"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-12" के अवतरणों में अंतर

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लक्ष्‍मी बोलीं - देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरूष में निवास करती हूं जो सौभाग्‍यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्‍पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्‍वगुण से युक्‍त हो। जो पुरूष अकर्मण्‍य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्‍न, दुराचारी, क्रुर, चोर तथा गुरूजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूं। जिनमें तेज, बल, सत्‍व और गौरव की मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहां-तहां हर बात में खिन्‍न हो उठते हैं, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं उपर से कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं निवास नहीं करती हूं। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्‍त: करण मूढ़ता से आच्‍छन्‍न है, जो थोड़े में ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं भलीभांति नित्‍य निवास नहीं करती हूं ।। जो स्‍वभावत: स्‍वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़-बूढ़ों की सेवामें तत्‍पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील, और सामर्थ्‍यशाली हैं, ऐसे पुरूषों में तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूं । जो स्त्रियां स्‍वभावत: सत्‍यवादिनी तथा सरलता से संयुक्‍त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूं। जो अपने समय को कभी व्‍यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचार में तत्‍पर रहते हैं, जिन्‍हें ब्रहृाचर्य, तपस्‍या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरूषों में मैा निवास करती हूं।जो स्त्रियां कमनीय गुणों से युक्‍त, देवताओं तथा ब्राह्माणों की सेवामें तत्‍पर, घर के बर्तन-भांड़ों को शुद्ध तथा स्‍वच्‍छ रखनेवाली एवं गौओं की सेवा तथा धान्‍य के संग्रह में तत्‍पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूं। जो घर के बर्तनों को सुव्‍यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमनें-फिरनें में आसक्‍त रहती हैं और लज्‍जा को सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्‍याग देती हूं। जो स्‍त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्‍पर रहने वाली अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुधहोकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूं।  
 
लक्ष्‍मी बोलीं - देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरूष में निवास करती हूं जो सौभाग्‍यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्‍पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्‍वगुण से युक्‍त हो। जो पुरूष अकर्मण्‍य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्‍न, दुराचारी, क्रुर, चोर तथा गुरूजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूं। जिनमें तेज, बल, सत्‍व और गौरव की मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहां-तहां हर बात में खिन्‍न हो उठते हैं, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं उपर से कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं निवास नहीं करती हूं। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्‍त: करण मूढ़ता से आच्‍छन्‍न है, जो थोड़े में ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं भलीभांति नित्‍य निवास नहीं करती हूं ।। जो स्‍वभावत: स्‍वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़-बूढ़ों की सेवामें तत्‍पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील, और सामर्थ्‍यशाली हैं, ऐसे पुरूषों में तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूं । जो स्त्रियां स्‍वभावत: सत्‍यवादिनी तथा सरलता से संयुक्‍त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूं। जो अपने समय को कभी व्‍यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचार में तत्‍पर रहते हैं, जिन्‍हें ब्रहृाचर्य, तपस्‍या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरूषों में मैा निवास करती हूं।जो स्त्रियां कमनीय गुणों से युक्‍त, देवताओं तथा ब्राह्माणों की सेवामें तत्‍पर, घर के बर्तन-भांड़ों को शुद्ध तथा स्‍वच्‍छ रखनेवाली एवं गौओं की सेवा तथा धान्‍य के संग्रह में तत्‍पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूं। जो घर के बर्तनों को सुव्‍यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमनें-फिरनें में आसक्‍त रहती हैं और लज्‍जा को सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्‍याग देती हूं। जो स्‍त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्‍पर रहने वाली अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुधहोकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूं।  
 
   
 
   
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०५:५५, २० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण

एकादश (11) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकादश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

लक्ष्‍मी के निवास करने ओर न करने योग्‍य पुरूष, स्‍त्री और स्‍थानों का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा – तात ! भरतश्रेष्‍ठ ! कैसे पुरूष में और किसी तरह की स्त्रियों में लक्ष्‍मी नित्‍य निवास करती है ? पितामह ! यह मुझे बताइये।

भीष्‍मजी ने कहा – राजन् ! इस विषय में एक यथार्थ वृतान्‍त को मैनें जैसा सुना है, उसी के अनुसार तुम्‍हें बता रहा हूं । देवकी नन्‍दन श्रीकृष्‍ण के समीप रूक्मिणी देवी ने साक्षात् लक्ष्‍मी से जोकुछ पुछा था, वह मुझसे सुनो। भगवान नारायण के अंग में बैठी हुई कमल के समान कान्तिवाली लक्ष्‍मी देवी को अपनी प्रभा से प्रकाशित होती देख जिसके मनोहर नेत्र आश्‍चर्य से खिल उठे थे, उन प्रद्युम्‍नजननी रूक्मिणी देवी ने कौतूहल वश

लक्ष्‍मी से पूछा - 'महर्षि भृगु की पुत्री तथा त्रिलोकी नाथ भगवान नारायण की प्रियतमें ! देवि ! तुम इस जगत् में किन प्राणियों पर कृपा करके उनके यहां रहती हो ? कहां निवास करती हो किन-किनका सेवन करती हो ? उन सबको मुझे यथार्थ रूप से बताओ'। रूक्मिणी के इस प्रकार पूछने पर चन्‍द्रमुखी लक्ष्‍मी देवीने प्रसन्‍न होकर भगवान गरूडध्‍वज के सामने ही मीठी वाणी में यह वचन कह।।

लक्ष्‍मी बोलीं - देवि ! मैं प्रतिदिन ऐसे पुरूष में निवास करती हूं जो सौभाग्‍यशाली, निर्भीक, कार्यकुशल, कर्मपरायण, क्रोधरहित, देवाराधनतत्‍पर, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय तथा बढ़े हुए सत्‍वगुण से युक्‍त हो। जो पुरूष अकर्मण्‍य, नास्तिक, वर्णसंकर, कृतघ्‍न, दुराचारी, क्रुर, चोर तथा गुरूजनों के दोष देखनेवाला हो, उसके भीतर मैं निवास नहीं करती हूं। जिनमें तेज, बल, सत्‍व और गौरव की मात्रा बहुत थोड़ी है, जो जहां-तहां हर बात में खिन्‍न हो उठते हैं, जो मन में दूसरा भाव रखते हैं उपर से कुछ और ही दिखाते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं निवास नहीं करती हूं। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, जिसका अन्‍त: करण मूढ़ता से आच्‍छन्‍न है, जो थोड़े में ही संतोष कर लेते हैं, ऐसे मनुष्‍यों में मैं भलीभांति नित्‍य निवास नहीं करती हूं ।। जो स्‍वभावत: स्‍वधर्मपरायण, धर्मज्ञ, बड़-बूढ़ों की सेवामें तत्‍पर, जितेन्द्रिय, मन को वश में रखने वाले, क्षमाशील, और सामर्थ्‍यशाली हैं, ऐसे पुरूषों में तथा क्षमाशील एवं जितेन्द्रिय अबलाओं में भी मैं निवास करती हूं । जो स्त्रियां स्‍वभावत: सत्‍यवादिनी तथा सरलता से संयुक्‍त हैं, जो देवताओं और द्विजों की पूजा करने वाली हैं, उनमें भी मैं निवास करती हूं। जो अपने समय को कभी व्‍यर्थ नहीं जाने देते, सदा दान एवं शौचाचार में तत्‍पर रहते हैं, जिन्‍हें ब्रहृाचर्य, तपस्‍या, ज्ञान, गौ और द्विज परम प्रिय हैं, ऐसे पुरूषों में मैा निवास करती हूं।जो स्त्रियां कमनीय गुणों से युक्‍त, देवताओं तथा ब्राह्माणों की सेवामें तत्‍पर, घर के बर्तन-भांड़ों को शुद्ध तथा स्‍वच्‍छ रखनेवाली एवं गौओं की सेवा तथा धान्‍य के संग्रह में तत्‍पर होती हैं, उनमें भी मैं सदा निवास करती हूं। जो घर के बर्तनों को सुव्‍यवस्थित रूप से न रखकर इधर-उधर बिखेरे रहती हैं, सोच-समझकर काम नहीं करती हैं, सदा अपने पति के प्रतिकूल ही बोलती हैं, दूसरों के घरों में घूमनें-फिरनें में आसक्‍त रहती हैं और लज्‍जा को सर्वथा छोड़ बैठती हैं, उनको मैं त्‍याग देती हूं। जो स्‍त्री निर्दयतापूर्वक पापाचार में तत्‍पर रहने वाली अपवित्र, चटोर, धैर्यहीन, कलहप्रिय, नींद में बेसुधहोकर सदा खाट पर पड़ी रहने वाली होती है, ऐसी नारी से मैं सदा दूर ही रहती हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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