज्ञानिकी असामनताओं तथा विभिन्न जल रासायनिक परिस्थितियों वाले भारतीय उपमहाद्वीप में भूजल की विशिष्ठता काफी जटिल है । पिछले कुछ वर्षों के दौरान किए गए अध्ययनों से यह ज्ञात होता है कि जलोढ़/ कोमल चट्टानों में जलभृत्त समूह सतही बेसिन सीमा से भी परे है । भूजल के विभिन्न द्रवचालित विशिष्टताओं के आधार पर शैल संरचनाओं के मुख्यत: दो समूहों को अभिज्ञात किया गया है सरंध्र संरचनाएं एवं विदारित सरंचनाएं ।
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; सरंध्र संरचनाएं:
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सरंध्र सरंचनाओं को पुन: असंपिंडित एवं अर्ध्दसंपिंडित संरचनाओं के रूप में विभाजित किया जाता है ।
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;असंपिंडित संरचनाएं
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नदी बेसिन, तटीय एवं डेल्टा भूभाग के जलोढ़क अवसादों से आच्छादित क्षेत्र असंपिंडित संरचनाओं का निर्माण करती है । वस्तुत: बड़े पैमाने पर एवं गहन विकास के लिए ये अत्यन्त महत्वपूर्ण भूजल जलाशय हैं । सिन्धु-गंगा- ब्रह्मपुत्र बेसिन में भूजल वैज्ञानिकी वातावरण एवं भूजल क्षेत्र परिस्थिति से मीठे भूजल की बहुलता वाले संभावित जलभृत्तों की मौजुदगी का संकेत मिलता है । अत्यधिक वर्षा से लाभान्वित होने तथा संरध्र अवसादों की मोटी परत से आच्छादित होने के कारण प्रत्येक वर्ष इस भूजल जलाशयों का पुनर्भरण होता रहता है तथा इनका अत्यधिक उपयोग होता है । इन क्षेत्रों में जल स्तर उतार-चढ़ाव क्षेत्र (सक्रिय भूजल संसाधन) में उपलब्ध वार्षिक पुनर्भरणीय भूजल संसाधनों के अतिरिक्त गहरे परिरूध्द जलभृतों के साथ-साथ उच्चावचन क्षेत्र के नीचे गहरे निष्क्रिम पुनर्भरण क्षेत्र में विशाल भूजल रिजर्व मौजूद हैं जो कि प्राय: अनन्वेषित हैं । अधिक भूजल का विकास मूलत: डगवेल, डगवेल सहित बोरवेल तथा कैविटी वैल द्वारा किया जाता है तथापि पिछले कुछ दशकों के दौरान हजारों नलकूपों का भी निर्माण किया गया है ।
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; अर्द्ध-संपिंडित संरचनाएं
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अर्द्ध-संपिंडित संरचनाएं साधारणत: संकरी घाटियों या संरचनात्मक रूप से भ्रंश बेसिन में पाए जाते हैं । गोंडवाना, लाठी, टिपम्स, कुट्टालोर बलुआ पत्थर और इनके समरूप सुप्रवाही कुओं का निर्माण करती है । पूर्वोत्तर भारत के चुनिंदा भूभागों में ये जलधारी संरचनाएं काफी उत्पादक  हैं । ऊपरी गोंडवाना जो सामान्यत: बालुकामय है, बहुलोत्पादक जलभृत्त बनाता है।
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# विदारित संरचनाएं (संपिंडित संरचनाएं)
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संपिंडित संरचनाएं देश के लगभग दो-तिहाई भाग में उपलब्ध हैं । र्स्फोटगर्ती ज्वालामुखीय शैल के अतिरिक्त संपिंडित संरचनाओं में प्राथमिक सरंध्रता नगण्य होती है । भूजलवैज्ञानिक दृष्टि से विदारित संरचनाओं को मुख्यत: चार प्रकारों में विभाजित किया जाता है, नामत: ज्वालामुखीय एवं कार्बोनेट शैल के अतिरिक्त आग्नेय एवं कायांतरित शैल, ज्वालामुखी शैल, संपिंडित अवसादीय शैल तथा कार्बोनट शैल ।
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; ज्वालामुखीय एवं कार्बोनेट शैलों के अतिरिक्त आग्नेय एवं कायांतरी शैल
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ग्रेनाइट, नीस, चार्नोकाइट, खोंडालाइट, क्वार्टजाइट, शिस्ट तथा फाइलाइट, स्लेट इत्यादि सामान्य शैल के प्रकार हैं । इन शैलों में प्राथमिक सांध्रता नगण्य होती है परन्तु विभंजन एवं अपक्षयण के कारण इनमें द्वितीयक सांध्रता एवं पारगम्यता का विकास होता है । भूजल उत्पादन क्षमता भी शैल के प्रकार तथा  कायांतरण श्रेणी पर निर्भर करता है ।
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; ज्वालामुखीय शैल
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ज्वालामुखीय शैल प्रधानत: दक्कन पठार का बसाल्ट लावा प्रवाह है । विभिन्न प्रवाह इकाईयों की विषम जलधारण विशिष्टताएं दक्कनी ट्रैप में भूजल उपलब्धता को प्रभावित करती हैं । प्राथमिक एवं द्वितीयक रंध्राकाश की मौजुदगी के अधीन दक्कन ट्रैप में साधारणत: अल्प से मध्यम पारगम्यता है ।
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; कार्बोनेट शैल के अतिरिक्त संपिंडित अवसादी शैल
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संपिंडित अवसादी शैल कुडप्पा, विंध्य और इसके समतुल्य में पाए जाते हैं । इन संरचनाओं में संगुटिकाश्म, बलुआ पत्थर, स्लेट और क्वार्टजाइट शामिल हैं । संस्तरण तल, जोड़, संस्पर्श क्षेत्र एवं विभंगों की उपस्थिति भूजल की उपलब्धता, गतिविधि एवं उत्पादन क्षमता को प्रभावित करती है ।
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; कोर्बोनेट शैल
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कुडप्पा, विघ्य और बिजावर शैल समूह में संगमरमर और डोलोमाइट के अतिरिक्त चूना पत्थर महत्वपूर्ण कार्बोनेट शैल हैं । कार्बोनेट शैलों में जल संचरण से घोल गुहिका का सृजन होता है जिससे जलभृत्तों को पारगम्यता में बढ़ोतरी होती है । इसके परिणामस्वरूप कम दूरी पर अत्यधिक विषय पारगम्यता पाई जाती है ।
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====देश का भूजल संसाधन====
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मीठे जल के लिए देश के भूजल संसाधन का आकलन जीईसी-97 के दिशा निर्देश और सिफारिशों के आधार पर किया गया है । देश के कुल वार्षिक पुर्नभरणीय भूजल संसाधन का आकलन 433 बिलियन घन मीटर (बीसीएम) के रूप में किया गया है । प्राकृतिक निस्सरण के रूप में 34 बी सी एम को पृथक करते हुए समस्त देश के लिए शुध्द वार्षिक भूजल उपलब्धता 399 बी सी एम है । वार्षिक भूजल ड्राफ्ट 231 बी सीएम है जिसमें से 213 बीसीएम सिंचाई उपयोग तथा 18 बीसीएम घरेलू एवं औद्योगिक उपयोगों के लिए है।
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====भूजल विकास की स्थिति====
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देश के भूजल विकास का चरण 58% है । देश के विभिन्न भागों में भूजल का विकास एक समान नहीं है । देश के कुछ भागों में भूजल के अत्यधिक गहन विकास के परिणामस्वरूप अतिदोहन हुआ है जिस कारण कई क्षेत्रों में भूजल स्तर में गिरावट आई है तथा तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल का अन्त:प्रवेश हुआ है । कुल 5723 आकलन प्रशासनिक इकाईयों (ब्लॉक/ तालुक/ मण्डल/ जल ग्रहण क्षेत्र) में से 839 इकाई 'अतिदोहित,'  226 गंभीर, 550 अर्ध्दगंभीर, 4078 इकाई 'सुरक्षित' तथा 30 इकाई 'लवणीय' है ।
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====भूजल क्षेत्र की मानीटरिंग====
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भूजल क्षेत्र की मानीटरिंग का मुख्य उद्देश्य प्रदर्शक प्रतिचयन के माध्यम से भूजल स्तर एवं गुणवत्ता के संबंध में सूचना एकत्र करना है । बोर्ड पूरे देश में स्थित 15640 भूजल प्रेक्षण कूपों के नेटवर्क के माध्यम से भूजल स्तर की नियमित मानीटरिंग करता है । वर्ष में चार बार अर्थात जनवरी, अप्रैल/ मई, अगस्त और नवम्बर माह में भूजल स्तर मापा जाता है तथा वर्ष में एक बार अर्थात अप्रैल/ मई के दौरान भूजल गुणवत्ता नमुने एकत्र किए जाते हैं ।
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;जनवरी, 2007 के दौरान भारत में भूजल स्तर परिदृश्य
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जनवरी, 2007 में भारत के जल स्तर गहराई मानचित्र के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि: उपहिमालयी क्षेत्र, गंगा नदी की उत्तरी ओर जल स्तर की गहराई साधारणत: 2-5 मीटर सतह के नीचे (एमबीजीएल) के मध्य है । कुछ स्थानों में 2 मीटर से कम उथला जल स्तर भी देखा गया है । देश के पूर्वी भाग में ब्रह्मपुत्र घाटी में इक्का दुक्का पाकेटों के अलावा जहां जल स्तर की गहराई 2 एम बी जी एल से कम है साधारणत: जल स्तर की गहराई 2-5 एमबीजीएल के मध्य है । हालांकि ऊपरी असम में इक्का दुक्का गहरे जल स्तर वाले पाकेटों में 5-10 एम बी जी एल की गहराई भी पाई गई है । सिंधु बेसिन के अधिकांश भागों में जल स्तर गहराई साधारणत: 10-20 एमबीजीएल के मध्य है । गुजरात और राजस्थान को शामिल करते हुए देश के पश्चिमी भाग में 10-20 एमबीजीएल के मध्य अधिक गहरा जल स्तर पाया गया है । राजस्थान के जोधपुर, चुरू, जालोर, नागौर, झुनझुनु तथा जयपुर जिलों में 40 मी. से गहरी जल स्तर  पाई गई । पश्चिमी तट पर जल स्तर सामान्यत: 5-10 मी. के मध्य है । महाराष्ट्र के पश्चिमी भाग में 5 मी. से कम जल स्तर रिकार्ड किया गया । पूर्वी तट अर्थात तटीय आंध्रप्रदेश तथा उड़ीसा में सामान्यत: जल स्तर 2-5 मी. के मध्य है । हालांकि 2 मी. से कम जल स्तर वाले इक्का दुक्का पाकेट भी रिकार्ड किए गए । गंगा बेसिन के पूर्वी भाग में जल स्तर सामान्यत: 2-5 एमबीजीएल के मध्य है । पश्चिम बंगाल के पूर्वी भाग में 5-10 एमबीजीएल के मध्य जल स्तर पाया गया ।  मध्य भारत में इक्का दुक्का पाकेटों जहां जल स्तर 10 एम बी जी एल से अधिक है सामान्यत: जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के मध्य है । देश के प्रायद्वीपीय भाग में एकाध पाकेटों में जहां जल स्तर 10-20 एमबीजीएल है सामान्यत: जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के मध्य है । कुछ पाकेटों में 20-40 मी. तथा 40 मी. से अधिक गहरे जल स्तर भी पाए गए हैं ।
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इसी मौसम (जनवरी, 2006) में पिछले वर्ष के जलस्तर की तुलना से यह ज्ञात होता है कि पूरे देश में जल स्तर के मिले जुले रूझान हैं । जल स्तर में गिरावट मुख्यत: आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य में देखी गई । आंध्रप्रदेश में राज्य के बड़े हिस्से में जल स्तर में व्यापक गिरावट देखी गई । 25% से अधिक मानीटरिंग कुओं में 2 मी. से अधिक जल स्तर में गिरावट पाई गई ।  2-4 मीटर की गिरावट तेलगांना क्षेत्र में खम्मम, करीमगंज, रंगारेङ्डी नालगोंडा तथा महबूब नगर में, तटीय क्षेत्र के प्रकासम और नेल्लोर जिलों में तथा रायल सीमा जिले के भागों में देखी गई । कर्नाटक में 2 मी. से अधिक जल स्तर में गिरावट रायचुर, बेल्लारी, चित्रदुर्ग, चिकमगलूर, माण्डया, कोलार, सिमोगा, हवेरी गदग, कोपल, गुलबर्ग, मैसूर, बंगलौर शहरी तथा तुमकूर जिलां में देखी गई । तमिलनाडु में 2-4 एमबीजीएल के मध्य जल स्तर में गिरावट 10% कुओं में पाई गई तथा कन्याकुमारी, नागपट्टनम, नीलगिरी और तुतीकोरीन जिलों के अलावा सभी जिलों में गिरावट का रूझान रहा ।
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जनवरी, 2007 और औसत जल स्तर (1997-2006) के बीच जल स्तर में उतार-चढाव से यह ज्ञात होता है कि पंजाब, हरियाणा, चण्डीगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग तथा पूर्वी राजस्थान में 20% से अधिक मानीटरिंग कुओं में जल स्तर में 2 मी. से अधिक की गिरावट देखी गई । पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय के भागों, त्रिपुरा और झारखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में जल स्तर में 2 मी. से अधिक की बढ़ोतरी हुई । आंध्रप्रदेश में अदिलाबाद, करीमनगर, मेडक, नालगोंडा और महबूबनगर जिलों तथा पश्चिमी गोदावरी, कुडुप्पा और चित्तूर जिलों के छोटे छिटपुट क्षेत्रों में जलस्तर में 4 मी. से अधिक की बढ़ोतरी देखी गई । उत्तरप्रदेश में अलीगढ़, भरूच, बलरामपुर, बिजनौर, चन्दौली, झाँसी, महाराजगंज जिलों के भागों में जल स्तर में 2 मी. तक की बढ़ोतरी देखी गई । आगरा, इलाहाबाद, बांदा, झांसी, कानपुर, मथुरा, प्रतापगढ़, मुरादाबाद और वाराणसी जिलों में 4 मी. से अधिक की गिरावट पाई गई ।
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====भूजल प्रबंधन अध्ययन====
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भूजल संसाधन सक्रिय अवस्था में पाया जाता है अत: इसमें आवधिक परिवर्तन होते रहते हैं । भूजल प्रबंधन अध्ययन (जीडब्ल्यूएमएस) पहले किए गए अध्ययनों के संदर्भ में गुणवत्ता और मात्रा के संबंध में भूजल प्राप्ति, उपलब्धता और उपयोग के परिदृश्य को अद्यतन करने के लिए अनिवार्य है । जी डब्ल्यू एम.एस. के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:-
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1.      गुणवत्ता और मात्रा के संबंध में भूजल क्षेत्र की अद्यतन रूपरेखा तैयार करना ।
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2.    भूजल परिदृश्य को प्रभावित करने वाले घटकों का निर्धारण करना ।
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3.    भूजल से संबंधित समस्याओं और विषयों की पहचान करना तथा कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त उद्देश्य आधारित प्रबंधन कार्यनीति उपलब्ध कराना ।
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4.    भूजल क्षेत्र पर मौजूदा डाटाबेस को अद्यतन करना ।
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5.    भूजल संभावित क्षेत्रों को रेखांकित करना ।
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6.    विशिष्ट समस्याओं के लिए उपयुक्त अनुवर्ती कार्रवाई/ उपचारी उपाय/ प्रशासनिक एवं तकनीकी उपायों संबंधी सुझाव देना ।
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'अतिदोहित' और 'गंभीर क्षेत्र,' कठोर चट्टानी क्षेत्र, तटीय क्षेत्र,जनजातीय एवं सूखा प्रवण क्षेत्र, प्राकृतिक संदुषित क्षेत्र, शहरी क्षेत्र तथा जलग्रसित आदि क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जाती है ।
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====भूजल अन्वेषण====
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वेधन की सहायता से भूजल अन्वेंषण, बोर्ड की प्रमुख गतिविधियों में से एक है, इसका उद्देश्य विभिन्न भूजलवैज्ञानिक परिस्थितियों में जलभृत्तों की खोज करना तथा जलीय पैरामीटर का पता लगाना है । वर्ष 1954 के दौरान बड़े पैमाने पर भूजल के लिए उपसतही अन्वेषण कार्यक्रम की शुरूआत की गई थी । आरंभ के वर्षों में समन्वेषी वेधन गतिविधियाँ मुख्य नदी बेसिन के जलोढ़ भूभाग तथा हिमालयी गिरी पद के उपपर्वतीय बोल्डर भूभाग तक ही सीमित था । अस्सी के मध्य में केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने 26 नए डीटीएच वेधन रिगों को शामिल किया जिससे कठोर चट्टानी क्षेत्र में वेधन को नई गति प्राप्त हुई । नब्बे के दशक में समन्वेषी वेधन कार्यक्रम कठोर चट्टानी क्षेत्र को मुख्य लक्ष्य बनाया गया । नब्बे के पूर्वार्ध्द में एक उल्लेखनीय विकास यह हुआ कि भारत में ओपन होल ड्रिलिंग प्रौद्योगिकी का आरंभ किया गया। केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा देश भर में 27,500 से अधिक कुओं की खुदाई की गई  है । भ्ूजल अन्वेषण कार्यक्रम के तहत जनजातीय एवं सूखा प्रवण क्षेत्रों सहित देश में जल की कमी वाले क्षेत्रों में उच्च उत्पादन क्षमता वाले कुओं की खुदाई की गई । इनमें से अधिकांश कुओं को लोक जलापूर्ति के लिए संबंधित राज्य सरकारों को सौंप दिया गया है । वर्ष 1993 के दौरान लातुर भूकंप, 2001 के दौरान भुज भुकंप, 2000 के दौरान उड़ीसा में सुपर साइक्लोन तथा 2004 के दौरान सुनामी द्वारा प्रभावित तमिलनाडु और केरल तथा अंडमान और निकोबार के तटीय क्षेत्र में जल आपूर्ति के लिए नलकूपों के निर्माण द्वारा बोर्ड ने आपदा प्रशमन में अपनी भूमिका निभाई ।
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====कृत्रिम पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन अध्ययन====
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लगातार घटते  भूजल संसाधनों के संवर्धन के लिए यह आवश्यक है कि अधिशेष मानसून अपवाह जो बहकर समुद्र में चला जाता है, का संचयन और पुनर्भरण किया जाए ताकि भूजल संसाधनों का संवर्धन हो सके । व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आकलन 214 बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से 160 बीसीएम की पुन: प्राप्ति हो सकती है । केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने देश में भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए एक संकल्पनात्मक योजना तैयार की है । देश के 3,28,7263 वर्ग किलोमीटर के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल  में 4,48,760 वर्ग किमी. क्षेत्रफल को कृत्रिम पुनर्भरण के लिए पहचान की गई है । पुनर्भरण किए जाने वाले कुल अधिशेष मानसून अपवाह की मात्रा 36.4 बीसीएम आंकी गई है।
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केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने एक मैनुअल और तदुपरान्त भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण पर एक निर्देशिका तैयार की है जिसमें स्थल के चयन संबंधी अनुसंधान तकनीक, कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के डिजाइन, पुनर्भरण सुविधाओं का आर्थिक मूल्यांकन एवं मानीटरिंग संबंधी दिशानिर्देशों को शामिल किया गया है । यह निर्देशिका देश के विभिन्न भागों में भूजल के संवंर्धन के लिए पुनर्भरण स्कीमों की आयोजना एवं कार्यान्वयन में लगे राज्यों/ संघ शासित क्षेत्रों के लिए बहुउपयोगी है।
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नवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 'भूजल के पुनर्भरण पर अध्ययन' के संबंध में केन्द्रीय क्षेत्र की एक स्कीम का आरंभ किया गया जिसके अन्तर्गत 27 राज्यों/ संघ शासित क्षेत्रों में 165 पुनर्भरण परियोजनाओं का कार्यान्वयन किया गया । मानसून 2003 से पहले पूरी हो चुकी पुनर्भरण परियोजनाओं के प्रभाव आकलन से जल स्तर में बढ़ोतरी और डगवेलों/ नलकूपों के स्थायित्व, मृदा कटाव में गिरावट तथा फसल उत्पादन में बढ़ोतरी के कारण लाभार्थी क्षेत्र के किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में प्रगति हुई है।
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दसवीं योजना के दौरान वर्ष 2006-07 के दौरान केंद्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के 8 जिलों में 5.95 करोड़ रूपये की कुल लागत से भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन संबंधी प्रदर्शनात्मक अध्ययन आरंभ किया गया है ।  200 में से 189 कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं का निर्माण पूरा हो चुका है, शेष निर्माणाधीन हैं । केंद्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा पूर्ण की गई पुनर्भरण परियोजनाओं का प्रभाव आकलन अध्ययन जारी है ।
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ग्यारहवीं योजना में प्रदर्शनात्मक पुनर्भरण परियोजना केंद्रीय भूमि जल बोर्ड तथा राज्य की एजेंसियों के समन्वय से व्यवहार्य क्षेत्रों, संरचनाओं और अन्य कार्य-रीति के लिए स्थलों का अध्ययन किया जा रहा है ।      तमिलनाडु, पंजाब, केरल, आंध्रप्रदेश और अरूणाचल प्रदेश से प्राप्त कृत्रिम पुनर्भरण परियोजनाओं के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट विचाराधीन है ।
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वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किए गए हैं:-
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i)  अधिसूचित क्षेत्रों में:  दक्षिण और दक्षिण पश्चिम जिलों, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली; फरीदाबाद नगर निगम और बल्लभगढ़, फरीदाबाद जिला, हरियाणा; गाजियाबाद नगर निगम, गाजियाबाद जिला, उत्तरप्रदेश; गुड़गांव शहर और गुड़गांव जिले के समीपवर्ती औद्योगिक क्षेत्रों; हरियाणा के अधिसूचित क्षेत्रों में स्थित ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी, संस्थानों/स्कूलों,होटलों, औद्योगिक संस्थानों और फार्म हाउसों को छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली अपनाने के आदेश दिए गए हैं।
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ii) गैर अधिसूचित क्षेत्रों में:-    राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के ऐसे क्षेत्रों जहां पर भूजल स्तर 8 मी. से अधिक है और भूजल का दोहन किया जा रहा है, यहाँ स्थित सभी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी  को छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली को अपनाने के आदेश दिए गए हैं ।
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iii) केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण और जल संसाधन मंत्रालय ने सभी राज्यों और संघ राज्यों के मुख्य सचिवों से भूजल संसाधनों के संवर्धन के उद्देश्य से भवन उपनियमों में छत के वर्षा जल संचयन के प्रावधान को शामिल करने का अनुरोध किया गया है ।
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iv) विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालयों जैसे रक्षा मंत्रालय, संचार, रेलवे, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को भी भूजल संसाधनों के संवर्धन के उद्देश्य से अपने भवनों में छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली को अपनाने का अनुरोध किया गया है ।
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v)  दिल्ली सहित विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा छत के वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाने के लिए विनियामक उपायों (अनुबंध-III से लिंक) को लागू किया/ प्रस्तावित किया है ।
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;जागरूकता अभियान:   
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भूजल संचयन उपायों के संबंध में केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण ने जागरूकता अभियान आरंभ किया है । इन गतिविधियों का सारांश निम्नलिखित है:-
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i)  जन जागरूकता:  केन्द्र/राज्य/गैर सरकारी संगठनों, स्वायत्त संगठनों, आवास कल्याण संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों, उद्योगों और व्यक्तियों को शामिल करते हुए देश भर में वर्षा जल संचयन एवं भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण पर जन जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर रहा है ।
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ii)  वर्षा जल संचयन पर प्रशिक्षण:  विभिन्न क्षेत्रों और विविध भूजलवैज्ञानिक परिस्थितियों में भूजल के संवर्धन के लिए वर्षा जल संचयन संरचनाओं की डिजाइनिंग के वास्ते क्षमता निर्माण उपाय के रूप में संसाधन घटकों के उत्सर्जन के उद्देश्य से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर रहा है ।
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iii)  वर्षा जल संचयन के लिए तकनीकी दिशानिर्देश: देश के विभिन्न भागों में 1800 से अधिक स्थलों पर वर्षा जल संचयन संरचनाओं के लिए तकनीकी दिशानिर्देश और डिजाईन उपलब्ध कराए गए ।
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iv)  जल संचयन अभियान: फ्रेश वाटर इयर के दौरान विभिन्न समूह वर्गों जैसे युवा और बच्चों, महिलाओं, किसानों और ग्रामीणों,नीति निर्माताओं को लक्ष्य में रखकर जल संचयन अभियान की शुरूआत की गई । इस उद्देश्य के लिए विभिन्न प्रचार उपायों जैसे प्रिंट मीडिया, दूरदर्शन पर स्पाट का प्रसारण, रेडियो पर संदेश प्रसारण, सेमिनार, कार्यशाला, सम्मेलन आदि का आयोजन किया गया । डाक विभाग के माध्यम से हिन्दी और अंग्रेजी के मेघदूत पोस्टकार्ड के मुद्रण, डाक वाहनों, डाक पेटी पर स्लोगन द्वारा भी जागरूकता बढ़ाई गई ।
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v)  फिल्मों का निर्माण: शहरी क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन, ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन, भूजल प्रदूषण आदि पर फिल्मों का निर्माण किया गया और विभिन्न जन जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान इनका प्रदर्शन किया गया ।
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vi)  प्रदर्शनियों के माध्यम से जागरूकता: भूजल प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर कार्य माडल के प्रदर्शन और प्रर्दशनियों एवं महत्वपूर्ण अवसरों पर स्टॉल लगाकर जागरूकता का सृजन किया गया ।
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==जल संबंधी समस्याएँ==
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====सूखा====
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=====देश में सूखा-प्रवण क्षेत्र=====
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सिंचाई आयोग १९७२ ने ८ राज्यों में स्थित ३२६ तालुकों को शामिल करते हुए ६७ सूखा-प्रवण क्षेत्र अभिज्ञात किए हैं जिनका क्षेत्र ४९.७३ मिलियन हैक्टेयर है। तदनन्तर राष्ट्रीय कृषि आयोग ने किंचित भिन्न मानदण्ड अपनाते हुए कुछ और सूखा-प्रवण क्षेत्र अभिज्ञात किए। सीडब्लयूसी के १९७८ में स्थापित भूतपूर्व सूखाक्षेत्र अध्ययन और अन्वेषण संगठन ने और आगे अध्ययन करने के उद्देश्य से सिंचाई आयोग और साथ ही राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा अभिज्ञात जिलों की सूची पर विचार करने के बाद ९९ जिलों के साथ शुरूआत की।
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=====सूखे के अभिज्ञान=====
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अध्ययन के प्रयोजन के लिए केन्द्रीय जल आयोग ने उसी मानदण्ड का पालन किया जोकि सिंचाई आयोग १९७२ द्वारा अपनाया गया था अर्थात सूखा किसी ऐसे क्षेत्र में होने वाली स्थिति होती है। जहां जांच किए गए वर्षों के २०% वर्षों में वार्षिक वर्षा सामान्य के ७५% से कम होती है। खेती का ३०% से कम क्षेत्र सिंचित होता है। केन्द्रीय जल आयोग ने सूखा अभिज्ञान अध्ययन के लिए जिलों की तुलना में छोटी इकाई अर्थात तालुका अपनाया और इस प्रकार ९९ जिलों में स्थित कुल ७२५ तालुकों में से ३१५ अभिज्ञात किए गए। तदनुसार ९९ जिलों के १०८ मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में से ७४ जिलों में फैला हुआ केवल ५१.१२ मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र सूखा-प्रभावित क्षेत्र माना गया है। इस प्रकार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (३२९ मिलियन हैक्टेयर) के मुकाबले लगभग १/६ भाग सूखा-प्रवण क्षेत्र है।
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=====सूखा प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई की स्थिति=====
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सिंचाई, सबसे अधिक प्रभावी सूखा बचावकारी तंत्र तथा कृषि उत्पादन में काफी मात्रा में स्थिरता लाने वाला एकमात्र सबसे बड़ा तत्व सिद्ध हुआ है। सूखा प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई की राज्य-वार स्थिति तालिका 1 में दी गई है। यह देखा जा सकता है कि सूखा-प्रवण जिलों का कुल भौगोलिक क्षेत्र १०८ मिलियन हैक्टेयर है जिसमें से ८१ मिलियन हैक्टेयर (७५%) कृष्य, सकल बुवाई क्षेत्र ६१.९ मिलियन हैक्टेयर (५७.४%) तथा सकल सिंचित क्षेत्र १४.३ मिलियन हैक्टेयर है। सूखा-प्रवण जिलों में फसल के अधीन कुल क्षेत्र में से लगभग २३.२३% क्षेत्र सिंचित है जबकि इस आशय का अखिल भारतीय औसत ३०.१५% है।
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==राष्ट्रीय जल पुरस्कार==
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;भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कार एवं राष्ट्रीय जल पुरस्कार
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22.07.2006 को आयोजित भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण संबंधी सलाहकार परिषद की पहली बैठक में की गई सिफारिश के अनुसार, जल संसाधन मंत्रालय ने पंजीकृत गैर सरकारी संगठनों, ग्राम पंचायतों एवं शहरी स्थानीय निकायों (1 लाख तक की जनसंख्या के लिए) द्वारा वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण के माध्यम से भूमि जल संवर्धन की नूतन पध्दतियों को अपनाने के लिए वर्ष 2007 के दौरान एक राष्ट्रीय पुरस्कार सहित 18 भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कारों की शुरूआत की थी । 11.09.2008 को आयोजित भूजल सम्मेलन के समापन सत्र के दौरान भारत की महामहिम राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 2007 के प्रथम भूजल पुरस्कार दिए गए । राष्ट्रीय जल पुरस्कार महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बजार ग्राम पंचायत को दिया गया तथा भूमि जल संवर्धन पुरस्कार 14 ग्राम पंचायतों/गैर सरकारी संगठनों/स्थानीय निकायों को दिए गए ।
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उपरोक्त पुरस्कारों के क्षेत्र को व्यापक करने के लिए दिशानिर्देश संशोधित किए गए हैं और किसान सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम का कार्यान्वयन कर रहे संस्थानों, कारपोरेट क्षेत्र तथा व्यक्ति विशेष/संस्थानाें की 3 और श्रेणियां शामिल की गई हैं । संशोधित दिशानिर्देशों के अनुसार, वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण, जल उपयोग दक्षता को प्रोत्साहित कर, पुन:चक्रण एवं पुन:उपयोग द्वारा भूजल संवर्धन की नूतन पध्दतियां अपनाने तथा दावाधारकों के बीच भूजल संसाधन और पर्याप्त क्षमता के विकास को बनाए रखने के लिए लक्षित क्षेत्रों में लोगों की भागीदारी के माध्यम से जागरूकता पैदा करने के लिए गैर सरकारी संगठनों (एनजीओएस) /ग्राम पंचायतों/शहरी स्थानीय निकायों (1 लाख तक की जनसंख्या के लिए)/संस्थानों/निगमित क्षेत्र और व्यक्ति विशेष को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कार और राष्ट्रीय जल पुरस्कार शुरू किए गए हैं।
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वे श्रेणियां जिनके लिए पुरस्कार शुरू किए गए हैं इस प्रकार हैं :-
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1-3.    लक्षित क्षेत्रों में लोगों की भागीदारी के माध्यम से वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण के माध्यम से भूजल संवर्ध्दन के लिए नूतन पध्दतियों को अपनाने के लिए गैर सरकारी संगठनों (एनजीओएस)/ ग्राम पंचायतों एवं शहरी स्थानीय निकायों (1लाख तक की जनसंख्या के लिए) के लिए ।
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4.    प्रौद्योगिकी की जल उपयोग दक्षता एवं प्रभावकारिता और लोगों द्वारा इसकी स्वीकृति को बढ़ावा देने में किसान सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम का कार्यान्वयन करने वाले संस्थानों के लिए ।
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5.    कारपोरेट सेक्टर के लिए- वर्षा जल संचयन, पुन:चक्रण और पुन: उपयोग के द्वारा जल का संरक्षण करने में तथा प्रदूषण नियंत्रण और जल गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए उपाय शुरू करने के संबंध में जागरूकता को बढ़ावा देना ।
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6.    वर्षा जल संचयन के लिए नई तकनीकों का विकास करने, जल से संबंधित लगभग सभी मामलों में जागरूकता लाने में कार्यरत व्यक्तियों/संस्थानों के लिए । भूजल पुनर्भरण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन, बेहतर प्रयासों के विकास / कार्यान्वयन में सफलता ।
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==संदर्भ==
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<references/>
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*[http://wrmin.nic.in/index.asp?langid=2 जल संसाधन मंत्रालय]
  
[http://wrmin.nic.in/index.asp?langid=2 जल संसाधन मंत्रालय]
 
 
[[Category:जल]]
 
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०९:१३, १२ सितम्बर २०११ के समय का अवतरण

जल संसाधन

पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई हिस्से पर विश्र्व के महासागरों का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगミग 1400 मिलियन घन किलोमीटर है जो कि पृथ्वी पर 3000 मीटर गहरी परत बिछा देने के लिए काफी है। तथापि जल की इस विशाल मात्रा में स्वच्छ जल का अनुपात बहुत कम है। पृथ्वी पर उपलब्ध समग्र जल में से लगभग 2.7 प्रतिशत जल स्वच्छ है जिसमें से लगभग 75.2 प्रतिशत जल ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा रहता है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में विद्यमान है। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमण्डल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। जल की जो मात्रा उपभोग और अन्य प्रयोगों के लिए वस्तुतः उपलब्ध है, वह नदियों, झीलों और भूजल में उपलब्ध मात्रा का छोटा-सा हिस्सा है। इसलिए जल संसाधन विकास और प्रबन्ध की बाबत संकट इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि अधिकांश जल उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता और दूसरे इसका विषमतापूर्ण स्थानिक वितरण इसकी एक अन्य विशिष्टता है। फलतः जल का महत्व स्वीकार किया गया है और इसके किफायती प्रयोग तथा प्रबन्ध पर अधिक बल दिया गया है।

पृथ्वी पर उपलब्ध जल जल-वैज्ञानिक चक्र के माध्यम से चलायमान है। अधिकांश उपभोक्ताओं जैसे कि मनुष्यों, पशुओं अथवा पौधों के लिए जल के संचलन की जरूरत होती है। जल संसाधनों की गतिशील और नवीकरणीय प्रकृति और इसके प्रयोग की बारम्बार जरूरत को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल संसाधनों को उनकी प्रवाह दरों के अनुसार मापा जाए। इस प्रकार जल संसाधनों के दो पहलू हैं। अधिकांश विकासात्मक जरूरतों के लिए प्रवाह के रूप में मापित गतिशील संसाधन अधिक प्रासंगिक हैं। आरक्षित भण्डार की स्थिर अथवा नियत प्रकृति और साथ ही जल की मात्रा तथा जल निकायों के क्षेत्र की लम्बाई व मत्स्यपालन, नौ संचालन आदि जैसे कुछेक क्रियाकलापों के लिए भी प्रासंगिक है। इन दोनों पक्षों पर नीचे चर्चा की गई है।

सिंचाई का संसार

विश्र्व में देश-वार भौगोलिक क्षेत्र, कृषि-योग्य भूमि और सिंचित क्षेत्र का विश्र्लेषण करने पर ऐसा पता चलता है कि महाद्वीपों के बीच सर्वाधिक विशाल भौगोलिक क्षेत्र अफ्रीका में स्थित है जो कि विश्र्व के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 23 प्रतिशत बैठता है। तथापि मात्र 21% भौगोलिक क्षेत्र वाले एशिया (यूएसएसआर के भूतपूर्व देशों को छोड़कर) में विश्र्व की लगभग 32 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है जिसके बाद उत्तर केन्द्रीय अमरीका का स्थान आता है जिसमें लगभग 20 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है। अफ्रीका में विश्र्व की केवल 12% कृषि-योग्य भूमि है। यह देखा गया है कि विश्र्व में सिंचित क्षेत्र 1994 में कृषि-योग्य भूमि का लगभग 18.5 प्रतिशत है। 1989 में विश्र्व का 63% सिंचित क्षेत्र एशिया में था जबकि 1994 में इस आशय का प्रतिशत बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंच गया। साथ ही 1994 में एशिया की 37 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि की सर्वाधिक विशाल मात्रा है जो कि एशिया की कृषि-भूमि का लगभग 39 प्रतिशत बैठती है। केवल संयुक्त राज्य अमरीका ऐसा देश है जहां भारत की तुलना में अधिक कृषि-योग्य भूमि है।

भारतीय संविधान में जल की स्थिति

भारत राज्यों का संघ है। राज्य और केन्द्र के बीच दायित्वों के आबंटन के सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधान तीन श्रेणियों में आते हैं: संघ सूची (सूची-I), राज्य सूची (सूची-II) तथा समवर्ती सूची (सूची-III)। संविधान के अनुच्छेद 246 का सम्बन्ध संसद और राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाई जाने वाली विधियों की विषय-वस्तु के साथ है। क्योंकि देश में अधिकांश नदियां अन्तर्राज्यीय हैं, इन नदियों के पानी का विनियमन और विकास अन्तर्राज्यीय मतभेदों और विवादों का कारण है। संविधान में जल सूची-II अर्थात राज्य सूची की प्रविष्टि 17 में शामिल है। यह प्रविष्टि सूची-I अर्थात संघ सूची की प्रविष्टि 56 के प्रावधान के अध्यधीन है। इस सम्बन्ध में विशिष्ट प्रावधान निम्नानुसार हैः

अनुच्छेद 246

(1) खंड (2) और खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद का सातवीं अनुसूची की सूची 1 में (जिसे इस संविधान में 'संघ सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।

(2) खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद को और खंड (1) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को भी, सातवीं अनुसूची की सूची III में (जिसे इस संविधान में 'समवर्ती सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है।

(3) खंड (1) और खंड (2) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को सातवीं अनुसूची की सूची II में (जिसे इस संविधान में 'राज्य सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में उस राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।

(4) संसद को भारत के राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के लिए जो किसी राज्य के अंतर्गत नहीं है, किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है, चाहे वह विषय राज्य सूची में प्रगणित विषय ही क्यों न हो।

अनुच्छेद 262

जल सम्बन्धी विवादों के सम्बन्ध में अनुच्छेद 262 में निम्न प्रावधान हैः (1) संसद, विधि द्वारा, किसी अंतर्राज्यिक नदी या नदी-घाटी के या उसमें जल के प्रयोग, वितरण या नियंत्रण के सम्बन्ध में किसी विवाद या शिकायत के न्याय निर्णयन के लिए उपबंध कर सकेगी।

(2) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संसद, विधि द्वारा, उपबंध कर सकेगी कि उच्चतम न्यायालय या कोई अन्य न्यायालय खंड (1) में निर्दिष्ट किसी विवाद या शिकायत के सम्बन्ध में अधिकारिता का प्रयोग नहीं करेगा।

सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56

सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि में यह प्रावधान है कि उस सीमा तक अंतरराज्यिक नदियों और नदी-घाटियों का विनियमन और विकास, जिस तक संघ के नियंत्रण के अधीन ऐसे विनियमन और विकास को संसद विधि द्वारा, लोकहित में समीचीन घोषित करें।

सातवीं अनुसूची की सूची I I

सातवीं अनुसूची की सूची II के अधीन प्रविष्टि 17 में यह प्रावधान है कि सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन रहते हुए जल अर्थात जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, जल निकास और तटबन्ध, जल भंडारकरण और जलशक्ति।

इस प्रकार केन्द्रीय सरकार को सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन केन्द्रीय सरकार को उस सीमा तक अन्तरराज्यिक नदियों का विनियमन और विकास करने की शक्ति प्राप्त है जिस तक संसद, विधि द्वारा लोकहित में समीचीन घोषित करे। साथ ही उसे संविधान के अनुच्छेद 262 के अधीन अन्तर्राज्यीय नदी अथवा नदी घाटी से सम्बन्धित किसी विवाद के अधिनिर्णय के लिए विधियां बनाने की शक्ति भी प्राप्त है।

विकास की स्थिति

अंग्रेजों के समय में सिंचाई विकास

अंग्रेजी शासन के दौरान सिंचाई विकास की शुरूआत मौजूदा कार्यों जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है के नवीकरण, सुधार और विस्तार के साथ हुई। पर्याप्त अनुभव और विश्र्वास अर्जित कर लेने के बाद सरकार ने नए वृहद कार्य हाथ में लिए जैसे कि ऊपरी गंगा नहर, ऊपरी बड़ी दोआब नहर तथा कृष्णा और गोदावरी डेल्टा प्रणालियां जो सभीकाफी बड़े आकार के नदी-अपवर्तन कार्य थे। 1836 से 1866 तक की अवधि इन चार वृहद कार्यों की जांच, विकास और पूर्ति के प्रति समर्पित थी। 1867 में सरकार ने ऐसे कार्य हाथ में लेने की परिपाटी अपनाई जो कि न्यूनतम शुद्ध लाभ का आश्र्वासन देते थे। इसके बाद अनेक परियोजनाएं हाथ में ली गईं जिनमें सिरहिन्द, निम्न गंगा, आगरा और मुथा नहरों तथा पेरियार बांध और नहरों जैसे वृहद नहर कार्य शामिल थे। इस अवधि के दौरान सिंधु प्रणाली पर कुछ अन्य वृहद नहर परियोजनाएं भी पूरी की गईं। इनमें निम्न स्वात, निम्न सोहाग और पारा, निम्न चिनाब और सिघनई नहर शामिल थी जिनमें से सभी1947 में पाकिस्तान में चली गई।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सूखे और अकाल की पुनरावृत्ति के कारण फसलों के असफल हो जाने की स्थिति में सुरक्षा प्रदान करने और बाढ़ राहत पर बड़े पैमाने पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए सिंचाई का विकास जरूरी हो गया। क्योंकि न्यून वर्षा भू-भाग में सिंचाई कार्यों के सम्बन्ध में ऐसा सोचा गया था कि उनके लिए उत्पादकता परीक्षण की पूर्ति करना संभव नहीं होगा, इसलिए उनका वित्तपोषण चालू राजस्व से करना पड़ा। इस अवधि के दौरान निर्मित महत्वपूर्ण संरक्षणात्मक कार्य थेः बेतवा नहर, नीरा बायां तट नहर, गोकक नहर, खसवाड़ तालाब तथा ऋषिकुल्य नहर। दो प्रकार के कार्यों अर्थात उत्पादक और सुरक्षात्मक कार्यों के बीच सरकार की तरफ से उत्पादक कार्यों की ओर अधिक ध्यान दिया गया। अंग्रेजों के शासनाधीन भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सिंचित सकल क्षेत्रफल लगभग 7.5 मिलियन हैक्टेयर था। इसमें से 4.5 मिलियन हैक्टेयर लघु कार्यों जैसे कि तालाबों, आप्लावन आदि से प्राप्त हुआ था जिनके सम्बन्ध में कोई स्वतंत्र पूंजी लेखे नहीं रखे गए थे। सुरक्षा कार्यों से सिंचित क्षेत्र 0.12 मिलियन हैक्टेयर से थोड़ा-सा अधिक था।

घरेलू जल आपूर्ति

राष्ट्रीय जल नीति ने पेयजल आपूर्ति की जरूरत को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है जिसके बाद सिंचाई, जल-विद्युत, नौसंचालन और औद्योगिक तथा अन्य प्रयोगों का स्थान आता है। क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं तथा उनके बीच आने वाली वार्षिक योजनाओं में जल आपूर्ति और सफाई प्रणालियां तेजी से विकसित करने की दिशा में प्रयास किए गए हैं। "अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और सफाई दशक" के सन्दर्भ में इस दशक के अन्त अर्थात मार्च, 1991 तक शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत जनता को जल आपूर्ति सुविधाएं उपलब्ध कराने, शहरी क्षेत्रों में 80 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 25 प्रतिशत जनता तक सफाई सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार ने अप्रैल, 1981 में दशकीय कार्यक्रमों की शुरूआत की। तथापि वित्तीय तथा अन्य कठिनाइयों के चलते दशक के लिए मूलतः जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उन्हें घटाकर शहरी जल आपूर्ति के मामले में 90 प्रतिशत तथा ग्रामीण जल आपूर्ति के मामले में 85 प्रतिशत और शहरी स्वच्छता के मामले में 50 प्रतिशत तथा ग्रामीण स्वच्छता के मामले में 5 प्रतिशत कर दिया गया। अपनाई गई नीति के अनुसार पेयजल के लिए प्रावधान सभीजल संसाधन परियोजनाओं में किया जाएगा। भारत में अधिकांश महानगरों/शहरों की पेयजल मांगों की पूर्ति निकटस्थ क्षेत्रों में स्थित सिंचाई/बहुद्देश्यीय स्कीमों के जलाशयों और यहां तक कि लम्बी दूरी के अन्तरण द्वारा की जाती है। टिहरी बांध से दिल्ली को तथा तेलुगु गंगा परियोजनाओं के जरिए चेन्नई को कृष्णा जल से पेयजल की आपूर्ति अनूठे उदाहरण हैं।

जल-विद्युत शक्ति

भारत के पास विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल-विद्युत उत्पादन की विशाल क्षमता मौजूद है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के एक अनुमान के अनुसार देश में 60 प्रतिशत भार गुणांक पर 84,000 मेगावाट क्षमता का आकलन किया गया है जो कि वार्षिक ऊर्जा उत्पादन के लगभग 450 बिलियन यूनिटों के बराबर है। बेसिन-वार विभाजन नीचे प्रस्तुत हैः

क्रम संख्या बेसिन 60 प्रतिशत भार गुणांक पर क्षमता (मेगावाट)
1. सिंधु बेसिन 20,000
2. ब्रह्मपुत्र बेसिन 35,000
3. गंगा बेसिन 11,000
4. केन्द्रीय भारत बेसिन 3,000
5. पश्चिम की ओर बहने वाली नदी प्रणाली 6,000
6. पूर्व की ओर बहने वाली नदी प्रणाली 9,000
योग 74,000

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1362 मेगावाट की कुल स्थापित क्षमता में से जल-विद्युत उत्पादन क्षमता 508 मेगावाट थी। तदनन्तर क्षमता बढ़कर 13,000 मेगावाट तक पहुंच चुकी है। इसके अलावा निर्माणाधीन परियोजनाओं से 6,000 मेगावाट अलग से उपलब्ध है। पहले ही मंजूर की जा चुकी परियोजनाओं से लगभग 3,000 मेगावाट क्षमता के उपलब्ध होने की संभावना है। इस प्रकार काम में लगाई गई/लगाई जा रही कुल क्षमता लगभग 22,000 मेगावाट बैठेगी जो कि अनुमानित क्षमता का लगभग एक चौथाई है।

मध्यकालीन भारत में सिंचाई

मध्यकालीन भारत में आप्लावन नहरों के निर्माण में तेज प्रगति की गई। नदियों पर बांधों का निर्माण करके पानी को अवरुद्ध किया गया। ऐसा करने से पानी का स्तर ऊंचा उठ गया और खेतों तक पानी ले जाने के लिए नहरों का निर्माण किया गया। इन बांधों का निर्माण राज्य और निजी स्रोतों--दोनों द्वारा किया गया। गियासुद्दीन तुगलक (1220-1250) को ऐसा पहला शासक होने का गौरव प्राप्त है जिसने नहरें खोदने को प्रोत्साहन दिया। तथापि फ्रज तुगलक (1351-86) को, जो कि केन्द्रीय एशियाई अनुभव से प्रेरित था उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व सबसे बड़ा नहर निर्माता माना गया था। ऐसा कहा जाता है कि दक्षिण भारत में पंद्रहवीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य की उन्नति और विस्तार के पीछे सिंचाई एक प्रमुख कारण रहा था। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अपवादात्मक मामलों को छोड़कर अंग्रेजी साम्राज्य के आगमन से पूर्व अधिकांश नहर सिंचाई अपवर्तनात्मक प्रकृति की थी। सिंचाई को बढ़ावा देने के माध्यम से राज्य ने राजस्व बढ़ाने का प्रयास किया और उर्वर भूमि के लिए पुरस्कारों तथा विभिन्न श्रेणियों के लिए अन्य अधिकारों के माध्यम से संरक्षण प्रदान करने का प्रयास किया। सिंचाई ने रोजगार अवसरों में भीवृद्धि कर दी थी तथा सेना और अधिकारी-तंत्र को बनाए रखने के लिए अधिशेष के सृजन में मदद भीकी थी। क्योंकि कृषि-विकास अर्थव्यवस्था का मूलाधार था इसलिए सिंचाई प्रणालियों की ओर विशेष ध्यान दिया गया। यह बात इस तथ्य से पता चलती है कि सभीविशाल, शक्तिशाली और स्थिर साम्राज्यों ने सिंचाई विकास की ओर ध्यान दिया।

योजना विकास

स्वतंत्रता के बाद योजना अवधि के दौरान जल संसाधन विकास के प्रारम्भिक चरण में जल संसाधनों को तेजी से काम में लगाना मुख्य प्रयोजन था। तदनुसार राज्य सरकारों को सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण, जल विद्युत उत्पादन, पेयजल आपूर्ति, औद्योगिक तथा विभन्नि विविध प्रयोगों जैसे विशिष्टि प्रयोजनों के लिए जल संसाधन परियोजनाएं तैयार और विकसित करने को प्रोत्साहित किया गया। इसका फल यह हुआ कि क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के साथ सारे देश के भीतर बांधों, बराजों, जल विद्युत संरचनाओं, नहर नेटवर्क आदि से युक्त परियोजनाएं काफी संख्या में उभर कर आईं। भारत में विशाल भण्डारण क्षमता जल संसाधन विकास के क्षेत्र में एक अनन्य उपलब्धि मानी जा सकती है। तैयार किए गए इन भण्डारण कार्यों के कारण कमान क्षेत्र में सुनिश्चित सिंचाई उपलब्ध कराना, जल विद्युत तथा विभन्नि स्थानों पर स्थित तापीय विद्युत संयंत्रों के लिए आपूर्ति तथा विभन्नि अन्य प्रयोगों के लिए मांग की पूर्ति सुनिश्चित करना संभव हो सका है। बाढ़ संभावित क्षेत्रों में जहां भण्डारण उपलब्ध करा दिया गया है, बाढ़ नियंत्रण प्रभावी हो सका था। इसके अलावा देश के भीतर विभन्नि हिस्सों में दूरस्थ इलाकों में सारे वर्ष पेयजल की आपूर्ति संभव हो सकी है।

जब 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना शुरू हुई तो उस समय भारत की जनसंख्या लगभग 361 मिलियन और खाद्य का वार्षिक उत्पादन 51 मिलियन टन था जो कि काफी नहीं था। खाद्य की इस कमी को पूरा करने के लिए खाद्यान्न का आयात करना जरूरी था। इसलिए योजना अवधि में खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया था और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं के जरिए अनेक वृहद, मध्यम और लघु सिंचाई तथा बहुद्देश्यीय परियोजनाएं तैयार और कार्यान्वित की गईं ताकि सारे देश के भीतर सिंचाई की अतिरिक्त क्षमता पैदा की जा सके। कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति सहित उक्त आन्दोलन के कारण खाद्यान्न के उत्पादन के मामले में भारत पिछड़े हुए देश के स्थान पर अपनी आवश्यकता से किंचित फालतू मात्रा में खाद्यान्न पैदा करने वाला देश बन गया है। इस प्रकार निवल सिंचित क्षेत्र कुल बुवाई क्षेत्र का 39 प्रतिशत तथा कुल कृषि-योग्य भूमि का 30 प्रतिशत बैठता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है वृहद तथा मध्यम परियोजनाओं के कारण अन्ततः 58 मिलियन हैक्टेयर सिंचित क्षेत्र का आकलन किया गया है जिसमें से 64% अनुमानतः विकसित किया जाएगा।

संस्थानगत व्यवस्थाएं

केन्द्रीय सरकार पर एक राष्ट्रीय संसाधन के रूप में जल के विकास, संरक्षण और प्रबन्ध के लिए अर्थात जल संसाधन विकास और सिंचाई, बहुद्देश्यीय परियोजनाओं, भूजल अन्वेषण तथा दोहन, कमान क्षेत्र विकास, जल निकास, बाढ़ नियंत्रण, जलग्रस्तता, समुद्र कटाव समस्याओं, बांध सुरक्षा तथा नौसंचालन और जल विद्युत के लिए जल वैज्ञानिक संरचनाओं के सम्बन्ध में राज्यों को तकनीकी सहायता प्रदान करने के निमित्त सामान्य नीति के लिए केन्द्री स्तर पर जल संसाधन मंत्रालय जिम्मेदार है। यह मंत्रालय अन्तर्राज्यीय नदियों के विनियमन और विकास पर भी निगाह रखता है। ये कार्य विミन्नि केन्द्रीय संगठनों द्वारा किए जाते हैं। शहरी जल आपूर्ति तथा जलमल निपटान की देखभाल शहरी विकास मंत्रालय करता है जबकि ग्रामीण जल आपूर्ति ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन पेयजल विभाग के अधिकार क्षेत्र में आती है। जल-विद्युत ऊर्जा और तापीय विद्युत का विषय विद्युत मंत्रालय की जिम्मेदारी है। प्रदूषण और पर्यावरण, पर्यावरण और वन मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है। क्योंकि पानी एक राज्य-विषय है इसलिए इस संसाधन के प्रयोग और नियंत्रण की मौलिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है। पानी के प्रशासनिक नियंत्रण और विकास की जिम्मेदारी विभन्नि राज्य सरकारों और निगमों के ऊपर है। वृहद और मध्यम सिंचाई की देखभाल सिंचाई/जल संसाधन विभागों द्वारा की जाती है। लघु सिंचाई की देखभाल अंशतः जल संसाधन विभागों, लघु सिंचाई निगमों, जिला परिषदों/पंचायतों तथा कृषि जैसे अन्य विभागों द्वारा की जाती है। शहरी जल आपूर्ति आमतौर पर जन स्वास्थ्य विभागों की जिम्मेदारी है जबकि ग्रामीण जल आपूर्ति पंचायतों का काम है। सरकारी नलकूपों का निर्माण और देखभाल सिंचाई/जल संसाधन विभाग द्वारा अथवा इस प्रयोजन के लिए स्थापित नलकूप निगमों द्वारा की जाती है। जल-विद्युत राज्य विद्युत बोर्डों की जिम्मेदारी है।

सिचाई

सिचाई परियोजनाएं तीन श्रेणियों अर्थात बृहद, मध्यम और लघु में रखी जाती हैं। जिन परियोजनाओं का कृषि-योग्य कमान क्षेत्र (सीसीए) 10,000 हैक्टेयर से अधिक होता है, उन्हें बृहद परियोजनाएं कहा जाता है और जिन परियोजनाओं का कृषि-योग्य कमानक्षेत्र 10,000 हैक्टेयर से कम किन्तु 2,000 हैक्टेयर से अधिक होता है, वे मध्यम परियोजनाएं कहलाती हैं। जिन परियोजनाओं का सीसीए 2,000 हैक्टेयर या इससे कम होता है, वे लघु परियोजनाएं कहलाती हैं। जो क्षेत्र अन्ततः सतही तथा भूजल--दोनों द्वारा सिंचाई के अधीन लाया जा सकता है, उसके बारे में विभिन्न राज्यों द्वारा 1960 के दशक में किए गए एक स्थूल मूल्यांकन से ऐसा पता चला है कि देश की सिंचाई की अन्तिम क्षमता 113 मिलियन हैक्टेयर भूमि की होगी। लेकिन अन्तिम क्षमता 139 मिलियन हैक्टेयर है, इस वृद्धि का मूल कारण लघु भूजल स्कीमों और लघु सतही जल स्कीमों की आकलित क्षमता में क्रमशः 64 मिलियन हैक्टेयर तथा 17 मिलियन हैक्टेयर तक का बढ़ने वाला संशोधन है। लघु सिंचाई परियोजनाओं के स्रोत के रूप में सतही और भूजल दोनों होते हैं जबकि बृहद और मध्यम परियोजनाएं अधिकतर सतही जल संसाधनों का दोहन करती हैं।

सिचाई विकास का इतिहास

भारत में सिंचाई विकास का इतिहास प्रागैतिहासिक समय से शुरू होता है। वेदों और प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों में कुओं, नहरों, तालाबों और बांधों का उल्लेख मिलता है जो कि समुदाय के लिए उपयोगी होते थे और उनका कुशल संचालन तथा अनुरक्षण राज्य की जिम्मेदारी होती थी। सम्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ था और जीवित रहने के लिए उन्होंने पानी का लाभ उठाया। प्राचीन भारतीय लेखकों के अनुसार कोई कुआं या तालाब खोदना मनुष्य का सबसे अधिक पुण्य कार्य होता था। विधि और राजनीति के प्राचीन लेखक बृहस्पति का कहना है कि बांधों का निर्माण और मरम्मत एक पावन कार्य है और इसका भार समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के कंधों पर डाला जाना चाहिए। विष्णु पुराण में कुओं, वाटिकाओं और बांधों की मरम्मत करने वाले व्यक्ति की सराहना की गई है।

मानसून के मौसम में और भारत जैसे कृषि अर्थव्यवस्था में उत्पादन प्रक्रिया में सिंचाई की एक बहुत महत्वूपर्ण भूमिका रही है। सिंधु घाटी सभ्यता (2500 ईसा पूर्व) के दौरान व्यवस्थित कृषि के समय से सिंचाई की प्रथा के साक्ष्य मिलते हैं। ये सिंचाई प्रौद्योगिकियां छोटे और लघु कार्यों के रूप में होती थीं जिनका प्रयोग भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों की सिंचाई करने के लिए छोटे-छोटे परिवारों द्वारा किया जा सकता था और उनके लिए सहकारितापूर्ण प्रयास जरूरी नहीं थे। प्रायः ये सभी सिंचाई प्रौद्योगिकियां किंचित प्रौद्योगिकीय बदलाव सहित भारत में आज भी मौजूद हैं और स्वतंत्र परिवारों द्वारा छोटे-छोटे जोत क्षेत्रों की सिंचाई के लिए उनका प्रयोग अभी भी किया जाता है। इस समय विशाल सिंचाई कार्यों के साक्ष्य का अभाव विशाल अधिशेष राशि की, जिसे बड़ी स्कीमों में निवेश किया जा सकता था कमी का अथवा दूसरे शब्दों में कठोर और असमान सम्पत्ति अधिकारों के अभाव का द्योतक है। जहां कृषि में ग्राम समुदाय और सहकारिता निश्चित रूप से मौजूद थे जैसाकि सुविकसित शहरों और अर्थव्यवस्था में देखा जा सकता है विशाल सिंचाई कार्यों में ऐसी सहकारिता की जरूरत नहीं थी क्योंकि ऐसी बस्तियां उर्वर और सुसिंचित सिंधु बेसिन पर स्थित थीं। कृषि बस्तियों के कम उर्वर और कम सिंचित क्षेत्रों में फैल जाने के कारण सिंचाई विकास में सहयोग देखने को मिला और जलाशयों तथा छोटी-छोटी नहरों के रूप में अपेक्षतया विशाल सिंचाई कार्य उभर कर आए। जहां छोटी-छोटी स्कीमों का निर्माण ग्राम समुदायों की क्षमता के भीतर था विशाल सिंचाई कार्य राज्यों, साम्राज्यों के विकास तथा शासकों के हस्तक्षेप के कारण ही उभर पाए। सिंचाई और राज्य के बीच एक निकट सम्बन्ध हुआ करता था। राजा के पास श्रमिक जुटाने का अधिकार था जिनका प्रयोग सिंचाई कार्यों के लिए किया जा सकता था।

दक्षिण में चोलाओं द्वारा कावेरी नदी से सिंचाई उपलब्ध कराने के प्रयोजन से बहुत पहले अर्थात दूसरी शताब्दी में ग्रैण्ड अनीकट के निर्माण के साथ बारहमासी सिंचाई की शुरूआत हुई होगी। जहां कहीं स्थलाकृति तथा भू-भाग की दृष्टि से संभव होता, वहां सतही जल निकास पानी को तालाबों अथवा जलाशयों में अवरुद्ध करने की पुरानी परिपाटी मौजूद थी जिसके लिए जहां कहीं जरूरी हो वहां फालतू पानी ले जाने के लिए एक अतिरिक्त अनीकट सहित मिट्टी का एक बांध बना दिया जाता था, नीचे की भूमि को सिंचित करने के लिए उपयुक्त स्तर पर एक स्लूस होता था। कुछ तालाबों को नदी तथा नदी-नहरों से पूरक आपूर्ति प्राप्त होती थी। केन्द्रीय और दक्षिणी भारत में समूचा भू-दृश्य ऐसे अनेक सिंचाई तालाबों से परिपूर्ण है जिनका समय ईस्वी सन की शुरूआत से कई शताब्दियों पुराना है। उत्तरी भारत में भी नदियों की ऊपरी घाटियों में कई छोटी-छोटी नहरें हैं जो कि बहुत पुरानी हैं।

स्वतंत्रता के समय सिंचाई विकास

स्वतंत्रता के समय भारतीय उपमहाद्वीप में, जिसमें अंग्रेजों के प्रान्त और रजवाड़े शामिल थे, निवल सिंचित क्षेत्र लगभग 28.2 मिलियन हैक्टेयर था। लेकिन देश के विभाजन के कारण स्थिति में अचानक और जबरदस्त बदलाव आ गया जिसके फलस्वरूप सिंचित क्षेत्र दो देशों के बीच बंट गया; भारत और पाकिस्तान में निवल सिंचित क्षेत्र क्रमशः 19.4 मिलियन हैक्टेयर तथा 8.8 मिलियन हैक्टेयर रह गया। सतलज और सिंधु प्रणालियों सहित वृहद नहर प्रणालियां पाकिस्तान के हिस्से में चली गई। पूर्वी बंगाल, जिसे अब बांग्लादेश कहते हैं और जिसमें उर्वर गंगा ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र आता है, वह भीपाकिस्तान का हिस्सा बन गया। उत्तर प्रदेश में और दक्षिण के डेल्टाओं में कुछ पुराने कार्यों को छोड़कर भारत के पास शेष बच रहे सिंचाई कार्य अधिकाशतः संरक्षात्मक प्रकृति के थे जिनका प्रयोजन महत्वपूर्ण पैदावार नहीं बल्कि अकाल की स्थिति को टालना था।

नौसंचालन

देश के भीतर अन्तर्देशीय जल मार्गों की कुल नौसंचालनयोग्य दूरी 15,783 किलोमीटर है जिसमें अधिकतम उत्तर प्रदेश में पड़ता है और उसके बाद क्रमशः पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश, असम, केरल और बिहार का स्थान आता है। नदी प्रणाली के बीच गंगा में सबसे अधिक लम्बा नौ-संचालनयोग्य जलमार्ग है जिसके बाद गोदावरी, ब्रह्मपुत्र तथा पश्चिम बंगाल की नदियों का स्थान आता है। भीतरी स्थानों तक पहुंचना जलमार्गों का एक अनूठा लाभ है। इसके अलावा वे कहीं कम प्रदूषण और कम संचार विषयक बाधाओं सहित यातायात के सस्ते साधन उपलब्ध कराते हैं। जलमार्ग यातायात का प्रयोग जो 1980-81 में 0.11 एमटी होता था वह 1994-95 में बढ़कर 0.33 एमटी तक पहुंच गया। अन्तर्देशीय जल परिवहन का विकास ऊर्जा संरक्षण की दृष्टि से भीअत्यधिक महत्व का है। जिन दस जल मार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किए जाने के लिए अभिज्ञात किया गया है, वे इस प्रकार हैं:

  1. गंगा-भगीरथ-हुगली
  2. ब्रह्मपुत्र
  3. माण्डवी, जुआरी नदी तथा गोवा में कुम्बराजुआ नहर
  4. महानदी
  5. गोदावरी
  6. नर्मदा
  7. सुन्दरवन क्षेत्र
  8. कृष्णा
  9. तापी
  10. पश्चिम तट नहर

गंगा-ब्रह्मपुत्र-हुगली तथा ब्रह्मपुत्र को पहले ही राष्ट्रीय जलमार्गों के रूप में घोषित किया जा चुका है। फरक्का नौ-संचालन जलपाश (लॉक) परिवहन के लिए खोला जा चुका है और इस प्रकार कलकत्ता से जुड़े हुए गंगा के प्रतिप्रवाह खण्डों के लिए परिवहन की सुविधा उपलब्ध हो गई है। राष्ट्रीय जलमार्गों के नेटवर्क के चलते इस क्षेत्र में 10 नदी प्रणालियों के जरिए सवारी और माल की ढुलाई में 35 एमटी प्रतिवर्ष की दर से वृद्धि होने की संभावना है। नौ-संचालन के लिए पानी का खपतकारी प्रयोग पर्याप्त नहीं है क्योंकि क्षय केवल अन्तिम भण्डारण परियोजनाओं पर होता है।

जल विकास और स्वास्थ्य

जहां जल मानव जीवन के अस्तित्व के लिए जरूरी है, वहां यह मानवीय स्वास्थ्य के लिए समस्याएं भी पैदा कर सकता है क्योंकि यह टाइफायड, हैजा, अतिसार, मलेरिया, फाइलेरिया, शिष्टोसोमियासिस आदि जैसे रोगों के लिए रोगवाहकों का वाहक भी होता है। फिर भी जल विकास परियोजना का कुप्रबन्ध होने पर भी उन्होंने देश में मानवीय स्वास्थ्य में उपयोगी योगदान दिया है।

मानवीय स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभों में महत्वपूर्ण लाभ बुनियादी खाद्यों के बढ़े हुए उत्पादन के फलस्वरूप बेहतर खुराक, फल और सब्जियां उगाने का नया अवसर, ऐसे लोगों की खाद्य के लिए बढ़ी हुई क्रय शक्ति जो कि उनके द्वारा पैदा नहीं किए जाते जो कि खेत पर होते हैं। अन्य पौषणिक सुधार मत्स्य पालन के विकास तथा घरेलू पशुओं को चारा खिलाने और पानी पिलाने की बेहतर सुविधाओं का परिणाम है जो कि खुराक और आय में भी काफी बढ़ोतरी कर सकती है। जल विकास परियोजनाओं की उन्नति से केवल यही नहीं कि देश बाढ़ और सूखे पर काबू पाने के योग्य हो सका बल्कि उसने निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पर्याप्त भोजन और कपड़ा भी मुहैया कराया है।

देश के अधिकांश भागों में आजकल सुरक्षित जल की जिस कमी का अनुभव किया जा रहा है, उसे देखते हुए जल विकास परियोजनाओं में मानवीय प्रयोग के लिए सुरक्षित जल की सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। देश में कार्यान्वित प्रायः सभी परियोजनाएं घरेलू प्रयोग के लिए पानी उपलब्ध कराती हैं हालांकि इनमें से कुछ परियोजनाएं मूलतः इस लक्ष्य को सामने रख कर नहीं बनाई गई थीं। क्योंकि 80-90 प्रतिशत वर्षा केवल मानसून के दौरान ही होती है इसलिए घरेलू प्रयोग के लिए पानी को संचित करना जरूरी हो जाता है। जल आपूर्ति ने बेहतर जल निकासी और सफाई के जरिए आबादी वाले क्षेत्रों के साफ और स्वच्छ रखने में भी सहायता प्रदान की है। इस प्रकार जल आपूर्ति ने स्वास्थ्य के सुधार में योगदान दिया है।

अन्तर्देशीय मत्स्य पालन

जल संसाधन विकास कार्यों के फलस्वरूप प्रमुख लक्ष्यों के अलावा विभिन्न अन्य क्षेत्रों में भी उन्नति हुई है जिनमें अन्तर्देशीय मत्स्य उत्पादन में उन्नति का एक महत्वपूर्ण स्थान है। 1950-51 के दौरान कुल मत्स्य उत्पादन 0.22 मिलियन टन था जो कि 1994-95 तक बढ़कर 2.08 मिलिनय टन तक पहुंच गया है। भारत को अब विश्र्व में मत्स्य का सातवां सबसे बड़ा उत्पादक देश तथा स्वदेशी मत्स्य का चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश होने का गौरव प्राप्त है। जहां तक राज्यों का सम्बन्ध है पश्चिम बंगाल सबसे बड़ा उत्पादक है जिसके बाद आन्ध्र प्रदेश और बिहार का स्थान आता है। ये तीनों राज्य मिलकर देश में समग्र अन्तर्देशीय मत्स्य उत्पादन में लगभग 50 प्रतिशत का योगदान देते हैं जबकि मत्स्य उत्पादन में लगभग एक तिहाई हिस्सा अकेले पश्चिमी बंगाल का रहता है।

औद्योगिक प्रयोग

औद्योगिक विकास की एक बुनियादी जरूरत पानी की समुचित उपलब्धता है। दूसरे सिंचाई आयोग ने 1972 में अपनी रिपोर्ट में पूरे देश के लिए औद्योगिक प्रयोजन के निमित्त 50 बिलियन घनमीटर प्रावधान की सिफारिश की थी। तथापि हाल के एक आकलन से ऐसा पता चलता है कि 2000 के दौरान औद्योगिक प्रयोग के लिए पानी की जरूरत 30 बिलियन घनमीटर होगी जबकि यह जरूरत 2025 तक बढ़कर 120 बिलियन घन मीटर हो जाएगी।

जल का भू-आकृति-विज्ञान

कृषि-जलवायु क्षेत्र

कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्रीकरण सम्बन्धी पूर्व अध्ययनों की जांच करने के बाद योजना आयोग ने यह सिफारिश की कि कृषि-आयोजना कृषि-जलवायु क्षेत्रों के आधार पर तैयार की जानी चाहिए। संसाधन विकास के लिए देश को कृषि-जलवायु विशेषताओं, विशेष रूप से तापमान और वर्षा सहित मृदा कोटि, जलवायु और जल संसाधन उपलब्धता के आधार पर स्थूलतः निम्नानुसार पंद्रह कृषि जलवायु क्षेत्रों में बांटा गया हैः

  1. पश्चिमी हिमालयी प्रभाग
  2. पूर्वी हिमालयी प्रभाग
  3. निचला गांगेय मैदानी क्षेत्र
  4. मध्य गांगेय मैदानी क्षेत्र
  5. उच्च गांगेय मैदानी क्षेत्र
  6. गांगेय-पार मैदानी क्षेत्र
  7. पूर्वी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
  8. केन्द्रीय पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
  9. पश्चिमी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
  10. दक्षिणी पठार तथा पर्वतीय क्षेत्र
  11. पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
  12. पश्चिमी तटीय मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
  13. गुजरात मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
  14. पश्चिमी मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्र
  15. द्वीप क्षेत्र

जल निकाय

देश के अन्तर्देशीय जल संसाधन निम्न रूप में वर्गीकृत हैं नदियां और नहरें, जलाशय, कुंड तथा तालाब; बीलें, आक्सबो झीलें, परित्यक्त जल; तथा खारा पानी। नदियों और नहरों से इतर सभीजल निकायों ने लगभग 7 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र घेर रखा है। जहां तक नदियों और नहरों का सवाल है, उत्तर प्रदेश का पहला स्थान है क्योंकि उसकी नदियों और नहरों की कुल लम्बाई 31.2 हजार किलोमीटर है जो कि देश के भीतर नदियों और नहरों की कुल लम्बाई का लगभग 17 प्रतिशत बैठती है। इस सम्बन्ध में उत्तर प्रदेश के बाद जम्मू तथा काश्मीर और मध्य प्रदेश का स्थान आता है। अन्तर्देशीय जल संसाधनों के शेष रूपों में कुण्डों और तालाबों ने सर्वाधिक क्षेत्र (2.9 मिलियन हैक्टेयर) घेर रखा है जिनके बाद जलाशयों (2.1 मिलियन हैक्टेयर) का स्थान आता है।

कुण्डों और तालाबों के अधीन अधिकांश क्षेत्र आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के दक्षिणी राज्यों में स्थित है। पश्चिम बंगाल, राजस्थान और उत्तर प्रदेश सहित इन राज्यों में स्थित कुण्डों और तालाबों ने देश के भीतर कुण्डों और तालाबों के अधीन आने वाले क्षेत्र का लगभग 62 प्रतिशत हिस्सा घेर रखा है। जहां तक जलाशयों का सम्बन्ध है आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में जलाशयों के अधीन अधिक बड़ा क्षेत्र आता है। बीलों, आक्सबों झीलों और परित्यक्त जल के अधीन क्षेत्र में से 77 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और असम राज्यों में है। जहां तक खारे पानी का सम्बन्ध है, उड़ीसा का पहला स्थान है जिसके बाद गुजरात, केरल और पश्चिम बंगाल का स्थान आता है। इस प्रकार से अन्तर्देशीय जल संसाधनों के अधीन कुल क्षेत्र देश के भीतर विषमतापूर्ण ढंग से बंटा हुआ है तथा देश के कुल अन्तर्देशीय जल निकायों में आधे से अधिक निकाय उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल--इन पांच राज्यों में स्थित हैं।

जलवायु

उत्तर में हिमालय पर्वत की विशाल पर्वतमालाओं और उनके वुजारोधों तथा दक्षिण में महासागर की मौजूदगी भारत की जलवायु पर सक्रिय दो प्रमुख प्रभाव हैं। पहला प्रभाव केन्द्रीय एशिया से आने वाले शीत बयारों के प्रभाव को अवेद्य रूप से रोकता है और इस उप-महाद्वीप को उष्णकटिबन्धीय प्रकार की जलवायु के तत्व प्रदान करता है। दूसरा प्रभाव भारत पहुचंने वाली शीतल नमी-धारक बयारों का स्रोत है और वह महासागरीय प्रकृति की जलवायु के तत्व उपलब्ध कराता है।

भारत की जलवायु में अत्यधिक विविधता और कोटियां हैं और यहां तक कि वैविध्यपूर्ण जलवायु स्थितियां कहीं अधिक संख्या में है। यहां की जलवायु महाद्वीपी से लेकर समुद्री, अत्यधिक गर्मी से लेकर अत्यधिक ठण्डी, अत्यधिक सूखे और नाममात्र की वर्षा से लेकर अत्यधिक नमी और भीषण वर्षा तक की विविधताएं लिए रहती है। इसलिए किसी विशेष प्रकार की जलवायु की मौजूदगी को लेकर किसी भीप्रकार के सामान्यीकरण से बचना जरूरी है। जलवायु स्थितियां देश में जल संसाधनों के प्रयोग को बहुत सीमा तक प्रभावित करती हैं।

तापमान

तापमान में भिन्नताएं भीभारतीय उप-महाद्वीप की विशेष पहचान है। नवम्बर से फरवरी तक के सर्दियों के महीनों के दौरान देश के अधिकांश हिस्से में महाद्वीपी हवाओं के कारण तापमान में दक्षिण से पश्चिम की तरफ गिरावट आ जाती है। दिसम्बर और जनवरी के सबसे अधिक ठण्डे महीनों के दौरान औसत अधिकतम तापमान महाद्वीप के कुछ हिस्सों में 29 डिग्री सेंटीग्रेड से लेकर उत्तर में लगभग 18 डिग्री सेंटीग्रेड तक जबकि औसत न्यूनतम तापमान सुदूर दक्षिण में लगभग 24 डिग्री से लेकर उत्तर में 5 डिग्री सेंटीग्रेड से कम तक रहता है। मार्च से मई तक आमतौर पर तापमान में सतत और तेज वृद्धि होती है। अधिकतम तापमान उत्तर भारत में, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम के रेगिस्तानी क्षेत्र में जहां का अधिकतम तापमान 48 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़कर होता है, देखने में आता है। जून में दक्षिण पश्चिम मानसून के आगमन के साथ देश के केन्द्रीय हिस्सों में अधिकतम तापमान में तेजी से गिरावट आती है। देश के लगभग दो तिहाई हिस्से में, जिसमें अच्छी वर्षा होती है तापमान लगभग एक समान रहता है। अगस्त में जबकि मानसून सितम्बर में उत्तर से वापिस चला जाता है तापमान में उल्लेखनीय गिरावट आ जाती है। उत्तर-पश्चिम भारत में नवम्बर के महीने में औसत अधिकतम तापमान 38 डिग्री सेंटीग्रेड तथा औसत न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेंटीग्रेड रहता है। सुदूर उत्तर में तापमान हिमांक से भीनीचे गिर जाता है।

नदियां

भारत में नदियों की भरमार है। 252.8 मिलियन हैक्टेयर (एमएचए) के आवाह क्षेत्र सहित 12 नदियां वृहद नदियों के रूप में वर्गीकृत हैं। वृहद नदियों में गंगा-ब्रह्मपुत्र मेघना प्रणाली, जिसका आवाह क्षेत्र लगभग 110 मिलियन हैक्टेयर है जो कि देश की सभीवृहद नदियों के आवाह क्षेत्र के 43 प्रतिशत से बढ़ कर है सबसे विशाल प्रणाली है। 10 मिलियन हैक्टेयर से अधिक के आवाह क्षेत्र सहित अन्य वृहद नदियां इस प्रकार हैं सिंधु (32.1 मिलियन हैक्टेयर), गोदावरी (31.3 मिलियन हैक्टेयर), कृष्णा (25.9 मिलियन हैक्टेयर) तथा महानदी (14.2 मिलियन हैक्टेयर)। मध्यम आकार की नदियों का आवाह क्षेत्र लगभग 25 मिलिनय हैक्टेयर है तथा 1.9 मिलियन हैक्टेयर के आवाह क्षेत्र सहित सुबर्णरेखा देश की मध्यम आकार की नदियों में सबसे विशाल नदी है।

भू-आकृति-विज्

भू-आकृति-विज्ञान की दृष्टि से भारत को सात सुपरिभाषित क्षेत्रों में बांटा जा सकता है जो इस प्रकार हैं:

(i) हिमालय की विशाल पर्वतमालाओं सहित, उत्तरी पर्वतमालाएं;
(ii) विशाल मैदानी क्षेत्र जिसके आर-पार सिंधु और गंगा ब्रह्मपुत्र नदी प्रणालियां मौजूद हैं। इसका एक तिहाई भाग पश्चिमी राजस्थान के सूखे-क्षेत्र में पड़ता है, शेष इलाका अधिकाशंतः उर्वर मैदानी क्षेत्र है;
(iii) केन्द्रीय उच्च भूमि जिसमें पश्चिम में अरावली पर्वतमालाओं से शुरू होकर पूर्व-पश्चिम दिशा में जाती हुई और पूर्व में एक गहरे कगार पर समाप्त होती पर्वतमालाएं शामिल हैं। यह क्षेत्र विशाल मैदानी-क्षेत्र तथा दक्षिणी पठार के बीच स्थित है;
(iv) पश्चिमी घाटों, पूर्वी घाटों, उत्तर दक्षिणी पठार, दक्षिण दक्खिनी पठार और पूर्वी पठार सहित प्रायद्वीपीय पठार;
(v) पूर्वी घाटों से पूर्व में स्थित बंगाल की खाड़ी की सीमा पर लगミग 100-130 किलोमीटर चौड़ी भू-पट्टी के रूप में पूर्वी तट;
(vi) अरब सागर की सीमा पर तथा पश्चिमी घाटों के पश्चिम में स्थित लगभग 10-25 किलोमीटर चौड़ी संकरी भू-पट्टी के रूप में पश्चिमी तट;
(vii) अरब सागर में लक्षद्वीप के प्रवालद्वीप तथा बंगाल की खाड़ी में अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूहों सहित द्वीपसमूह।

वर्षा

भारत में वर्षा दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी मानसून की घटती-बढ़ती मात्रा, उथले चक्रवातीय अवनमन और विक्षोभ तथा तेज स्थानीय तूफानों पर निर्भर करती है जो ऐसे क्षेत्रों का निर्माण करते हैं जिनमें समुद्र की ठंडी नमीदार बयार पृथ्वी से उठने वाली गरम सूखी बयार से मिलती है और तूफानी स्थिति को प्राप्त होती है। भारत में (तमिलनाडु को छोड़कर) अधिकांश वर्षा जून से सितम्बर के बीच दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण होती है; तमिलनाडु में वर्षा अक्टूबर और नवम्बर के दौरान उत्तर-पूर्व मानसून से प्रभावित होती है। भारत में वर्षा की मात्रा अत्यधिक भन्निता, विषमतापूर्ण मौसमी वितरण और उससे भीअधिक विषमतापूर्ण भौगोलिक वितरण तथा अक्सर सामान्य से कमी-अधिकता की परिचायक है। भारत में आमतौर पर 78 डिग्री रेखांश के पूर्व में स्थित क्षेत्रों में 1000 मिलीमीटर से अधिक वर्षा होती है। वर्षा की यह मात्रा समूचे पश्चिमी तट और पश्चिमी घाटों के साथ-साथ तथा अधिकांश असम और पश्चिम बंगाल के उपहिमालयी क्षेत्र में बढ़कर 2500 मिलीमीटर तक पहुंच जाती है। पोरबन्दर से दिल्ली को जोड़ने वाली और उसके बाद फिरोजपुर तक जाने वाली रेखा के पश्चिम में वर्षा की मात्रा 500 मिलीमीटर से तेजी से घटकर पश्चिमी छोर तक 150 मिलीमीटर रह जाती है। इस प्रायद्वीप में ऐसे विशाल क्षेत्र हैं जहां 600 मिलीमीटर से कम और ऐसी बस्तियां हैं जहां 500 मिलीमीटर से भीकम बारिश होती है। इसलिए अन्य तकनीकों के प्रयोग के जरिए देश के भीतर लगाए गए स्थानीय वर्षा के अनुमान, विशेष रूप से भारत जैसे विशाल देश में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।

वाष्पीकरण

वाष्पीकरण की दरें मौसमों के बदलाव की दरों के बहुत निकट होती हैं और वे अप्रैल तथा मई के गर्मियों के महीनों में अपने शीर्षस्थ स्तर तक पहुंच जाती हैं तथा इस अवधि के दौरान देश के केन्द्रीय हिस्से वाष्पीकरण की उच्चतम दरों का परिचय देते हैं। मानसून के आगमन के साथ वाष्पीकरण की दर में भारी गिरावट आ जाती है। देश के अधिकांश भागों में वार्षिक संभावित वाष्पीकरण 150 से 250 सेंटीमीटर के भीतर रहता है। प्रायद्वीप में मासिक संभावित वाष्पीकरण जो कि दिसम्बर में 15 सेंटीमीटर होता है, मई में बढ़कर 40 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। पूर्वोत्तर में यह दर दिसम्बर में 6 सेंटीमीटर होती है जो कि मई में बढ़कर 20 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। पश्चिमी राजस्थान में वाष्पीकरण जून में बढ़कर 40 सेंटीमीटर तक पहुंच जाता है। मानसून के आगमन के साथ संभावित वाष्पीकरण की दर आमतौर पर सारे देश में गिर जाती है।

सामान्य

भारत अनेक नदियों और पहाड़ों का देश है। लगभग 329 मिलियन हैक्टेयर के इसके भौगोलिक क्षेत्र में अनेक छोटी-बड़ी नदियां प्रवाहित हो रही हैं जिसमें से कुछ नदियां विश्र्व की सर्वाधिक विशाल नदियों के रूप में गिनी जाती हैं। भारत की सांस्कृतिक उन्नति, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में नदियों और पहाड़ों का बहुत अधिक महत्व है। भारत एक संघीय तंत्र सहित राज्यों का एक संघ है। राजनीतिक दृष्टि से देश 28 राज्यों और 7 संघशासित क्षेत्रों में बंटा हुआ है। भारत की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग अर्थात 1,027,015,247 (2001 की जनगणना) आबादी ग्रामीण और कृषि-आधारित है और उसकी खुशहाली का स्रोत देश की नदियां हैं।

भूजल

भारत का भूजलवैज्ञानिक ढांचा

  1. भारत का भूजलवैज्ञानिकी ढांचा

उल्लेखनीय अश्मवैज्ञानिकी एवं कालक्रम विविधताओं सहित विविध भूवैज्ञानिकी संरचनाओं, जटिल विवर्तनिक संरचना, जलवायुवैज्ञानिकी असामनताओं तथा विभिन्न जल रासायनिक परिस्थितियों वाले भारतीय उपमहाद्वीप में भूजल की विशिष्ठता काफी जटिल है । पिछले कुछ वर्षों के दौरान किए गए अध्ययनों से यह ज्ञात होता है कि जलोढ़/ कोमल चट्टानों में जलभृत्त समूह सतही बेसिन सीमा से भी परे है । भूजल के विभिन्न द्रवचालित विशिष्टताओं के आधार पर शैल संरचनाओं के मुख्यत: दो समूहों को अभिज्ञात किया गया है सरंध्र संरचनाएं एवं विदारित सरंचनाएं ।

सरंध्र संरचनाएं

सरंध्र सरंचनाओं को पुन: असंपिंडित एवं अर्ध्दसंपिंडित संरचनाओं के रूप में विभाजित किया जाता है ।

असंपिंडित संरचनाएं

नदी बेसिन, तटीय एवं डेल्टा भूभाग के जलोढ़क अवसादों से आच्छादित क्षेत्र असंपिंडित संरचनाओं का निर्माण करती है । वस्तुत: बड़े पैमाने पर एवं गहन विकास के लिए ये अत्यन्त महत्वपूर्ण भूजल जलाशय हैं । सिन्धु-गंगा- ब्रह्मपुत्र बेसिन में भूजल वैज्ञानिकी वातावरण एवं भूजल क्षेत्र परिस्थिति से मीठे भूजल की बहुलता वाले संभावित जलभृत्तों की मौजुदगी का संकेत मिलता है । अत्यधिक वर्षा से लाभान्वित होने तथा संरध्र अवसादों की मोटी परत से आच्छादित होने के कारण प्रत्येक वर्ष इस भूजल जलाशयों का पुनर्भरण होता रहता है तथा इनका अत्यधिक उपयोग होता है । इन क्षेत्रों में जल स्तर उतार-चढ़ाव क्षेत्र (सक्रिय भूजल संसाधन) में उपलब्ध वार्षिक पुनर्भरणीय भूजल संसाधनों के अतिरिक्त गहरे परिरूध्द जलभृतों के साथ-साथ उच्चावचन क्षेत्र के नीचे गहरे निष्क्रिम पुनर्भरण क्षेत्र में विशाल भूजल रिजर्व मौजूद हैं जो कि प्राय: अनन्वेषित हैं । अधिक भूजल का विकास मूलत: डगवेल, डगवेल सहित बोरवेल तथा कैविटी वैल द्वारा किया जाता है तथापि पिछले कुछ दशकों के दौरान हजारों नलकूपों का भी निर्माण किया गया है ।

अर्द्ध-संपिंडित संरचनाएं

अर्द्ध-संपिंडित संरचनाएं साधारणत: संकरी घाटियों या संरचनात्मक रूप से भ्रंश बेसिन में पाए जाते हैं । गोंडवाना, लाठी, टिपम्स, कुट्टालोर बलुआ पत्थर और इनके समरूप सुप्रवाही कुओं का निर्माण करती है । पूर्वोत्तर भारत के चुनिंदा भूभागों में ये जलधारी संरचनाएं काफी उत्पादक हैं । ऊपरी गोंडवाना जो सामान्यत: बालुकामय है, बहुलोत्पादक जलभृत्त बनाता है।

  1. विदारित संरचनाएं (संपिंडित संरचनाएं)

संपिंडित संरचनाएं देश के लगभग दो-तिहाई भाग में उपलब्ध हैं । र्स्फोटगर्ती ज्वालामुखीय शैल के अतिरिक्त संपिंडित संरचनाओं में प्राथमिक सरंध्रता नगण्य होती है । भूजलवैज्ञानिक दृष्टि से विदारित संरचनाओं को मुख्यत: चार प्रकारों में विभाजित किया जाता है, नामत: ज्वालामुखीय एवं कार्बोनेट शैल के अतिरिक्त आग्नेय एवं कायांतरित शैल, ज्वालामुखी शैल, संपिंडित अवसादीय शैल तथा कार्बोनट शैल ।

ज्वालामुखीय एवं कार्बोनेट शैलों के अतिरिक्त आग्नेय एवं कायांतरी शैल

ग्रेनाइट, नीस, चार्नोकाइट, खोंडालाइट, क्वार्टजाइट, शिस्ट तथा फाइलाइट, स्लेट इत्यादि सामान्य शैल के प्रकार हैं । इन शैलों में प्राथमिक सांध्रता नगण्य होती है परन्तु विभंजन एवं अपक्षयण के कारण इनमें द्वितीयक सांध्रता एवं पारगम्यता का विकास होता है । भूजल उत्पादन क्षमता भी शैल के प्रकार तथा कायांतरण श्रेणी पर निर्भर करता है ।

ज्वालामुखीय शैल

ज्वालामुखीय शैल प्रधानत: दक्कन पठार का बसाल्ट लावा प्रवाह है । विभिन्न प्रवाह इकाईयों की विषम जलधारण विशिष्टताएं दक्कनी ट्रैप में भूजल उपलब्धता को प्रभावित करती हैं । प्राथमिक एवं द्वितीयक रंध्राकाश की मौजुदगी के अधीन दक्कन ट्रैप में साधारणत: अल्प से मध्यम पारगम्यता है ।

कार्बोनेट शैल के अतिरिक्त संपिंडित अवसादी शैल

संपिंडित अवसादी शैल कुडप्पा, विंध्य और इसके समतुल्य में पाए जाते हैं । इन संरचनाओं में संगुटिकाश्म, बलुआ पत्थर, स्लेट और क्वार्टजाइट शामिल हैं । संस्तरण तल, जोड़, संस्पर्श क्षेत्र एवं विभंगों की उपस्थिति भूजल की उपलब्धता, गतिविधि एवं उत्पादन क्षमता को प्रभावित करती है ।

कोर्बोनेट शैल

कुडप्पा, विघ्य और बिजावर शैल समूह में संगमरमर और डोलोमाइट के अतिरिक्त चूना पत्थर महत्वपूर्ण कार्बोनेट शैल हैं । कार्बोनेट शैलों में जल संचरण से घोल गुहिका का सृजन होता है जिससे जलभृत्तों को पारगम्यता में बढ़ोतरी होती है । इसके परिणामस्वरूप कम दूरी पर अत्यधिक विषय पारगम्यता पाई जाती है ।

देश का भूजल संसाधन

मीठे जल के लिए देश के भूजल संसाधन का आकलन जीईसी-97 के दिशा निर्देश और सिफारिशों के आधार पर किया गया है । देश के कुल वार्षिक पुर्नभरणीय भूजल संसाधन का आकलन 433 बिलियन घन मीटर (बीसीएम) के रूप में किया गया है । प्राकृतिक निस्सरण के रूप में 34 बी सी एम को पृथक करते हुए समस्त देश के लिए शुध्द वार्षिक भूजल उपलब्धता 399 बी सी एम है । वार्षिक भूजल ड्राफ्ट 231 बी सीएम है जिसमें से 213 बीसीएम सिंचाई उपयोग तथा 18 बीसीएम घरेलू एवं औद्योगिक उपयोगों के लिए है।

भूजल विकास की स्थिति

देश के भूजल विकास का चरण 58% है । देश के विभिन्न भागों में भूजल का विकास एक समान नहीं है । देश के कुछ भागों में भूजल के अत्यधिक गहन विकास के परिणामस्वरूप अतिदोहन हुआ है जिस कारण कई क्षेत्रों में भूजल स्तर में गिरावट आई है तथा तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल का अन्त:प्रवेश हुआ है । कुल 5723 आकलन प्रशासनिक इकाईयों (ब्लॉक/ तालुक/ मण्डल/ जल ग्रहण क्षेत्र) में से 839 इकाई 'अतिदोहित,' 226 गंभीर, 550 अर्ध्दगंभीर, 4078 इकाई 'सुरक्षित' तथा 30 इकाई 'लवणीय' है ।

भूजल क्षेत्र की मानीटरिंग

भूजल क्षेत्र की मानीटरिंग का मुख्य उद्देश्य प्रदर्शक प्रतिचयन के माध्यम से भूजल स्तर एवं गुणवत्ता के संबंध में सूचना एकत्र करना है । बोर्ड पूरे देश में स्थित 15640 भूजल प्रेक्षण कूपों के नेटवर्क के माध्यम से भूजल स्तर की नियमित मानीटरिंग करता है । वर्ष में चार बार अर्थात जनवरी, अप्रैल/ मई, अगस्त और नवम्बर माह में भूजल स्तर मापा जाता है तथा वर्ष में एक बार अर्थात अप्रैल/ मई के दौरान भूजल गुणवत्ता नमुने एकत्र किए जाते हैं ।

जनवरी, 2007 के दौरान भारत में भूजल स्तर परिदृश्य

जनवरी, 2007 में भारत के जल स्तर गहराई मानचित्र के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि: उपहिमालयी क्षेत्र, गंगा नदी की उत्तरी ओर जल स्तर की गहराई साधारणत: 2-5 मीटर सतह के नीचे (एमबीजीएल) के मध्य है । कुछ स्थानों में 2 मीटर से कम उथला जल स्तर भी देखा गया है । देश के पूर्वी भाग में ब्रह्मपुत्र घाटी में इक्का दुक्का पाकेटों के अलावा जहां जल स्तर की गहराई 2 एम बी जी एल से कम है साधारणत: जल स्तर की गहराई 2-5 एमबीजीएल के मध्य है । हालांकि ऊपरी असम में इक्का दुक्का गहरे जल स्तर वाले पाकेटों में 5-10 एम बी जी एल की गहराई भी पाई गई है । सिंधु बेसिन के अधिकांश भागों में जल स्तर गहराई साधारणत: 10-20 एमबीजीएल के मध्य है । गुजरात और राजस्थान को शामिल करते हुए देश के पश्चिमी भाग में 10-20 एमबीजीएल के मध्य अधिक गहरा जल स्तर पाया गया है । राजस्थान के जोधपुर, चुरू, जालोर, नागौर, झुनझुनु तथा जयपुर जिलों में 40 मी. से गहरी जल स्तर पाई गई । पश्चिमी तट पर जल स्तर सामान्यत: 5-10 मी. के मध्य है । महाराष्ट्र के पश्चिमी भाग में 5 मी. से कम जल स्तर रिकार्ड किया गया । पूर्वी तट अर्थात तटीय आंध्रप्रदेश तथा उड़ीसा में सामान्यत: जल स्तर 2-5 मी. के मध्य है । हालांकि 2 मी. से कम जल स्तर वाले इक्का दुक्का पाकेट भी रिकार्ड किए गए । गंगा बेसिन के पूर्वी भाग में जल स्तर सामान्यत: 2-5 एमबीजीएल के मध्य है । पश्चिम बंगाल के पूर्वी भाग में 5-10 एमबीजीएल के मध्य जल स्तर पाया गया । मध्य भारत में इक्का दुक्का पाकेटों जहां जल स्तर 10 एम बी जी एल से अधिक है सामान्यत: जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के मध्य है । देश के प्रायद्वीपीय भाग में एकाध पाकेटों में जहां जल स्तर 10-20 एमबीजीएल है सामान्यत: जल स्तर 2-10 एमबीजीएल के मध्य है । कुछ पाकेटों में 20-40 मी. तथा 40 मी. से अधिक गहरे जल स्तर भी पाए गए हैं ।

इसी मौसम (जनवरी, 2006) में पिछले वर्ष के जलस्तर की तुलना से यह ज्ञात होता है कि पूरे देश में जल स्तर के मिले जुले रूझान हैं । जल स्तर में गिरावट मुख्यत: आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु राज्य में देखी गई । आंध्रप्रदेश में राज्य के बड़े हिस्से में जल स्तर में व्यापक गिरावट देखी गई । 25% से अधिक मानीटरिंग कुओं में 2 मी. से अधिक जल स्तर में गिरावट पाई गई । 2-4 मीटर की गिरावट तेलगांना क्षेत्र में खम्मम, करीमगंज, रंगारेङ्डी नालगोंडा तथा महबूब नगर में, तटीय क्षेत्र के प्रकासम और नेल्लोर जिलों में तथा रायल सीमा जिले के भागों में देखी गई । कर्नाटक में 2 मी. से अधिक जल स्तर में गिरावट रायचुर, बेल्लारी, चित्रदुर्ग, चिकमगलूर, माण्डया, कोलार, सिमोगा, हवेरी गदग, कोपल, गुलबर्ग, मैसूर, बंगलौर शहरी तथा तुमकूर जिलां में देखी गई । तमिलनाडु में 2-4 एमबीजीएल के मध्य जल स्तर में गिरावट 10% कुओं में पाई गई तथा कन्याकुमारी, नागपट्टनम, नीलगिरी और तुतीकोरीन जिलों के अलावा सभी जिलों में गिरावट का रूझान रहा ।

जनवरी, 2007 और औसत जल स्तर (1997-2006) के बीच जल स्तर में उतार-चढाव से यह ज्ञात होता है कि पंजाब, हरियाणा, चण्डीगढ़, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग तथा पूर्वी राजस्थान में 20% से अधिक मानीटरिंग कुओं में जल स्तर में 2 मी. से अधिक की गिरावट देखी गई । पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय के भागों, त्रिपुरा और झारखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में जल स्तर में 2 मी. से अधिक की बढ़ोतरी हुई । आंध्रप्रदेश में अदिलाबाद, करीमनगर, मेडक, नालगोंडा और महबूबनगर जिलों तथा पश्चिमी गोदावरी, कुडुप्पा और चित्तूर जिलों के छोटे छिटपुट क्षेत्रों में जलस्तर में 4 मी. से अधिक की बढ़ोतरी देखी गई । उत्तरप्रदेश में अलीगढ़, भरूच, बलरामपुर, बिजनौर, चन्दौली, झाँसी, महाराजगंज जिलों के भागों में जल स्तर में 2 मी. तक की बढ़ोतरी देखी गई । आगरा, इलाहाबाद, बांदा, झांसी, कानपुर, मथुरा, प्रतापगढ़, मुरादाबाद और वाराणसी जिलों में 4 मी. से अधिक की गिरावट पाई गई ।

भूजल प्रबंधन अध्ययन

भूजल संसाधन सक्रिय अवस्था में पाया जाता है अत: इसमें आवधिक परिवर्तन होते रहते हैं । भूजल प्रबंधन अध्ययन (जीडब्ल्यूएमएस) पहले किए गए अध्ययनों के संदर्भ में गुणवत्ता और मात्रा के संबंध में भूजल प्राप्ति, उपलब्धता और उपयोग के परिदृश्य को अद्यतन करने के लिए अनिवार्य है । जी डब्ल्यू एम.एस. के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:-

1. गुणवत्ता और मात्रा के संबंध में भूजल क्षेत्र की अद्यतन रूपरेखा तैयार करना । 2. भूजल परिदृश्य को प्रभावित करने वाले घटकों का निर्धारण करना । 3. भूजल से संबंधित समस्याओं और विषयों की पहचान करना तथा कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त उद्देश्य आधारित प्रबंधन कार्यनीति उपलब्ध कराना । 4. भूजल क्षेत्र पर मौजूदा डाटाबेस को अद्यतन करना । 5. भूजल संभावित क्षेत्रों को रेखांकित करना । 6. विशिष्ट समस्याओं के लिए उपयुक्त अनुवर्ती कार्रवाई/ उपचारी उपाय/ प्रशासनिक एवं तकनीकी उपायों संबंधी सुझाव देना ।

'अतिदोहित' और 'गंभीर क्षेत्र,' कठोर चट्टानी क्षेत्र, तटीय क्षेत्र,जनजातीय एवं सूखा प्रवण क्षेत्र, प्राकृतिक संदुषित क्षेत्र, शहरी क्षेत्र तथा जलग्रसित आदि क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जाती है ।

भूजल अन्वेषण

वेधन की सहायता से भूजल अन्वेंषण, बोर्ड की प्रमुख गतिविधियों में से एक है, इसका उद्देश्य विभिन्न भूजलवैज्ञानिक परिस्थितियों में जलभृत्तों की खोज करना तथा जलीय पैरामीटर का पता लगाना है । वर्ष 1954 के दौरान बड़े पैमाने पर भूजल के लिए उपसतही अन्वेषण कार्यक्रम की शुरूआत की गई थी । आरंभ के वर्षों में समन्वेषी वेधन गतिविधियाँ मुख्य नदी बेसिन के जलोढ़ भूभाग तथा हिमालयी गिरी पद के उपपर्वतीय बोल्डर भूभाग तक ही सीमित था । अस्सी के मध्य में केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने 26 नए डीटीएच वेधन रिगों को शामिल किया जिससे कठोर चट्टानी क्षेत्र में वेधन को नई गति प्राप्त हुई । नब्बे के दशक में समन्वेषी वेधन कार्यक्रम कठोर चट्टानी क्षेत्र को मुख्य लक्ष्य बनाया गया । नब्बे के पूर्वार्ध्द में एक उल्लेखनीय विकास यह हुआ कि भारत में ओपन होल ड्रिलिंग प्रौद्योगिकी का आरंभ किया गया। केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा देश भर में 27,500 से अधिक कुओं की खुदाई की गई है । भ्ूजल अन्वेषण कार्यक्रम के तहत जनजातीय एवं सूखा प्रवण क्षेत्रों सहित देश में जल की कमी वाले क्षेत्रों में उच्च उत्पादन क्षमता वाले कुओं की खुदाई की गई । इनमें से अधिकांश कुओं को लोक जलापूर्ति के लिए संबंधित राज्य सरकारों को सौंप दिया गया है । वर्ष 1993 के दौरान लातुर भूकंप, 2001 के दौरान भुज भुकंप, 2000 के दौरान उड़ीसा में सुपर साइक्लोन तथा 2004 के दौरान सुनामी द्वारा प्रभावित तमिलनाडु और केरल तथा अंडमान और निकोबार के तटीय क्षेत्र में जल आपूर्ति के लिए नलकूपों के निर्माण द्वारा बोर्ड ने आपदा प्रशमन में अपनी भूमिका निभाई ।

कृत्रिम पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन अध्ययन

लगातार घटते भूजल संसाधनों के संवर्धन के लिए यह आवश्यक है कि अधिशेष मानसून अपवाह जो बहकर समुद्र में चला जाता है, का संचयन और पुनर्भरण किया जाए ताकि भूजल संसाधनों का संवर्धन हो सके । व्यवहार्य भूजल भण्डारण का आकलन 214 बिलियन घन मी. (बीसीएम) के रूप में किया गया है जिसमें से 160 बीसीएम की पुन: प्राप्ति हो सकती है । केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने देश में भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए एक संकल्पनात्मक योजना तैयार की है । देश के 3,28,7263 वर्ग किलोमीटर के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में 4,48,760 वर्ग किमी. क्षेत्रफल को कृत्रिम पुनर्भरण के लिए पहचान की गई है । पुनर्भरण किए जाने वाले कुल अधिशेष मानसून अपवाह की मात्रा 36.4 बीसीएम आंकी गई है। केन्द्रीय भूमि जल बोर्ड ने एक मैनुअल और तदुपरान्त भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण पर एक निर्देशिका तैयार की है जिसमें स्थल के चयन संबंधी अनुसंधान तकनीक, कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के डिजाइन, पुनर्भरण सुविधाओं का आर्थिक मूल्यांकन एवं मानीटरिंग संबंधी दिशानिर्देशों को शामिल किया गया है । यह निर्देशिका देश के विभिन्न भागों में भूजल के संवंर्धन के लिए पुनर्भरण स्कीमों की आयोजना एवं कार्यान्वयन में लगे राज्यों/ संघ शासित क्षेत्रों के लिए बहुउपयोगी है।

नवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 'भूजल के पुनर्भरण पर अध्ययन' के संबंध में केन्द्रीय क्षेत्र की एक स्कीम का आरंभ किया गया जिसके अन्तर्गत 27 राज्यों/ संघ शासित क्षेत्रों में 165 पुनर्भरण परियोजनाओं का कार्यान्वयन किया गया । मानसून 2003 से पहले पूरी हो चुकी पुनर्भरण परियोजनाओं के प्रभाव आकलन से जल स्तर में बढ़ोतरी और डगवेलों/ नलकूपों के स्थायित्व, मृदा कटाव में गिरावट तथा फसल उत्पादन में बढ़ोतरी के कारण लाभार्थी क्षेत्र के किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में प्रगति हुई है।

दसवीं योजना के दौरान वर्ष 2006-07 के दौरान केंद्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु के 8 जिलों में 5.95 करोड़ रूपये की कुल लागत से भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण एवं वर्षा जल संचयन संबंधी प्रदर्शनात्मक अध्ययन आरंभ किया गया है । 200 में से 189 कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं का निर्माण पूरा हो चुका है, शेष निर्माणाधीन हैं । केंद्रीय भूमि जल बोर्ड द्वारा पूर्ण की गई पुनर्भरण परियोजनाओं का प्रभाव आकलन अध्ययन जारी है ।

ग्यारहवीं योजना में प्रदर्शनात्मक पुनर्भरण परियोजना केंद्रीय भूमि जल बोर्ड तथा राज्य की एजेंसियों के समन्वय से व्यवहार्य क्षेत्रों, संरचनाओं और अन्य कार्य-रीति के लिए स्थलों का अध्ययन किया जा रहा है । तमिलनाडु, पंजाब, केरल, आंध्रप्रदेश और अरूणाचल प्रदेश से प्राप्त कृत्रिम पुनर्भरण परियोजनाओं के लिए विस्तृत परियोजना रिपोर्ट विचाराधीन है ।

वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से निम्नलिखित उपाय किए गए हैं:-

i) अधिसूचित क्षेत्रों में: दक्षिण और दक्षिण पश्चिम जिलों, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली; फरीदाबाद नगर निगम और बल्लभगढ़, फरीदाबाद जिला, हरियाणा; गाजियाबाद नगर निगम, गाजियाबाद जिला, उत्तरप्रदेश; गुड़गांव शहर और गुड़गांव जिले के समीपवर्ती औद्योगिक क्षेत्रों; हरियाणा के अधिसूचित क्षेत्रों में स्थित ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी, संस्थानों/स्कूलों,होटलों, औद्योगिक संस्थानों और फार्म हाउसों को छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली अपनाने के आदेश दिए गए हैं। ii) गैर अधिसूचित क्षेत्रों में:- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के ऐसे क्षेत्रों जहां पर भूजल स्तर 8 मी. से अधिक है और भूजल का दोहन किया जा रहा है, यहाँ स्थित सभी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी को छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली को अपनाने के आदेश दिए गए हैं । iii) केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण और जल संसाधन मंत्रालय ने सभी राज्यों और संघ राज्यों के मुख्य सचिवों से भूजल संसाधनों के संवर्धन के उद्देश्य से भवन उपनियमों में छत के वर्षा जल संचयन के प्रावधान को शामिल करने का अनुरोध किया गया है । iv) विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालयों जैसे रक्षा मंत्रालय, संचार, रेलवे, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को भी भूजल संसाधनों के संवर्धन के उद्देश्य से अपने भवनों में छत के वर्षा जल संचयन प्रणाली को अपनाने का अनुरोध किया गया है । v) दिल्ली सहित विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा छत के वर्षा जल संचयन को अनिवार्य बनाने के लिए विनियामक उपायों (अनुबंध-III से लिंक) को लागू किया/ प्रस्तावित किया है ।

जागरूकता अभियान

भूजल संचयन उपायों के संबंध में केन्द्रीय भूमि जल प्राधिकरण ने जागरूकता अभियान आरंभ किया है । इन गतिविधियों का सारांश निम्नलिखित है:-

i) जन जागरूकता: केन्द्र/राज्य/गैर सरकारी संगठनों, स्वायत्त संगठनों, आवास कल्याण संगठनों, शैक्षणिक संस्थानों, उद्योगों और व्यक्तियों को शामिल करते हुए देश भर में वर्षा जल संचयन एवं भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण पर जन जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर रहा है । ii) वर्षा जल संचयन पर प्रशिक्षण: विभिन्न क्षेत्रों और विविध भूजलवैज्ञानिक परिस्थितियों में भूजल के संवर्धन के लिए वर्षा जल संचयन संरचनाओं की डिजाइनिंग के वास्ते क्षमता निर्माण उपाय के रूप में संसाधन घटकों के उत्सर्जन के उद्देश्य से प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर रहा है । iii) वर्षा जल संचयन के लिए तकनीकी दिशानिर्देश: देश के विभिन्न भागों में 1800 से अधिक स्थलों पर वर्षा जल संचयन संरचनाओं के लिए तकनीकी दिशानिर्देश और डिजाईन उपलब्ध कराए गए । iv) जल संचयन अभियान: फ्रेश वाटर इयर के दौरान विभिन्न समूह वर्गों जैसे युवा और बच्चों, महिलाओं, किसानों और ग्रामीणों,नीति निर्माताओं को लक्ष्य में रखकर जल संचयन अभियान की शुरूआत की गई । इस उद्देश्य के लिए विभिन्न प्रचार उपायों जैसे प्रिंट मीडिया, दूरदर्शन पर स्पाट का प्रसारण, रेडियो पर संदेश प्रसारण, सेमिनार, कार्यशाला, सम्मेलन आदि का आयोजन किया गया । डाक विभाग के माध्यम से हिन्दी और अंग्रेजी के मेघदूत पोस्टकार्ड के मुद्रण, डाक वाहनों, डाक पेटी पर स्लोगन द्वारा भी जागरूकता बढ़ाई गई । v) फिल्मों का निर्माण: शहरी क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन, ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन, भूजल प्रदूषण आदि पर फिल्मों का निर्माण किया गया और विभिन्न जन जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान इनका प्रदर्शन किया गया । vi) प्रदर्शनियों के माध्यम से जागरूकता: भूजल प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं पर कार्य माडल के प्रदर्शन और प्रर्दशनियों एवं महत्वपूर्ण अवसरों पर स्टॉल लगाकर जागरूकता का सृजन किया गया ।

जल संबंधी समस्याएँ

सूखा

देश में सूखा-प्रवण क्षेत्र

सिंचाई आयोग १९७२ ने ८ राज्यों में स्थित ३२६ तालुकों को शामिल करते हुए ६७ सूखा-प्रवण क्षेत्र अभिज्ञात किए हैं जिनका क्षेत्र ४९.७३ मिलियन हैक्टेयर है। तदनन्तर राष्ट्रीय कृषि आयोग ने किंचित भिन्न मानदण्ड अपनाते हुए कुछ और सूखा-प्रवण क्षेत्र अभिज्ञात किए। सीडब्लयूसी के १९७८ में स्थापित भूतपूर्व सूखाक्षेत्र अध्ययन और अन्वेषण संगठन ने और आगे अध्ययन करने के उद्देश्य से सिंचाई आयोग और साथ ही राष्ट्रीय कृषि आयोग द्वारा अभिज्ञात जिलों की सूची पर विचार करने के बाद ९९ जिलों के साथ शुरूआत की।

सूखे के अभिज्ञान

अध्ययन के प्रयोजन के लिए केन्द्रीय जल आयोग ने उसी मानदण्ड का पालन किया जोकि सिंचाई आयोग १९७२ द्वारा अपनाया गया था अर्थात सूखा किसी ऐसे क्षेत्र में होने वाली स्थिति होती है। जहां जांच किए गए वर्षों के २०% वर्षों में वार्षिक वर्षा सामान्य के ७५% से कम होती है। खेती का ३०% से कम क्षेत्र सिंचित होता है। केन्द्रीय जल आयोग ने सूखा अभिज्ञान अध्ययन के लिए जिलों की तुलना में छोटी इकाई अर्थात तालुका अपनाया और इस प्रकार ९९ जिलों में स्थित कुल ७२५ तालुकों में से ३१५ अभिज्ञात किए गए। तदनुसार ९९ जिलों के १०८ मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में से ७४ जिलों में फैला हुआ केवल ५१.१२ मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र सूखा-प्रभावित क्षेत्र माना गया है। इस प्रकार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (३२९ मिलियन हैक्टेयर) के मुकाबले लगभग १/६ भाग सूखा-प्रवण क्षेत्र है।

सूखा प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई की स्थिति

सिंचाई, सबसे अधिक प्रभावी सूखा बचावकारी तंत्र तथा कृषि उत्पादन में काफी मात्रा में स्थिरता लाने वाला एकमात्र सबसे बड़ा तत्व सिद्ध हुआ है। सूखा प्रवण क्षेत्रों में सिंचाई की राज्य-वार स्थिति तालिका 1 में दी गई है। यह देखा जा सकता है कि सूखा-प्रवण जिलों का कुल भौगोलिक क्षेत्र १०८ मिलियन हैक्टेयर है जिसमें से ८१ मिलियन हैक्टेयर (७५%) कृष्य, सकल बुवाई क्षेत्र ६१.९ मिलियन हैक्टेयर (५७.४%) तथा सकल सिंचित क्षेत्र १४.३ मिलियन हैक्टेयर है। सूखा-प्रवण जिलों में फसल के अधीन कुल क्षेत्र में से लगभग २३.२३% क्षेत्र सिंचित है जबकि इस आशय का अखिल भारतीय औसत ३०.१५% है।

राष्ट्रीय जल पुरस्कार

भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कार एवं राष्ट्रीय जल पुरस्कार

22.07.2006 को आयोजित भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण संबंधी सलाहकार परिषद की पहली बैठक में की गई सिफारिश के अनुसार, जल संसाधन मंत्रालय ने पंजीकृत गैर सरकारी संगठनों, ग्राम पंचायतों एवं शहरी स्थानीय निकायों (1 लाख तक की जनसंख्या के लिए) द्वारा वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण के माध्यम से भूमि जल संवर्धन की नूतन पध्दतियों को अपनाने के लिए वर्ष 2007 के दौरान एक राष्ट्रीय पुरस्कार सहित 18 भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कारों की शुरूआत की थी । 11.09.2008 को आयोजित भूजल सम्मेलन के समापन सत्र के दौरान भारत की महामहिम राष्ट्रपति द्वारा वर्ष 2007 के प्रथम भूजल पुरस्कार दिए गए । राष्ट्रीय जल पुरस्कार महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बजार ग्राम पंचायत को दिया गया तथा भूमि जल संवर्धन पुरस्कार 14 ग्राम पंचायतों/गैर सरकारी संगठनों/स्थानीय निकायों को दिए गए ।

उपरोक्त पुरस्कारों के क्षेत्र को व्यापक करने के लिए दिशानिर्देश संशोधित किए गए हैं और किसान सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम का कार्यान्वयन कर रहे संस्थानों, कारपोरेट क्षेत्र तथा व्यक्ति विशेष/संस्थानाें की 3 और श्रेणियां शामिल की गई हैं । संशोधित दिशानिर्देशों के अनुसार, वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण, जल उपयोग दक्षता को प्रोत्साहित कर, पुन:चक्रण एवं पुन:उपयोग द्वारा भूजल संवर्धन की नूतन पध्दतियां अपनाने तथा दावाधारकों के बीच भूजल संसाधन और पर्याप्त क्षमता के विकास को बनाए रखने के लिए लक्षित क्षेत्रों में लोगों की भागीदारी के माध्यम से जागरूकता पैदा करने के लिए गैर सरकारी संगठनों (एनजीओएस) /ग्राम पंचायतों/शहरी स्थानीय निकायों (1 लाख तक की जनसंख्या के लिए)/संस्थानों/निगमित क्षेत्र और व्यक्ति विशेष को बढ़ावा देने के उद्देश्य से भूमि जल संवर्ध्दन पुरस्कार और राष्ट्रीय जल पुरस्कार शुरू किए गए हैं।

वे श्रेणियां जिनके लिए पुरस्कार शुरू किए गए हैं इस प्रकार हैं :-

1-3. लक्षित क्षेत्रों में लोगों की भागीदारी के माध्यम से वर्षा जल संचयन और कृत्रिम पुनर्भरण के माध्यम से भूजल संवर्ध्दन के लिए नूतन पध्दतियों को अपनाने के लिए गैर सरकारी संगठनों (एनजीओएस)/ ग्राम पंचायतों एवं शहरी स्थानीय निकायों (1लाख तक की जनसंख्या के लिए) के लिए ।

4. प्रौद्योगिकी की जल उपयोग दक्षता एवं प्रभावकारिता और लोगों द्वारा इसकी स्वीकृति को बढ़ावा देने में किसान सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम का कार्यान्वयन करने वाले संस्थानों के लिए ।

5. कारपोरेट सेक्टर के लिए- वर्षा जल संचयन, पुन:चक्रण और पुन: उपयोग के द्वारा जल का संरक्षण करने में तथा प्रदूषण नियंत्रण और जल गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए उपाय शुरू करने के संबंध में जागरूकता को बढ़ावा देना ।

6. वर्षा जल संचयन के लिए नई तकनीकों का विकास करने, जल से संबंधित लगभग सभी मामलों में जागरूकता लाने में कार्यरत व्यक्तियों/संस्थानों के लिए । भूजल पुनर्भरण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन, बेहतर प्रयासों के विकास / कार्यान्वयन में सफलता ।

संदर्भ