ज्वालामुखी

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लेख सूचना
ज्वालामुखी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 95-98
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विष्णुदत्त शुक्ल

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ज्वालामुखी सामान्यत: ऐसे शंक्वाकार पर्वत को कहते हैं जिसके शिखरवाले ज्वालामुख से समय समय पर गैस, शैलखंड, लावा (lava) प्रवाह आदि निकलते रहते हैं। वस्तुत: ज्वालामुखी पर्वत में ऐसे नल का होना अनिवार्य है जो भूपटल के नीचे पाए जानेवाले द्रवित शैलपुंज के पदार्थ को बाहरी भूभाग से मिलाए। इस नल को ज्वालामुखी का निर्गम अथवा ज्वालामुखी नाल कहते हैं। नल के विवर को घेरे हुए शंक्वाकार शैलपुंज को ज्वालामुखीय संरचना (edipice) कहते हैं। अपने देश में इन पर्वतों से अग्नि की लपटें निकलने के कारण, ठीक ही इन्हें ज्वालामुखी पर्वत कहते हैं। इन पर्वतों के आकार में विशेष भिन्नता पाई जाती है। कठिनाई से एक मधुमक्खी के छत्ते के बराबर से लेकर ये विश्व के उच्चतम शिखरवाले पर्वतों तक के आकार के होते हैं, उदाहरणार्थ इक्वेडोर प्रदेश में स्थित १९,६०० फुट ऊँचा कोटोपैक्सी, विश्व का उच्चतम क्रियाशील ज्वालामुखी है। ये तीन प्रकार के, क्रियाशील, सुषुप्त और अवमृत, होते हैं। क्रियाशील उन्हें कहते हैं जिनके विवर से गैसें सतत निकलती रहती हैं और वे किसी भी क्षण उग्र रूप धारण कर सकते हैं, सुषुप्त उन्हें कहते हैं जो संप्रति क्रियाशून्य दिखाई पड़ते हैं, परंतु भविष्य में जिनके पुन: क्रियाशील होने की संभावना रहती है। अवमृत उन्हें कहते हैं जिनकी ज्वालामुखी क्रिया सर्वदा के लिये विनष्ट हो गई है।

द्रव्य का निष्कासन

ज्वालामुखी निर्गम से तीन प्रकार के द्रव्य, गैसे, शिला-अपखंडों के रूप में ठोस, और द्रवित शिलाओं के रूप में तरल पदार्थ निकलते रहते हैं।

गैसें

उद्भेदन (eruption) काल में ज्वालामुखी के ऊपर आच्छादित सघन बादलों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्रियाशील ज्वालामुखियों से वाष्प अति प्रचुर मात्रा में निकलती है। सामान्यत: देखा जाता है कि ज्वालामुखी के समीप वायुमंडल में इस प्रकार से मुक्त वाष्प, संघनित होने के उपरांत, मूसलाधार वृष्टि के रूप में परिणत हो जाता है। भिन्न भिन्न ज्वालामुखियों से तथा एक ही ज्वालामुखी के उद्भेदन की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में मुक्त गैसें संघटन में भिन्न होती हैं। परंतु ऐसा पाया जाता है कि प्रत्येक दशा में वाष्प ही मुख्य संघटक होता है। उदाहरणार्थ, मेक्सिको में स्थित पारीकूटीन से, जो विश्व के तरुणम ज्वालामुखियों में से एक है, मई सन्‌ १९४१ में १,००,००० टन लावा के साथ साथ १,६०० टन वाष्प प्रति दिन मुक्त हुआ। वाष्प के अतिरिक्त ज्वालामुखी से निकलनेवाली अन्य गैसें कार्बन डाइऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल, हाइड्रोफ्लोरिका अम्ल, ऊर्ध्वपातज गंधक और गंधक के कुछ अन्य संयोग, जैसे हाइड्रोजन सल्फाइड (hydrogen sulphide) और सल्फर डाइऑक्साइड (sulphur dioxide), हैं। किन्हीं किन्हीं ज्वालामुखियों से क्लोराइड (chloride) अधिक मात्रा में निकलते हैं, विशेषत: इटली के ज्वालामुखियों से क्लोराइड अधिक मात्रा में निकलने के कारण यह समझा जाता था कि गहराई में पाए जानेवाले शैलमूल तक समुद्र के चल के पहुँचने के करण उद्भेदन होता है।

खंडमय पदार्थ

ज्वालामुखी की ग्रीवा में विस्फोट के कारण उत्पन्न शिलाओं के टुकड़े वायुमंडल में फेंके जाते हैं। इन खंडमय पदार्थों की उत्पत्ति विस्फोट के समय नल की दीवार अथवा उसके ऊपरी भाग पर पाए जानेवाले कठोर भूपटल के टूटने के कारण होती है। शैलों के इन खंडित टुकड़ों के आकार में अत्यंत भिन्नता पाई जाती है। धूल के सूक्ष्म कणों से, जो विस्फोट के उपरांत वर्षों तक वायुमंडल में तैरते रहते हैं, लेकर टनों भार की शिलाओं के टुकड़े तक निकलते हैं। ज्वालामुखी का प्रक्षेपबल अत्यधिक विस्मित कर देनेवाला होता है। सन्‌ १९३० में स्ट्रॉम्बोलि ज्वालामुखी पर्वत से ३० टन भार के शिलाखंड आकाश में दो मील की दूरी तक फेंके गए थे।

अर्धतरल अवस्था में निकली शिलाएँ और उनके छोटे खंड आदि ज्वालामुखी के मुख के पास गिर पड़ते हैं और शंकु के निर्माण में योग देते हैं, परंतु धूलिकण वायु द्वारा दूर ले जाए जाते हैं और इस प्रकार वे अतिविस्तृत क्षेत्र में व्याप्त हो जाते हैं। भंयकर ज्वालामुखी उत्स्फोटन काल में करोड़ों। टन धूलिकण मुक्त होते हैं जो वनस्पति और प्राणियों के लिये अत्यधिक हानिकारक सिद्ध हुए हैं, परंतु उनसे निर्मित मृदा विशेष उर्वरा होती है।

तरल द्रव्य

लावा (lava) तरलावस्था में ज्वालामुखी की ग्रीवा से निकलता है। लावा की धाराओं की रूपरेखा तथा लक्षण और उनसे निर्मित शिलाएँ कई बातों पर निर्भर करती हैं। मूलत: शैलमूल (magma) की रासायनिक संरचना से ही समझा जा सकता है कि लावा से निर्मित शिलाएँ श्वेतवर्णीय रायोलाइट (rhyolite) अथवा श्यामवर्णीय बैसॉल्ट (basalt) अथवा दोनों के बीच की ऐंडिसाइट (andesite) होंगी। ज्वालामुखी विवर से निकलने पर भूराल, अंगारवर्णीय, अत्यधिक ऊष्ण और तरल होता है। शीघ्र ही ठंडा होने पर ऊपर यह कुछ काले रंग का हो जाता है, उसकी सतह पर ठोस पपड़ी पड़ जाती है और शनै: शनै: वह श्यान (viscous) होने लगता है। इसके प्रवाह की गति पाँच मील प्रति घंटा से अधिक नहीं होती। वायुमंडल में निकल जानेवाली गैसों के अतिरिक्त लावा में भी गैसें घुली रहती है, श्यान लावा गैसों के असंख्य बुदबुदों के विस्तरण के कारण अत्यधिक फूल जाता है।

रेतीले लावा के ऊपरी भाग में इतने अधिक बुदबुदछिद्र पाए जाते हैं कि वह झाग सदृश हो जाता है। सामान्यत: श्वेतवर्णीय झाग को झामक कहते हैं। अधिक प्रवाही लावा में, विशेषकर बैसॉल्ट में, गैसों द्वारा निर्मित छिद्र बड़े आकार के होते हैं।

ज्वालामुखी क्रियाओं की प्रावस्थाएँ

ज्वालामुखी उद्भेदन मुख्यत: इस बात पर आधारित रहता है कि उससे कितनी गैस, तरल लावा और ठोस शैलखंड निकलते हैं। क्रिया की प्रावस्था के अनुसार ज्वालामुखी में से उपर्युक्त वस्तुएँ अति भिन्न अनुपात में निकलती हैं। वैज्ञानिकों ने निम्नलिखित मुख्य मुख्य प्रावस्थाएँ स्वीकृत की हैं :

हवाई प्रावस्था

जिन ज्वालामुखी पर्वतों में उद्भेदन काल में किसी प्रकार का विस्फोट नहीं होता उनकी प्रावस्था को हवाई की संज्ञा दी जाती है। इन ज्वालामुखी पर्वतों में गैसों और अपखंडमय पदार्थ के विस्फोट के बिना ही, लावाप्रवाह शांतिपूर्वक मुक्त होते रहते हैं। इस प्रकार से मुक्त लावा अत्यधिक ऊष्ण और प्रवाही होता है। ऐसे ज्वालामुखियों में हवाई नामक ज्वालामुखी प्रमुख है।

स्ट्रॉम्बोलीय प्रावस्था

स्ट्रॉम्बोली नामक ज्वालामुखी, भमध्यसागर में, सिसिली के उत्तर में लिपारी द्वीप में, हैं। ऐसे ज्वालामुखियों की, जो इस प्रावस्था में पाए जाते हैं, दो बातें उल्लेखनीय होती हैं। प्रथमत:, इनमें लगातार दो विस्फोटों के बीच में उन्मुक्त मैग्मा जम नहीं जाता और द्वितीयत:, यद्यपि खुले हुए ज्वालामुख से ऊष्मा का प्रचुर मात्रा में सतत क्षय होता रहता है फिर भी इस क्षय की पूर्ति भीतर से निकलनेवाली गैसों के कारण हो जाती है। स्ट्रॉम्बोली ज्वालामुखी ऊष्ण, उत्तापदीप्त द्रव्य उगलता रहता है, जिससे उसके समीप में अति चकासित बादल से दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि स्ट्रॉम्बोली भूमध्यसागर का प्रकाशस्तंभ कहलाता है।

वूलकानो प्रावस्था

लिपारी द्वीप का अन्य विख्यात ज्वालामुखी वूलकानो है। इस प्रकार की प्रावस्थावाले ज्वालामुखियों का मैग्मा अत्यधिक श्यान होता है। यह दो विस्फोटों के बीच ही शीघ्र जम जाता है। इस प्रकार से निर्मित पटल, दूसरे उद्भेदन काल में विदीर्ण हो जाता है और शिलाओं के कोणीखंड दूर दूर तक फिंक जाते हैं।

पीलियन प्रावस्था

यह प्रावस्था, अन्य प्रावस्थाओं की अपेक्षा अत्यधिक भीषण रूप में विस्फोटक होती है और विस्फोट काल में छा जानेवाले बादल अपेक्षया कहीं अधिक सघन होते हैं। वेस्ट इंडीज़ में मारटीनिक नाम के द्वीप में स्थित पीली (Pelee) पर्वत इस प्रकार की प्रावस्था का उदाहरण है।

विस्फोटन की शक्ति मुख्यत: इस बात पर निर्भर करती है कि मैग्मा किस मात्रा में हैं। वस्तुत: गैसों के अभाव में ज्वालामुखी की विस्फोट शक्ति नहीं के बराबर होती है। इसके अतिरिक्त श्यानता का भी प्रभाव इस बात पर पड़ता है कि कितनी शीघ्रता से गैसें मैग्मा से निकलती हैं। श्यानता स्वयं मैग्मा की संरचना तथा ताप से प्रभावित होती है और चूँकि ताप और गैसों में परिवर्तन होता रहता है, इसलिये विस्फोटन की प्रवृत्ति में भी परिवर्तन होता रहता है। अत: एक ही ज्वालामुखी भिन्न भिन्न समय पर विस्फोटन क्रियाओं की भिन्न भिन्न प्रावस्थाएँ दिखा सकता है। बैसैल्टीय (basaltic) ज्वालामुखी की अपेक्षा ऐंडेसिटीय (andesitic) और रायोलिटीय (rhyolitic) ज्वालामुखियों में विस्फोटन क्रिया अधिक पाई जाती है। इसका मुख्य कारण उनके मैग्माओं में गैसों का बाहुल्य है।

ज्वालामुखी पर्वतों के भेद

ज्वालामुखी की ग्रीवा के आसपास निर्माण की रूपरेखा और आकार मुख्यत: उस पदार्थ पर आधारित होता है जो उससे निकलकर बाहर आ जाता है।

पाइरोक्लैस्टिक शंकु

यदि कोई ज्वालामुखी पूर्णत: अपखंडों से निर्मित होता है तो उसका आकार प्रपाती शंकु के समान होता है। इस प्रकार की ज्वालामुखी रचनाओं को पाइरोक्लैस्टिक (ज्वालोत्पन्न) शंकु कहते हैं। ये विस्फोटी ज्वालामुखी के लाक्षणिक होते हैं।

शील्ड ज्वालामुखी

बहुत से ज्वालामुखी अपने विवर के चारों ओर लावा प्रवाहों के, एक के ऊपर दूसरे प्रवाह के, संचयन से बन जाते हैं। इस प्रकार से निर्मित ज्वालामुखी पर्वत ऊँचाई की अपेक्षा चौड़ाई में अधिक विस्तृत होते हैं और ढाल (shield) के आकार के होने के कारण शील्ड ज्वालामुखी कहलाते हैं। इस प्रकार के ज्वालामुखी ऐसे अत्यधिक प्रवाही लावा के निष्कासन से बनते हैं जो लगभग अनुप्रस्थ चादर के रूप में सुविस्तृत क्षेत्र में फैल जाते हैं। इस प्रकार के ज्वालामुखी हवाई द्वीपसमूह में पाए जाते हैं।

स्ट्रैटो ज्वालामुखी

अधिकांश ज्वालामुखी, जिनके अंतर्गत विश्व के ऊँचे ज्वालामुखी आते हैं, प्रपाती पाइरोक्लैस्टिक शंकुओं और शील्ड ज्वालामुखियों के बीच के होते हैं। ऐसे ज्वालामुखी अपंखडीय पुंज और लावाप्रवाह दोनों के द्वारा निर्मित होते हैं। इस प्रकार के ज्वालामुखी कुछ काल तक उग्र रूप से विस्फोटशील रहते हैं और कुछ काल तक, इसके पूर्णत: विपरीत, अत्यंत शांतरूप से लावा की धाराएँ उन्मुक्त करते रहते हैं। इस प्रकार के मिश्रित ज्वालामुखियों को स्ट्रैटो ज्वालामुखी कहते हैं।

संयुक्त ज्वालामुखी

उपर्युक्त वर्णित ज्वालामुखी साधारण आकार के होते हैं, परंतु विश्व के अनेक वर्तमान ज्वालामुखी आकार में अधिक जटिल होने के कारण संयुक्त, या कंपाउंड, ज्वालामुखी कहलाते हैं। विश्व का अत्यधिक प्रतिष्ठित समझा जानेवाला एटना ज्वालामुखी इस प्रकार के पर्वतों का अच्छा उदाहरण है। इसका अधिकांश भाग भूराल प्रवाहों का बना है, किंतु शिखर कोणी खंड का होने के कारण पाइरोक्लैस्टिक शंकु के आकार का है।

कैल्डेरा

कैल्डेरा शब्द का प्रयोग ज्वालामुखी पर्वत के मुख सदृश ऐसे कुंडों के लिये किया जाता है जो विशाल आकार के तथा विशेषत: गहराई की अपेक्षा चौड़ाई में अधिक दूर तक फैले होते हैं। इस शब्द का प्रयोग कैनेरी द्वीप में स्थित ला कैल्डेरा नामक विशाल वृत्ताकार गड्ढे के लिये किया गया था। यह लगभग तीन या चार मील चौड़ा है और इसके चारों ओर १,५०० से लेकर २,५०० फुट तक ऊँचे पर्वतशिखर हैं। इस प्रकार के बहुत से कैल्डेरा, विश्व के अन्य भागों में भी पाए जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इनमें से कुछ का निर्माण भीषण ज्वालामुखी विस्फोट के समय पूर्वस्थित में शिखरीय शंकुओं के शिखर उड़ जाने से, अथवा कुछ परिस्थितियों में शिखरीय भाग धँस जाने के कारण हुआ। ज्वालामुखी झीलें कैल्डेरा की तुलना में छोटे आकार की होती हैं।

ज्वालामुखी क्रिया की उत्पत्ति

यह समझने के लिये कि ज्वालामुखी क्रिया की उत्पत्ति किस प्रकार होती है, निम्नलिखित बातें विचारणीय हैं :

ऊष्मा की उत्पत्ति

सुरंगों, खानों आदि में जानेवाले लोग यह जानते हैं कि नीचे जाने पर ताप में क्रमश: वृद्धि होती है। यह वृद्धि प्रत्येक ६० अथवा ७० फुट गहराई में लगभग १/२° सेंo होती है। इससे यह स्पष्ट है कि २५-३० मील की दूरी पर ही मैग्मा के ताप से कहीं अधिक ताप हो जाएगा। इस धारणा के अनुसार पृथ्वी की आंतरिक ऊष्मा उसी समय से वर्तमान है जब वह द्रवित अवस्था में थी और इसका केवल ऊपरी भाग ऊष्मा विकिरण के कारण ठोस हुआ है।

आधुनिक युग में विकिरणसक्रियता के अन्वेषण से यह पता चल गया है कि कुछ तत्व सतत वियोजित होते रहते हैं और इस वियोजन काल में उनसे प्रचुर मात्रा में ऊष्मा निकलती रहती है। ऐसे तत्वों में यूरेनियम और थोरियम उल्लेखनीय हैं। यदि पृथ्वी के कुछ अंतर्भागों में इस किरणसक्रिय पदार्थ का स्थानीय संकेंद्रण हो जाए तो उन स्थानों में किरणसक्रियता से उत्पन्न ऊष्मा शनै: शनै: ऊष्मा संचित होती जाएगी और कालांतर में वह इतनी अधिक शक्तिशाली हो जाएगी कि वह शिलाओं को पिघलाकर मैग्मा बना देगी। इस प्रकार पृथ्वी के अंदर होनेवाले विकिरणसक्रिय परिवर्तन, ज्वालामुखी क्रिया के लिये आवश्यक ऊष्मा का सृजन करते हैं।

मैग्मा की भिन्नता के कारण

भिन्न भिन्न ज्वालामुखियों से भिन्न भिन्न प्रकार के लावा निकलते रहते हैं। यह भी देखा जाता है कि पड़ोस के ज्वालामुखियों से भी भिन्न भिन्न प्रकार का लावा निकलता है, यहाँ तक कि कभी कभी एक ही ज्वालामुखी से उद्भेदन की भिन्न भिन्न प्रावस्थाओं में भिन्न भिन्न प्रकार का लावा निकलता है। सैन फ्रैन्सिस्को नामक अवमृत ज्वालामुखी से पाँच विभिन्न प्रकार के लावे निकले थे। जिस विधि से सजातीय संरचना का मैग्मा भिन्न भिन्न प्रकार के लावा में परिवर्तित हो जाता है, उसे मैग्नीय विभेदकरण कहते हैं।

गैसों की उत्पत्ति

मैग्मा की प्रधान गैस, अधितप्त वाष्प, लगभग ९५% होती है। यह जलीय अंश पृथ्वी के आदि पदार्थ का भाग हो सकता है, जिसको द्रवित शिलाद्रव्य ने पृथ्वी के निर्माणकाल में अथवा उसके कुछ समय के उपरांत बंद कर रखा था, अथवा मैग्मा के मौलिक संघटक हाइड्रोजन के वायुमंडल वा अन्य प्रकार से उत्पन्न ऑक्सीजन के मेल से, अथवा मैग्मा द्वारा निकटवर्ती शैलों से अवशोषित जल से, इसका निर्माण हुआ।

अधितप्त वाष्प के उपरांत बहुतायत से मिलनेवाली अन्य गैस कार्बन डाइऑक्साइड है। ऐसी संरचना के मैग्मा में, जिसमें चूनापत्थर अधिक मात्रा में घुले रहते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड अधिकता से मिलता है। दाह्य गैस हाइड्रोजन सल्फाइड के विषय में ऐसा समझा जाता है कि वह मैग्मा का मौलिक संघटक है।

मैग्मा के पृथ्वी की सतह तक उठकर आने के कारण

दो दृष्टांतों द्वारा मैग्मा के पृथ्वी की सतह तक आने की प्रक्रिया समझी जा सकती है। पहला दृष्टांत सोडा वाटर की बोतल खोलने से दिया जाता है, जिससे स्पष्ट है कि मैग्मा में बंदी गैसों की शक्ति ही उसके उत्सेकी होने (ऊपर उठकर निकलने) का मुख्य कारण है। दूसरा दृष्टांत एक ऐसे हिम सरोवर से दिया जा सकता है जिसमें हिम खंडों में विभक्त हो गया है और जल उनके ऊपर आ गया है। इस मतानुसार मैग्मा के ऊपर की शिलाओं का अत्यधिक भार ही उसे ऊपर उठने को प्रेरित करता है।

ज्वालामुखियों का भौगोलिक वितरण

वर्तमान समय में क्रियाशील ज्वालामुखी ५०० से अधिक हैं, परंतु सुषुप्त और अवमृत ज्वालामुखियों को मिलाकर उनकी संख्या कई हजार होगी।

ज्वालामुखी मुख्यत: लंबी पट्टियों मे पाए जाते हैं। इनमें अति उल्लेखनीय पट्टी प्रशांत महासागर को घेरे है। यह परिप्रशांत (circum-pacific) पट्टी के नाम से विख्यात है। इसके अंतर्गत दक्षिण अमरीका का पश्चिमी भाग, मेक्सिको, संयुक्त राज्य, कैनाडा, आलैस्का, जापान, फिलिपाइन्स, ईस्ट इंडीज आदि आ जाते हैं। ज्वालामुखी की अन्य मुख्य पट्टी भूमध्य पट्टी है, जो पश्चिम से पूर्व में पाई जाती है और जिसके अंतर्गत इटली आदि के ज्वालामुखी आते हैं।

ज्वालामुखी महाद्वीपों और महासागरों दोनों में पाए जाते हैं और इनकी संख्या प्रशांत महासागर में अधिक है। जो लावा जल में होकर ठोस हो जाता है उसका आकार स्थलीय लावा से भिन्न होता है। तकिए के आकार का होने के कारण वह पिलो (तकिया) लावा कहलाता है।

भारतवर्ष के मुख्य भूभाग में कोई क्रियाशील ज्वालामुखी वर्तमान समय में नहीं है। अंडमान द्वीप में ऐसे ज्वालामुखी हैं जिनसे कीच निकलता है। अत: उन्हें कीच ज्वालामुखी की संज्ञा दी जाती है।

यद्यपि ज्वालामुखियों से मानव जीवन को क्षति पहुँचती है और जीवन सर्वदा संकटापन्न रहता है, फिर भी उनकी पार्श्वभूमि में लोग अधिक संख्या में रहते हैं। विसूवियस के, जिसे 'नेपुल्स का भय' कहते हैं, आसपास घनी जनसंख्या के नगर पाए जाते हैं। एटना पर्वत पर ४,००० फुट तक खेती होती है। जावा, जिसमें अनेक क्रियाशील ज्वालामुखी पाए जाते हैं, अपने क्षेत्रफल के अनुसार विश्व के घने बसे हुए प्रदेशों में से है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ