दियासलाई

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लेख सूचना
दियासलाई
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6
पृष्ठ संख्या 52-53
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सहदेवप्रसाद पाठक

दियासलाई तात्क्षणिक अग्नि प्रज्वलित करनेवाली लकड़ी की शलाका को, जिसके सिरे पर मसाला लगा हो और जो घर्षण या रासायनिक पदार्थों के संपर्क से जल सके, दियासलाई या माचिस कहते हैं। मनुष्य की सबसे पहली समस्या संभवत: आग उत्पन्न करने की थी। सबसे पहले संभवत: लकड़ी के दो टुकड़ों को रगड़कर आग उत्पन्न की गई थी। पीछे पत्थर और लोहे से आग उत्पन्न होने लगी। चकमक पत्थर को लोहे से रगड़कर चिनगारी उत्पन्न करने और चिनगारी से कपड़ा, गंधक या अन्य शीघ्र आग पकड़नेवाली वस्तुओं को प्रज्वलित करने का प्रयास दियासलाई निर्माण की पहली सीढ़ी थी। इस काम के लिए चकमक पत्थर का उपयोग १८४७ ई. तक होता रह है। पहले जो दियासलाइयाँ बनती थीं उनमें गंधक रहता था, पीछे आधुनिक दियासलाई का निर्माण शुरू हुआ।

बर्थोले ने पहले पहल आग उत्पन्न करने के लिए पोटासियम क्लोरेट और सलफ्यूरिक अम्ल का उपयोग किया था। पोटासियम क्लारेट चीनी और गोंद में मिलाकर लकड़ी की शलाका के एक सिरे पर लगा होता था। उसे सलफ्यूरिक अम्ल में डुबाने से शलाका जल उठती थी। फॉस्फोरस के आविष्कार के बाद घर्षण दियासलाई का आविष्कार इंग्लैंड के जॉन वाकर द्वारा १८२६ ई. में हुआ। लकड़ी की शलाका के सिरे पर एंटिमनी सल्फाइड, पोटासियम क्लोरेट, बबूल का गोंद या स्टार्च लगे रहते थे। उसे रेगमाल पर रगड़ने से मसाला जल उठता था, उससे चिनगारियाँ छिटकतीं और छोटे छोटे विस्फोट होते थे। गंधक के जलने के कारण गंध बड़ी अरुचिकर होती थी। सन्‌ १८३२ में फ्रांस में ऐंटीमनी सल्फाइड के स्थान में फॉस्फोरस का प्रयोग शुरू हुआ। इससे गंधक की अरुचिकर गंध तो जाती रही पर फॉस्फोरस के जलने से बना धुआँ बहुत विषैला सिद्ध हुआ और ऐसे कारखानों में काम करनेवाले श्रमिकों में परिगलन (ग़्ड्ढड़द्धदृद्मत्द्म) रोग फैलने लगा और अनेक लोग मरने लगे। पीत फॉस्फोरस का उपयोग आज कानून से वर्जित है। पीत फॉस्फोरस के स्थान पर अब अविषाक्त फॉस्फोरस सेस्क्किसल्फाइड का प्रयोग शुरू हुआ। पीछे लाल, या अक्रिस्टला फॉस्फोरस का पता लगा, जो बिलकुल विषैला नहीं होता। पीछ फॉस्फोरस के स्थान पर बहुत दिनों तक इसी का उपयोग दियासलाई बनाने में होता रहा। ऐसी दियासलाई किसी रुखड़े तल पर रगड़ने से जल उठती है। इसके बाद निरापद दियासलाई का आविष्कार हुआ। इसमें कुछ मसाले शलाका के सिरे पर रहते हैं और कुछ मसाले बक्स पर रहते हैं। इससे दियासलाई केवल बक्स के तल पर रगड़ने से जलती है, अन्यथा नहीं।

पहले दियासलाई का निर्माण हाथों से होता था। शलाका हाथों से ही बनती थी और हाथों से ही उसके सिरे पर मसाले बैठाए जाते थे। उनके वक्स भी हाथों से ही बनते थे। ऐसी स्थिति १८वीं शती के मध्य तक थी। उसके बाद मशीनों का उपयोग शुरू हुआ। आज दियासलाई बनाने के समस्त कार्य मशीनों से होते हैं, लकड़ी का चीरकर शलाका बनाना, लकड़ी से बक्स बनाना, शलाका पर मसाला बैठाना और सुखाना, बक्स पर मसाला बैठाना और लेबल चिपकाना, बक्सों में शलाकाएँ भरना इत्यादि समस्त कार्य मशीनों से होते हैं। एक घंटे में ये सारे काम संपन्न होकर लगभग ३,००० बक्स शलाकाओं से भर कर मशीन से निकल आते हैं।

शलाका बनाने के लिए चीड़ का काठ प्रयुक्त होता था। पर अब ऐसा कोई भी काठ प्रयुक्त हो सकता है जिससे शलाका जल्द और अच्छी बन सकती हो और जिसकी शलाका जल्दी टूटे नहीं।

शलाका को ऐमोनियम फॉस्फेट अम्ल के विलयनों में डुबाकर इससे जलाने पर शलाका से विभा (aढद्यड्ढद्ध-ढ़थ्द्ध्रृ) नहीं उत्पन्न होती। फिर उसके सिरे के पिघले पैराफिन मोम में डुबाते हैं। यह मोम ज्वालावाहक का काम करता है। अब मोम लगे सिरे पर फॉस्फोरस सैस्क्किसल्फाइड, या टेट्राफॉस्फोरस ट्राइसल्फाइड (घ्४च्३), पोटासियम क्लोरेट, गोंद, काचचूर्ण और रंग के मिश्रण बैठाकर सुखा दिए जाते हैं। वहाँ से शलाका एक परिभ्रामी द्रोणी में जाकर बक्स में भर दी जाती है। बक्स पर कागज या लेबल चिपका दिए जाते हैं और पार्श्व तल पर रगड़नेवाला मसाला बैठाया जाता है। मसले में लाल या अक्रिस्टली फॉस्फोरस, ऐंटिमनी सल्फाइड, काच का चूरा (और कभी कभी लोहे के सल्फाइड), गोंद और रंग लगा रहता है।

दियासलाई का निर्माण भारत में १८९५ ई. से आरंभ हुआ। पहला कारखाना अहमदाबाद में और फिर १९०९ ई. में कलकत्ते में खुला था। आजकल लगभग २०० छोटे बड़े कारखाने काम कर रहे हैं। १९२१ ई. तक शलाका और बक्स की लकड़ियाँ प्रयुक्त होने लगीं। स्वीडन की एक मैच मैन्युफैक्चरिंग कंपनी ने भारत में दियासलाई निर्माण का एक कारखाना खोला। यह कंपनी आजकल 'वेस्टर्न इंडिया मैच कंपनी' के नाम से कार्य कर रही है। इसके अधिकांश शेयरधारी अब भारतीय हैं। १८२६ ई. में भारत सरकार ने दियासलाई के कारखानों को संरक्षण दिया, पर साथ ही उत्पादन शुल्क भी लगा दिया है। ४०, ६० और ८० शलाकाओं वाले बक्सों के प्रति गुरुस बक्स पर क्रमश: एक, डेढ़ और दो रुपए उत्पादन शुल्क लगता है। पीछे भारत सरकार ने दियासलाई का मूल्य भी निर्धारित कर दिया ताकि उसका मूल्य बाजारों में न बढ़े और उसकी चोर बाजारी न हो। भारत में केवल पाँच ही कारखाने ऐसे हैं जिनका समस्त कार्य मशीनों से होता है। शेष कारखानें या तो आधे मशीनवाले हैं, अथवा उनमें केवल हाथों से काम होता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ