भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 230

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अध्याय-15
जीवन का वृक्ष विश्ववृक्ष

   
18.यस्मात्क्षरमतीतोअहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोअस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।
क्योंकि मैं क्षर (नश्वर) से, ऊपर हूं और अक्षर से भी ऊपरं, इसलिए इस संसार में और वेद में मैं ही पुरुषोत्तम माना जाता हूं। मुण्डकोपनिषद् से तुलना कीजिए, 2, 1, 1-2 । अक्षरात् परतः परः पुरुषः ।
 
19.यो मोमेवमसम्मूढ़ौ जानति पुरुषोत्तमः।
स सर्वद्धजति मां सर्वभावेन भारत।।
जो कोई भ्रान्तिहीन होकर मुझ पुरुषोत्तम को इस प्रकार जान लेता है,
समझो कि उसने सब-कुछ जान लिया है और हे भारत (अर्जुन), वह अपने सम्पूर्ण अस्तित्व से (अपनी सम्पूर्ण आत्मा से) मेरी पूजा करता है। ज्ञान भक्ति की ओर ले जाता है।
 
20.इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत।।
इस प्रकार हे पापरहित (अर्जुन), मैंने तुझे यह सबसे अधिक रहस्यपूर्ण सिद्धान्त बता दिया है। हे भारत (अर्जुन), इसकी जानने के बाद मनुष्य बुद्धिमान् (ज्ञानी) बन जाता है और उसके सब कर्तव्य पूर्ण हो जाते हैं।
इति ’ ’ ’ पुरुषोत्तमयोगो नाम पच्चदशोअध्यायः।
यह है ’पुरुषोत्तम योग’ नामक पन्द्रहवां अध्याय।
     


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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