"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 90" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">अध्याय-2<br /> सांख्य-सिद्धान्...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-90 का नाम बदलकर भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 90 कर दिया गया है: Text replace - "भगव...)
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति २४: पंक्ति २४:
 
इसका गीता की इस मूल शिक्षा के साथ वैशम्य देखिए कि मनुष्य को स्तुति और निन्दा के प्रति उदासीन रहना चाहिए।
 
इसका गीता की इस मूल शिक्षा के साथ वैशम्य देखिए कि मनुष्य को स्तुति और निन्दा के प्रति उदासीन रहना चाहिए।
 
</poem>
 
</poem>
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-89|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-91}}
+
{{लेख क्रम |पिछला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 89|अगला=भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 91}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
<references/>

११:०१, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

  
32. यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।
हे पार्थ (अर्जुन), वे क्षत्रिय सुखी हैं, जिन्हें संयोग से इस प्रकार का युद्ध लड़ने का अवसर प्राप्त होता है यह युद्ध मानो स्वर्ग का खुला द्वार है।
क्षत्रिय का सुख घरेलू आनन्द और उपभोग में नहीं है, अपितु न्यायोचित की रक्षा के लिए लड़ने में है।[१]
33. अथ चेत्वमिमं धर्म्‍य संग्रामं न करिश्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।
यदि तू इस धर्मयुद्ध को न लडे़गा, तो तू अपने कत्र्तव्य और यश के च्युत हो रहा होगा और तू पाप का भागी बनेगा।
जब न्याय और अन्याय के बीच संघर्ष चल रहा हो, उस सयम जो व्यक्ति मिथ्या भावुकता या दुर्बलता या कायरता के कारण उस युद्ध से अलग रहे, वह पाप कर रहा होता है।
34. अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्तितेअव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।।
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ।
परिव्राट् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः।।[२]
इसके अतिरिक्त मनुष्य सदा तेरे अपयश की बातें कहा करेंगे; और जो आदमी सम्मानित रह चुका हो, उसके लिए बदनामी मृत्यु से भी कहीं बुरी है।
35. भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।
ये बडे़-बडे़ योद्धा यह समझेगे कि तू भय के कारण युद्ध से विमुख हो गया है और जो लोग तेरा बहुत आदर करते थे, वे तुझे बहुत छोटा समझने लगेंगे।
 
36. अवाच्यवादांश्य बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामथ्र्य ततो दुःखतरं नु किम्।।
तेरे शत्रु तेरे बल की निन्दा करते हुए बहुत-सी अनकहनी बातें कहेंगे। इससे बढ़कर और दुःख की क्या बात हो सकती है!
इसका गीता की इस मूल शिक्षा के साथ वैशम्य देखिए कि मनुष्य को स्तुति और निन्दा के प्रति उदासीन रहना चाहिए।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: ’’ हे पुरुषश्रेष्ठ, केवल दो प्रकार के व्यक्ति ही सूर्यमण्डल को भेद सकते हैं (और ब्रह्म के मण्डल तक पहुंच सकते हैं); एक तो वे सन्यासी, जो योग में लगे हुए हैं और दूसरे वे योद्धा, जो लड़ते-लड़ते युद्धक्षेत्र में मारे जाते हैं। ’’
  2. महाभारत, उद्योगपर्व, 32, 65

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन