भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 88

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
25.अव्यक्तोअयमचिन्त्योअयमविकार्योअयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।

इसे अव्यक्त, अचिन्तनीय और अविकार्य कहा जाता है। इसलिए उसको ऐसा समझते हुए तुझे शोक नहीं करना चाहिए। यहाँ इसे अव्यक्त, अचिन्तनीय और अविकार्य कहा जाता है। इसलिए उसको ऐसा समझते हुए तुझे शोक नहीं करना चाहिए। यहाँ पर जिस वस्तु का वर्णन है, वह साफ-साफ सांख्य का पुरुष है, उपनिषदों का ब्रह्म नहीं। पुरुष रूप या विचार की पहुंच से परे है और जिन परिवर्तनों का मन, प्राण और शरीर पर प्रभाव पड़ता है, वे उसे स्पर्श नहीं करते। यदि इस बात को परमात्मा पर भी लागू किया जाए, जो कि एक ही सर्वव्यापी है, तो भी वह अचिन्त्य और अविकार्य आत्मा है, जिसका अर्थ यहाँ अपेक्षित है। अर्जुन का शोक अस्थान में है, क्योंकि आत्मा को न चोट पहुँचाई जा सकती है और न मारा जा सकता है। रूप बदल सकते हैं, वस्तुएं आनी-जानी हैं, परन्तु उन सबके पीछे जो वस्तु विद्यमान है, वह सदा एक ही रहती है।[१]जो नाशवान है उसके लिए हमें शोक नहीं करना चाहिए।

26.अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैव शोचितुमर्हसि ।।

और यदि तू यह भी समझे कि आत्मा नित्य जन्म लेता है और नित्य मरता है तो भी हे महाबाहु (अर्जुन), तुझे शोक करना उचित नहीं है।

27.जातस्य हि धु्रवो मृत्युधु्र्रवं मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येअर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।

क्यों कि जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है; और जो मर चुका है, उसका जन्म लेना सुनिश्चित है। इसलिए जिससे बचा ही नहीं जा सकता, उसके लिए तुझे शोक नहीं करना चाहिए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जब क्रिटो पूछता है कि ’’सुकरात, हम तुम्हें किस ढंग से दफनाएं?’’ तो उत्तर में सुकरात कहता हैः ’’जिस ढंग से तुम चाहो। परन्तु पहले तुम मुझे, जो वास्तविक मैं हूँ उसे, पकड़ तो लेना। प्यारे क्रिटो, मन प्रसन्न रखना और कहना कि तुम केवल मेरे शरीर को दफना रहे हो, और तब तुम उस शरीर के साथ वैसा ही करना, जैसाकि आमतौर से किया जाता है और जिसे तुम सबसे अच्छा समझते हो।’’

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