ताँबा

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ताँबा (ताम्र) सभ्यता के आरंभ से ही मनुष्य का ताँबे से परिचय रहा है। पहले पहल इसकी खोज कब हुई, इस संबंध में ठीक से कुछ नहीं कहा जा सकता। परंतु ऐसा अनुमान है कि यह समय ८,००० ई० र्पू० क आसपास का रहा होगा। प्रकृति में यह मुक्त अवस्था में भी मिलता है।

इस धातु के अयस्क से ताँबा प्राप्त करने की पुरानी विधि थी। मैलूकाइट नामक हरे अयस्क को कोयले के साथ ढेरी लगाकर, गर्म करना, जिससे गला हुआ ताँबा बहकर नीचे आ जाता था। धातुकर्म विज्ञान के विकास की यह पहली कड़ी थी। इसका सबसे अधिक विकास मिस्र देश में हुआ। मिस्र में ५,००० ई० पूर्व की कब्रों से तांबे के हथियार मिले है।

साइप्रस (Cyprus) द्वीप में लगभग ३,००० ई० पू० में ताँबे का बहुत अधिक मात्रा में उत्पादन होता था। यहाँ तक कि उन दिनों रोम देश के निवासी अपनी आवश्यकता का सारा ताँबा इस देश से खरीदते थे। इसी देश के नाम पर इस धातु को 'एइस साइप्रियम' (Aes cyprium) कहा जाता था। इसीसे फिर साइप्रस और पीछे क्यूप्रम (Cuprum) बना, जिससे आधुनिक काल के ताँबे के विभिन्न नाम और संकेत (Cu) बने हैं।

एशिया में ताम्र का प्रयोग प्रथम बार कब हुआ, यह ठीक से ज्ञात नहीं हैं। शू किंग (Shu King) की गाथाओं के अनुसार चीन देश में २,५०० ई० पू० के आसपास ताम्र के प्रयोग का वर्णन मिलता है। इससे पूर्व इस देश में ताम्र का प्रयोग किस प्रकार होता था इसके संबंध में हमारा ज्ञान अपूर्ण है। शांग वंश (१७६६-११२२ ई० पू०) के समय में कांस्य के बने सुंदर पात्रों की उपलब्धि से उस समय के कौशल का पता चलता है।

अमरीका में ताम्र युग का आरंभ सन्‌ १०० से २०० के बीच में हुआ। कोलंबस और अन्य आविष्कारकों के आगमन से इस कौशल को प्रोत्साहन मिला।

लोहे के आविष्कार के पश्चात्‌ हथियारों के स्थान पर लोहे का प्रयोग होने लगा और ताँबा घर के बरतनों, पानी के नल इत्यादि और इसी प्रकार की अन्य वस्तुएँ बनाने के लिये प्रयोग में आने लगा। अच्छा सुचालक होने के कारण २०वीं शताब्दी में बिजली के तारों में इसका बहुत अधिक प्रचलन हुआ।

ताँबे के खनिज आग्नेय, जलज और रूपांतरित तीनों प्रकार की शिलाओं में मिलते हैं। ऐसे तो भारत के सब प्रदेशों में न्यूनाधिक मात्रा में ताँबे के खनिज पाए जाते हैं, पर अधिक महत्व के निक्षेप बिहार राज्य के सिंहभूम जिले में हैं। हजारीबाग के बारागुंडा मध्य प्रदेश के स्लीमानाबाद, जबलपुर तथा नरसिंहपुर जिले, आंध्र के नैल्लोर, मैसेर के चितालद्रुग के समीप आखवाली, अलवर, सिक्किम, भूटान, दार्जिलिंग, कश्मीर, अल्मोड़ा तथा टेहरी गढ़वाल की भागीरथी घाटी में ताँबे के अयस्क मिले हैं।

सिंहभूम जिले के मोसाबानी, वदिया और धोबानी निक्षेप आर्थिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्व के हैं। ताम्र खनिज का क्षेत्र वहाँ ८० मील तक फैला हुआ है। वहाँ के खनिज स्तर की मोटाई ३० फुट तक पाई गई है। सन्‌ १९५३ के अनुमान के अनुसार मोसाबानी के ताम्र खनिज की मात्रा ३४ लाख टन कूती गई है। खानों से ताम्र खनिजों को निकालकर रज्जुमार्ग द्वारा छह मील दूर घटशिला के समीप मऊ मांडेर लाया जाता है, जहाँ इंडियन कॉपर कारपोरेशन लि० खनिज का सांद्रण, शोधन और परिष्कार बेलन मिल में संपन्न करती हे। पहले जस्ते के साथ मिलाकर पीतल सीधे तैयार होता था, पर अब ताँबे की चादरें ही बनती हैं। भारत के अतिरिक्त उत्तर और दक्खिन अमरीका, चीली और पेरू, अफ्रीका के कांगो और उत्तरी रोडीज़िया, कनाडा, रूस, चीन, आस्ट्रेलिया आदि देशों में भी ताम्र खनिज पाया जाता है और ताँबा निकाला जाता है।

धातु कर्म

कच्ची धातु से शुद्ध ताम्र करने के लिये दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है : प्रद्रावण (smelting) और अपक्षालन (leaching)। सामान्यत: सल्फ़ाइड अयस्कों के लिये प्रद्रावण विधि और ऑक्साइड अयस्कों के लिये अपक्षालन विधि का प्रयोग होता है। आजकल प्रति वर्ष ८० प्रतिशत ताम्र सल्फ़ाइड अयस्क से प्राप्त होता है। मूल शोधन के लिये सल्फ़ाइड अयस्कों के साथ प्लायन विधियाँ अधिक सफल रही हैं। इसमें अयस्क को महीन पीसा जाता है। इस पानी में थोड़ा सा तेल (तारपीन), या सोडियम कार्बोनेट, डालते हैं और फिर हवा के प्रभाव से जोरों से खलभलाते हैं। ऐसा करने से अयस्क का पथरीला भाग नीचे बैठ जाता है और कुछ अयस्क फेन के साथ ऊपर उठ जाता है।

अपक्षालन विधि

अपक्षालन विधियों में सबसे मुख्य क्रिया धातु के अयस्क को किसी विलेय लवण में परिवर्तित करने की है।

इससे जो विलेय लवण प्राप्त होता है उसके विलयन में लोहे की छीजन डालकर विद्युद्विछेदन से ताँबा प्राप्त किया जाता है।

प्रद्रावण विधि

अयस्क से ताँबा निकालने की प्रद्रावण विधियों में सबसे पुरानी विधि वेल्श विधि है। इस विधि की मुख्य क्रियाएँ इस प्रकार हैं:

अयस्क के मूल शोधन के अनंतर इसका बार बार क्रम से निस्तापन करते हैं। पहला निस्तापन न्यून ताप पर परावर्तन भट्ठी में होता है। इस क्रिया में आधा गंधक तो सल्फ़र डाइआक्साड और आर्सेनिक ऑक्साइड आ१४ औ६ (As4 O6) बनकर उड़ जाता है तथा लोहे और ताँबे का आंशिक ऑक्सीकरण होता है। निस्तापित अयस्क के ६३% में १२% आक्सीकृत अयस्क और २५% बालू मिलाते हैं। ताप ऊँचा करके पुन: इसे उसी भट्ठी में जलाया जाता है। इस क्रिया में ताँबे का ऑक्साइड शेष बचे लोहे के सल्फ़ाइड के साथ प्रतिक्रिया कर ताम्र का ऑक्साइड शेष बचे लोहे के सल्फ़ाइड के साथ प्रतिक्रिया कर ताम्र ऑक्साइड और लोह आक्साइड में बदल जाता है। लोह ऑक्साइड परावर्तन भट्ठी में पड़ी बालू से मिलकर गलनशील सिलिकेट बनाता है, जिसे 'धातुमल' कहते हैं। इस विधि से बनाए गए लोह और ताम्र के सल्फ़ाइडों के मिश्रण को मैट (Matte) कहते हैं। 'धातुमल' गले हुए रूप में 'मैट' के पृष्ठ पर आ जाता है। भट्ठी में उस स्थान पर एक छेद होता है, जहाँ से वह अलग बहा लिया जाता है। 'मैट' में ३५% ताँबा, ३०% लोहा, २८% गंधक और आर्सेनिक, विसमथ, कोबल्ट, निकल और वंग जैसे कुछ अपद्रव्य होते हैं।

निस्तप्त पदार्थ को फिर बालू के साथ गलाते है। यह क्रिया तब तक दोहराते रहते है जब तक लोह सिलिकेट बनकर बिल्कुल अलग न हो जाए। इस प्रकार जो पदार्थ मिलता है उसे महीन धातु कहते हैं। इसमें ७८% ताँबा होता है। यह ढोंकों के रूप में इकaा कर लिया जाता है। इसको ऑक्सीकारक भट्ठी के फर्श पर रखते हैं। भट्ठी में इसके निकट हवा आने के लिये छेद बने होते हैं। ताप का ऐसा नियंत्रण रखते हैं कि लगभग ८ घटें में पदार्थ पिघले। इस क्रिया से ताम्र के सल्फ़ाइड का अच्छी तरह ऑक्सीकरण हो जाता है। इस प्रकार जो ऑक्साइड बनता है वह फिर अप्रभावित सल्फ़ाइड के साथ प्रतिक्रिया करता है और ऐसा करने पर ताँबा धातु बनती है, जो नीचे बैठ जाती है। धातु को बालू के साँचों में चुआ लेते हैं। धातु में से होकर सल्फर डाइआक्साइड की जो गैस निकलती है उसके कारण इसमें फफोले पड़ जाते हैं। अत: इस प्रकार बनी धातु को फफोलेदार ताँबा कहते हैं। इसमें ६८% ताँबा होता है। इसका अंतिम संशोधन संशोधन भट्ठी में होता है, जिसकी सतह बालू की होती है। ६-१० टन फफोलेदार ताँबे को इसमें धीरे धीरे पिघलाया जाता है। इस अवस्था में १.३ प्रतिशत 'मलधातु' इसमें मिला रह जाता है, जो पिघले ताँबे के ऊपर मैल के रूप में तैरता है। इसे काटकर अलग कर देते हैं। पिघले ताँबे को १,२००° सें० ताप पर हवा में कई घंटे तक ऊघरा रखते हैं। ऐसा करने से इसके अपद्रव्यों, (आर्सेनिक वंग, निकल, लोहा, गंधक, सीसा आदि) का श्ध्रीा ऑक्सीकरण हो जाता है। इनके ऑक्साइड अलग कर दिए जाते हैं। इस अवस्था में थोड़ा सा सोडा डालने से सफाई और आसानी से हो जाती है। ताँबे को गरम करके इस प्रकार शोधने की विधि को आग्नेय विधि भी कहते हैं।

आधुनिक विधि

आजकल की विधि का भी सार यही है, विशेषत: केवल यह प्रयत्न किया जाता है कि ये क्रियाएँ जितनी साथ की जा सकें उतना अच्छा है। ऐसा करने से ईधंन का खर्च बच जाता है और अयस्क की बहुत सी मात्रा एक बार में काम आ जाती है। इस विधि में मुख्य सावधानी इस बात की रखनी पड़ती है कि गंधक का अनुपात ठीक रहे। इस अनुपात पर मैट बनने की मात्रा निर्भर रहती है। गंधक के जलने से जो गर्मी पैदा होती है उतने से ही पदार्थ (मैट और मलधातु) गल जाते हैं। इस विधि में निस्तापन और गलाना एक ही भट्ठी में होता है।

विधि इस प्रकार है

भट्ठी में लकड़ी जलाते हैं और फिर इसमें अयस्क डालते हैं। हवा का प्रवाह अच्छी तरह होने देते हैं। गंधक जलने लगता है। इस भट्ठी में निस्तापन और गलना दोनों होते हैं। गलने की गति पर सांद्रता निर्भर है। अधिक गति होने से लोहे का ऑक्सीकरण ठीक न होगा और यह कम न किया जा सकेगा। फलत: मैट में ताँबा कम अनुपात में होगा। इस भट्ठी में मलधातु और मैट में २५% ताँबा होता है और मलधातु में लोह सिलिकेट होता है। भट्ठी में हवा के प्रवाह का दाब ४ पौंड प्रति वर्ग इंच रखा जाता है।

बेसेमरीकरण

मैट से धातु प्राप्त करने की विधि का नाम बेसेमरीकरण है, क्योंकि यह क्रिया बेसेमर द्वारा बनाए गए परिवर्तकों में की जाती है। ये परिवर्तक इस्पात बनाने के परिवर्तर्कों के समान ही होते हैं, अंतर केवल यह है कि इनके वातमुख पेंदे में नहीं वरन्‌ पेंदे से ऊपर दीवार में लगे होते हैं। वातमुखों में होकर हवा अंदर आती है। जो धातु बनती है वह वातमुख के कक्ष के नीचे गिर जाती है और इस प्रकार इन मुखों से आई हुई हवा द्वारा होनेवाले ऑक्सीकरण से धातु बची रहती है। पिघली हुई मैट में होकर हवा प्रवाहित होती रहती है इस अभिक्रिया में लोहा अंतिम संशोधन और गंधक दोनों अलग हो जाते हैं।

विद्युद्विश्लेषण द्वारा संशोधन

विद्युद्विश्लेषण की विधि से होता है। इसमें २ फुट ´ ३ फुट ´ २ इंच आकार के शोधनीय ताँबे के पट्टों के धनाग्र और शुद्ध ताँबे के ऋणाग्र लेते हैं। सेल में ताम्र सलफेट (तूतिया) का विलयन रखते हैं। विद्युद्विच्छेंदन होने पर शोधनीय ताँबा तो विलयन में चला जाता हे और उतना ही शुद्ध ताँबा ऋणाग्र पर जमा हो जाता है। ऋणाग्र के ताम्र पत्रों पर ग्रैफाइट तैल लगा देते हैं, जिससे यह जमा हुआ तांबा आसानी से अलग किया जा सके।

इस अभिक्रिया में लोहा, निकल और जस्ते जैसे अपद्रव्य तो जल में घुले रहते हैं और प्लैटिनम, सोना, चॉँदी, वंग, आर्सेनिक आदि अपद्रव्य कीचड़ के रूपमें नीचे बैठ जाते हैं। इस कीचड़ को धनाग्र पंक कहते हैं।

रासायनिक गुणधर्म

ताँबा तत्वों के आवर्त वर्गीकरण में प्रथम समूह के 'ख' उपसमूह में चाँदी और सोना के साथ आता है। ताँबे के गुण निकल से बहुत मिलते जुलते हैं। इस समूह के तत्वों की विशेषता है कि उनकी संयोज्यता परिवर्तनशील है। ताँबे के यौगिक क्यूप्रस और क्यूप्रिक होते हैं, जिनमें ताँबे के यौगिक क्रमश: एक या दो होती है। ताँबे के यौगिक रंगीन नीले या हरे होते हैं।

तत्वों की विद्युद्वाहक श्रेणी में यह हाईड्रोजन से नीचे है। इसके फलस्वरूप विलयनों में हाइड्रोजन का यह विस्थापन नहीं कर सकता। लोह, यशद ओर सीस से भी इसका स्थान नीचा है। ताम्र लवणों के विलयन में से ये धातुएँ ताँबे को पृथक्‌ कर देती है। प्लैटिनम, चाँदी, सोना और पारा का स्थान ताँबे से नीचे है। अत: इनके लवणों के विलयनों से ताँबा इनको पृथ्‌क कर देता है। ताँबा हाइड्रोजन की अपेक्षा कम विद्युद्धनात्मक है। इसलिये अनाक्सीकारक अम्लों का साधारणत: इसपर प्रभाव नहीं पड़ता। आक्सीकारक अम्लों, या आक्सीकारण्क पदार्थयुक्त अम्लों, में यह सुगमता से घुल जाता है।

ताँबे पर वायु और समुद्रजल का कम प्रभाव होता है। हवा में अधिक देर तक पड़े रहने के कारण इसपर हरे रंग का स्तर जमा हो जाता है, जिसे बेसिक ताम्र कार्बोंनेट कहते हैं। द्रव ताँबा अन्य द्रव धातुओं से मिश्र्य है, अत: इसकी अनेक अच्छी मिश्रधातुएँ बनती हैं।

भौतिक गुणधर्म

आधुनिक प्रयोगों के आधार पर इसका परमाणु भार ६३.५७ ठहरता है। ताँबे में ६५ और ६३ परमाणु भार के दो समस्थानिक २ : ५ की अनुपात में हैं। इसका गलनांक १०८५° से० और क्वथनांक २३१०° सें० है। आपेक्षित उष्मा ०.०९३६ है। गैसों में से अनेक, पिधले हुए ताँबे में विलेय हैं। इन गैसों की विलेयता का तांबे के भैतिक गुणों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसमें समस्त धातुओं की तुलना में सबसे अधिक तन्यता होती है। ठंडी विधि से धातुओं की तुलना में सबसे अधिक तन्यता होती है। ठंडी विधि से इसकी कठोरता और मजबूती तो बहुत हद तक बढ़ाया जा सकता है मृदु व्यापारिक ताँबे तननक्षमता ३०,००० पाउंड से ३६,००० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक होती है। ठंडी विधि से इसे ७०,००० पाउंड प्रति वर्ग इंच तक बढ़़ाया जा सकता है। ठंडी विधि से तन्यता में कमी आती है, परंतु इसके पश्चात्‌ मृदुकरण से यह कमी दूर हो जाती है।

रासायनिक यौगिक

ताँबा दो प्रकार के यौगिक बनाता है। एक में इसकी संयोजकता एक (क्यूप्रस) और दूसरे में दो (क्यूप्रिक) होती है। तीन संयोजकता के भी कुछ यौगिक मिलते हैं। क्यूप्रस आयन, क्यूप्रिक आयन की अपेक्षा अधिक आक्सीकारक है। इसके लवण आसानी से विघटित हो जाते हैं और ताँबा तथा क्यूप्रिक लवण देते हैं :

[ Cu C12+Cu++Cu++]

क्यूप्रस अवस्था इस कारण ताआ (CuI) जैसे अविलेय लवणो या ताक्लो२ (Cu Cl2) और ता (काना)३ [ Cu (CN)3] जैसे संकीर्ण आयनों में ही रह पाती है पानी के तनु विलयन में क्यूप्रिक आयन जलयोजित हो जाता है और ता (हा२ औ)४ + + [ Cu (H2O)4 + + ] देता है, जो है, जो नीले रंग का होता है। ऐमोनिया के साथ यह गहरे रंग का संगीर्ण लवण बनाता है।

ऑक्साइड

ताँबे के कई ऑक्साइड ज्ञात हैं, जैसे ता२ औ (Cu2 O), ता४ औ (Cu4 O), ता२ औ३ (Cu2 O3), ताऔ (Cu O), ता३ औ (Cu3 O) और ता२ औ (Cu2 O) पर इनमें क्यूप्रस ऑक्साइड ता२ औ (Cu2 O) और क्यूप्रिक ऑक्साइड ता औ (Cu O), ये दो अधिक प्रसिद्ध हैं।

हैलाइड

सांद्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में क्प्रूप्रिक क्लोराइड धुलाकर ताँबे के छीलन के साथ यदि गर्म करें, तो क्यूप्रस क्लोराइड का सफेद अवक्षेप आएगा। क्यूप्रस क्लोराइड का हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में विलयन कार्बन मॉनोक्साइड और ऐसी ऐसीटिलीन गैस को अवशोषित कर लेता है। इसी कारण गैस विश्लेषण में इसका प्रयोग होता हैं।

हाईड्रोक्लोरिक अम्ल में कयूप्रिक ऑक्साइड के घुलाने से क्यूप्रिक क्लोराइड प्राप्त होता है। वर्णकों के बनाने में इसका प्रयोग होता है।

सल्फाइड और सल्फेट

यदि ताँबे और गंधक के मिश्रण को निर्वात भट्ठी में गर्म करें, तो क्यूप्रस और क्यूप्रिक दोनों सल्फाइडों का मिश्रण मिलेगा। हाउड्रोजन और ताम्र लवणों के योग से भी ये बन सकते हैं।

क्यूप्रिक सल्फेट ताँबे का सबसे अधिक प्रसिद्ध लवण है। यह सामान्यत: तूतिया या नीले थोथे के नाम से प्रचलित है। ताँबें के छीजनों को परावर्तन भट्ठी में गंधक के साथ गर्म करके बड़ी मात्रा में यह तैयार किया जाता है। यह नीले मणिभ के रूप में बिकता है। इसके मणिभों में पानी के पाँच अणु होते हैं। निर्जल तूतिया सफेद होता है। यह शीघ्र पानी सोखकर फिर नीले पंच हाइड्रेट में बदल जाता है। यह अनेक कामों में व्यव्हृत होता है। चूने में मिलाकर दीवारों पर पोता जाता है, क्योंकि यह कीटाणुनाशक है। चूने के साथ मिलाकर और पानी में घुलाकर बोरडो (Bordeaux) मिश्रण के नाम से बगीचे के पौधों पर छोड़ने के काम आता है। रँगाई में और विद्युद्विघटन में इसका प्रयोग होता है।

कार्बोनेट

ताम्र लवण और क्षारीय कार्बोनेट के योग से ताम्र कार्बोनेट प्राप्त होते हैं। इनका रंग तीव्र नीला या हरा होता है। वर्णकों के बनाने में इनका अधिक प्रयोग होता है।

अन्य यौगिक

आर्सेनिक के साथ ताँबा हरे रंग के विषैले पदार्थ बनाता है। ये यौगिक कृमिनाशक होते हैं। नाइट्रिक बनाते हैं। इसके जलयोजित मणिभ गहरे नीले रंग के होते हैं।

पहचान

ताम्र लवणों के विलयन एमोनिया के साथ मिलकर गहरे नीले रंग के हो जाते हैं। ये लवण बुंसन ज्वालक की ज्वाला को चमकीले हरे रंग की बना देते हैं। इनके तनु विलयन पोटासियम फेरोसाइनाइड के साथ भूरा रंग देते हैं। थोड़ी सी मात्रा में भी यदि ताँबा विद्यमान हो तो वर्णक्रमदर्शी (Spectrscope) की सहायता से पहचाना जा सकता है।

ताँबे से बनी मिश्र धातुएँ

ताँबे की मुख्य मिश्र धातुएँ निम्नलिखित है:

कांसा

इसमें ७५.९० प्रतिशत ताँबा और शेष वंग मिला होता है। यह बर्तन बनाने के काम आता है। आजकल अन्य अनेक ताम्रमूलक मिश्रधातुओं के लिये भी यह शब्द रूढ़ होता जा रहा है। इसलिये वंगयुक्त मिश्र धातु को वंग कांस्य का नाम दिया जाने लगा है।

पीतल

इसमें ७०.८० प्रतिशत ताँबा और शेष जस्ता है। इसको भी बर्तन बनाने के काम में लाते हैं। यह अपने संक्षारण प्रतिरोधक गुण के लिये प्रसिद्ध है।

डेल्टा धातु

इसमें ६० प्रतिशत ताँबा, ३८.२ प्रतिशत जस्ता और १.८ प्रतिशत लोहा होता है। इसमें इस्पात का सामर्थ्य होता है।

मोनल धातु

इसमें २७ प्रतिशत ताँबा, २-३ प्रतिशत लोहा ६८ प्रतिशत निकल और कुछ कार्बन, गंधक और मैगनीज भी होता है। इस धातु पर रासायनिक प्रतिक्रियाएँ बहुत कम होती हैं, अत: रासायनिक कारखानों में इसका प्रयोग होता है।

जर्मन सिल्वर

इसमें २५-५० प्रति शत तॉबा, ३५-१० प्रतिशत निकल होती है। इसके बर्तन बनते हैं। तांबे के सिक्कों में ७.५ प्रतिशत वंग धातु और शेष ताँबा होता है। पुराने चाँदी के सिक्कों में ७.५ प्रतिशत ताँबा और शेष चाँदी होती थी, पर आजकल के सिक्कों में ५० प्रतिशत ताँबा, ५ प्रतिशत और ५ प्रतिशत निकल रहता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ