जल संसाधन

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जल संसाधन

पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई हिस्से पर विश्र्व के महासागरों का अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा लगミग 1400 मिलियन घन किलोमीटर है जो कि पृथ्वी पर 3000 मीटर गहरी परत बिछा देने के लिए काफी है। तथापि जल की इस विशाल मात्रा में स्वच्छ जल का अनुपात बहुत कम है। पृथ्वी पर उपलब्ध समग्र जल में से लगभग 2.7 प्रतिशत जल स्वच्छ है जिसमें से लगभग 75.2 प्रतिशत जल ध्रुवीय क्षेत्रों में जमा रहता है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में विद्यमान है। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमण्डल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। जल की जो मात्रा उपभोग और अन्य प्रयोगों के लिए वस्तुतः उपलब्ध है, वह नदियों, झीलों और भूजल में उपलब्ध मात्रा का छोटा-सा हिस्सा है। इसलिए जल संसाधन विकास और प्रबन्ध की बाबत संकट इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि अधिकांश जल उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता और दूसरे इसका विषमतापूर्ण स्थानिक वितरण इसकी एक अन्य विशिष्टता है। फलतः जल का महत्व स्वीकार किया गया है और इसके किफायती प्रयोग तथा प्रबन्ध पर अधिक बल दिया गया है।

पृथ्वी पर उपलब्ध जल जल-वैज्ञानिक चक्र के माध्यम से चलायमान है। अधिकांश उपभोक्ताओं जैसे कि मनुष्यों, पशुओं अथवा पौधों के लिए जल के संचलन की जरूरत होती है। जल संसाधनों की गतिशील और नवीकरणीय प्रकृति और इसके प्रयोग की बारम्बार जरूरत को दृष्टिगत रखते हुए यह जरूरी है कि जल संसाधनों को उनकी प्रवाह दरों के अनुसार मापा जाए। इस प्रकार जल संसाधनों के दो पहलू हैं। अधिकांश विकासात्मक जरूरतों के लिए प्रवाह के रूप में मापित गतिशील संसाधन अधिक प्रासंगिक हैं। आरक्षित भण्डार की स्थिर अथवा नियत प्रकृति और साथ ही जल की मात्रा तथा जल निकायों के क्षेत्र की लम्बाई व मत्स्यपालन, नौ संचालन आदि जैसे कुछेक क्रियाकलापों के लिए भी प्रासंगिक है। इन दोनों पक्षों पर नीचे चर्चा की गई है।

सिंचाई का संसार

विश्र्व में देश-वार भौगोलिक क्षेत्र, कृषि-योग्य भूमि और सिंचित क्षेत्र का विश्र्लेषण करने पर ऐसा पता चलता है कि महाद्वीपों के बीच सर्वाधिक विशाल भौगोलिक क्षेत्र अफ्रीका में स्थित है जो कि विश्र्व के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 23 प्रतिशत बैठता है। तथापि मात्र 21% भौगोलिक क्षेत्र वाले एशिया (यूएसएसआर के भूतपूर्व देशों को छोड़कर) में विश्र्व की लगभग 32 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है जिसके बाद उत्तर केन्द्रीय अमरीका का स्थान आता है जिसमें लगभग 20 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि है। अफ्रीका में विश्र्व की केवल 12% कृषि-योग्य भूमि है। यह देखा गया है कि विश्र्व में सिंचित क्षेत्र 1994 में कृषि-योग्य भूमि का लगभग 18.5 प्रतिशत है। 1989 में विश्र्व का 63% सिंचित क्षेत्र एशिया में था जबकि 1994 में इस आशय का प्रतिशत बढ़कर 64 प्रतिशत तक पहुंच गया। साथ ही 1994 में एशिया की 37 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि की सर्वाधिक विशाल मात्रा है जो कि एशिया की कृषि-भूमि का लगभग 39 प्रतिशत बैठती है। केवल संयुक्त राज्य अमरीका ऐसा देश है जहां भारत की तुलना में अधिक कृषि-योग्य भूमि है।

भारतीय संविधान में जल की स्थिति

भारत राज्यों का संघ है। राज्य और केन्द्र के बीच दायित्वों के आबंटन के सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधान तीन श्रेणियों में आते हैं: संघ सूची (सूची-I), राज्य सूची (सूची-II) तथा समवर्ती सूची (सूची-III)। संविधान के अनुच्छेद 246 का सम्बन्ध संसद और राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाई जाने वाली विधियों की विषय-वस्तु के साथ है। क्योंकि देश में अधिकांश नदियां अन्तर्राज्यीय हैं, इन नदियों के पानी का विनियमन और विकास अन्तर्राज्यीय मतभेदों और विवादों का कारण है। संविधान में जल सूची-II अर्थात राज्य सूची की प्रविष्टि 17 में शामिल है। यह प्रविष्टि सूची-I अर्थात संघ सूची की प्रविष्टि 56 के प्रावधान के अध्यधीन है। इस सम्बन्ध में विशिष्ट प्रावधान निम्नानुसार हैः

अनुच्छेद 246

(1) खंड (2) और खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद का सातवीं अनुसूची की सूची 1 में (जिसे इस संविधान में 'संघ सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।

(2) खंड (3) में किसी बात के होते हुए भी , संसद को और खंड (1) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को भी, सातवीं अनुसूची की सूची III में (जिसे इस संविधान में 'समवर्ती सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है।

(3) खंड (1) और खंड (2) के अधीन रहते हुए, किसी राज्य के विधान-मंडल को सातवीं अनुसूची की सूची II में (जिसे इस संविधान में 'राज्य सूची' कहा गया है) प्रगणित किसी भी विषय के सम्बन्ध में उस राज्य या उसके किसी भाग के लिए विधि बनाने की अनन्य शक्ति है।

(4) संसद को भारत के राज्यक्षेत्र के ऐसे भाग के लिए जो किसी राज्य के अंतर्गत नहीं है, किसी भी विषय के सम्बन्ध में विधि बनाने की शक्ति है, चाहे वह विषय राज्य सूची में प्रगणित विषय ही क्यों न हो।

अनुच्छेद 262

जल सम्बन्धी विवादों के सम्बन्ध में अनुच्छेद 262 में निम्न प्रावधान हैः (1) संसद, विधि द्वारा, किसी अंतर्राज्यिक नदी या नदी-घाटी के या उसमें जल के प्रयोग, वितरण या नियंत्रण के सम्बन्ध में किसी विवाद या शिकायत के न्याय निर्णयन के लिए उपबंध कर सकेगी।

(2) इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी, संसद, विधि द्वारा, उपबंध कर सकेगी कि उच्चतम न्यायालय या कोई अन्य न्यायालय खंड (1) में निर्दिष्ट किसी विवाद या शिकायत के सम्बन्ध में अधिकारिता का प्रयोग नहीं करेगा।

सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56

सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि में यह प्रावधान है कि उस सीमा तक अंतरराज्यिक नदियों और नदी-घाटियों का विनियमन और विकास, जिस तक संघ के नियंत्रण के अधीन ऐसे विनियमन और विकास को संसद विधि द्वारा, लोकहित में समीचीन घोषित करें।

सातवीं अनुसूची की सूची I I

सातवीं अनुसूची की सूची II के अधीन प्रविष्टि 17 में यह प्रावधान है कि सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन रहते हुए जल अर्थात जल प्रदाय, सिंचाई और नहरें, जल निकास और तटबन्ध, जल भंडारकरण और जलशक्ति।

इस प्रकार केन्द्रीय सरकार को सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 56 के अधीन केन्द्रीय सरकार को उस सीमा तक अन्तरराज्यिक नदियों का विनियमन और विकास करने की शक्ति प्राप्त है जिस तक संसद, विधि द्वारा लोकहित में समीचीन घोषित करे। साथ ही उसे संविधान के अनुच्छेद 262 के अधीन अन्तर्राज्यीय नदी अथवा नदी घाटी से सम्बन्धित किसी विवाद के अधिनिर्णय के लिए विधियां बनाने की शक्ति भी प्राप्त है।

विकास की स्थिति

अंग्रेजों के समय में सिंचाई विकास

अंग्रेजी शासन के दौरान सिंचाई विकास की शुरूआत मौजूदा कार्यों जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है के नवीकरण, सुधार और विस्तार के साथ हुई। पर्याप्त अनुभव और विश्र्वास अर्जित कर लेने के बाद सरकार ने नए वृहद कार्य हाथ में लिए जैसे कि ऊपरी गंगा नहर, ऊपरी बड़ी दोआब नहर तथा कृष्णा और गोदावरी डेल्टा प्रणालियां जो सभीकाफी बड़े आकार के नदी-अपवर्तन कार्य थे। 1836 से 1866 तक की अवधि इन चार वृहद कार्यों की जांच, विकास और पूर्ति के प्रति समर्पित थी। 1867 में सरकार ने ऐसे कार्य हाथ में लेने की परिपाटी अपनाई जो कि न्यूनतम शुद्ध लाभ का आश्र्वासन देते थे। इसके बाद अनेक परियोजनाएं हाथ में ली गईं जिनमें सिरहिन्द, निम्न गंगा, आगरा और मुथा नहरों तथा पेरियार बांध और नहरों जैसे वृहद नहर कार्य शामिल थे। इस अवधि के दौरान सिंधु प्रणाली पर कुछ अन्य वृहद नहर परियोजनाएं भी पूरी की गईं। इनमें निम्न स्वात, निम्न सोहाग और पारा, निम्न चिनाब और सिघनई नहर शामिल थी जिनमें से सभी1947 में पाकिस्तान में चली गई।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सूखे और अकाल की पुनरावृत्ति के कारण फसलों के असफल हो जाने की स्थिति में सुरक्षा प्रदान करने और बाढ़ राहत पर बड़े पैमाने पर होने वाले खर्च को कम करने के लिए सिंचाई का विकास जरूरी हो गया। क्योंकि न्यून वर्षा भू-भाग में सिंचाई कार्यों के सम्बन्ध में ऐसा सोचा गया था कि उनके लिए उत्पादकता परीक्षण की पूर्ति करना संभव नहीं होगा, इसलिए उनका वित्तपोषण चालू राजस्व से करना पड़ा। इस अवधि के दौरान निर्मित महत्वपूर्ण संरक्षणात्मक कार्य थेः बेतवा नहर, नीरा बायां तट नहर, गोकक नहर, खसवाड़ तालाब तथा ऋषिकुल्य नहर। दो प्रकार के कार्यों अर्थात उत्पादक और सुरक्षात्मक कार्यों के बीच सरकार की तरफ से उत्पादक कार्यों की ओर अधिक ध्यान दिया गया। अंग्रेजों के शासनाधीन भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सिंचित सकल क्षेत्रफल लगभग 7.5 मिलियन हैक्टेयर था। इसमें से 4.5 मिलियन हैक्टेयर लघु कार्यों जैसे कि तालाबों, आप्लावन आदि से प्राप्त हुआ था जिनके सम्बन्ध में कोई स्वतंत्र पूंजी लेखे नहीं रखे गए थे। सुरक्षा कार्यों से सिंचित क्षेत्र 0.12 मिलियन हैक्टेयर से थोड़ा-सा अधिक था।

घरेलू जल आपूर्ति

राष्ट्रीय जल नीति ने पेयजल आपूर्ति की जरूरत को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है जिसके बाद सिंचाई, जल-विद्युत, नौसंचालन और औद्योगिक तथा अन्य प्रयोगों का स्थान आता है। क्रमिक पंचवर्षीय योजनाओं तथा उनके बीच आने वाली वार्षिक योजनाओं में जल आपूर्ति और सफाई प्रणालियां तेजी से विकसित करने की दिशा में प्रयास किए गए हैं। "अन्तर्राष्ट्रीय पेयजल आपूर्ति और सफाई दशक" के सन्दर्भ में इस दशक के अन्त अर्थात मार्च, 1991 तक शहरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत जनता को जल आपूर्ति सुविधाएं उपलब्ध कराने, शहरी क्षेत्रों में 80 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 25 प्रतिशत जनता तक सफाई सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भारत सरकार ने अप्रैल, 1981 में दशकीय कार्यक्रमों की शुरूआत की। तथापि वित्तीय तथा अन्य कठिनाइयों के चलते दशक के लिए मूलतः जो लक्ष्य निर्धारित किए गए थे उन्हें घटाकर शहरी जल आपूर्ति के मामले में 90 प्रतिशत तथा ग्रामीण जल आपूर्ति के मामले में 85 प्रतिशत और शहरी स्वच्छता के मामले में 50 प्रतिशत तथा ग्रामीण स्वच्छता के मामले में 5 प्रतिशत कर दिया गया। अपनाई गई नीति के अनुसार पेयजल के लिए प्रावधान सभीजल संसाधन परियोजनाओं में किया जाएगा। भारत में अधिकांश महानगरों/शहरों की पेयजल मांगों की पूर्ति निकटस्थ क्षेत्रों में स्थित सिंचाई/बहुद्देश्यीय स्कीमों के जलाशयों और यहां तक कि लम्बी दूरी के अन्तरण द्वारा की जाती है। टिहरी बांध से दिल्ली को तथा तेलुगु गंगा परियोजनाओं के जरिए चेन्नई को कृष्णा जल से पेयजल की आपूर्ति अनूठे उदाहरण हैं।

जल-विद्युत शक्ति

भारत के पास विशेष रूप से उत्तरी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल-विद्युत उत्पादन की विशाल क्षमता मौजूद है। केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के एक अनुमान के अनुसार देश में 60 प्रतिशत भार गुणांक पर 84,000 मेगावाट क्षमता का आकलन किया गया है जो कि वार्षिक ऊर्जा उत्पादन के लगभग 450 बिलियन यूनिटों के बराबर है। बेसिन-वार विभाजन नीचे प्रस्तुत हैः

क्रम संख्या बेसिन 60 प्रतिशत भार गुणांक पर क्षमता (मेगावाट)
1. सिंधु बेसिन 20,000
2. ब्रह्मपुत्र बेसिन 35,000
3. गंगा बेसिन 11,000
4. केन्द्रीय भारत बेसिन 3,000
5. पश्चिम की ओर बहने वाली नदी प्रणाली 6,000
6. पूर्व की ओर बहने वाली नदी प्रणाली 9,000
योग 74,000

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 1362 मेगावाट की कुल स्थापित क्षमता में से जल-विद्युत उत्पादन क्षमता 508 मेगावाट थी। तदनन्तर क्षमता बढ़कर 13,000 मेगावाट तक पहुंच चुकी है। इसके अलावा निर्माणाधीन परियोजनाओं से 6,000 मेगावाट अलग से उपलब्ध है। पहले ही मंजूर की जा चुकी परियोजनाओं से लगभग 3,000 मेगावाट क्षमता के उपलब्ध होने की संभावना है। इस प्रकार काम में लगाई गई/लगाई जा रही कुल क्षमता लगभग 22,000 मेगावाट बैठेगी जो कि अनुमानित क्षमता का लगभग एक चौथाई है।









जल संसाधन मंत्रालय