महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-19

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०९:०५, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: अन्धत्व और पंगुत्व आदि नाना प्रकारके दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन भाग-19 का हिन्दी अनुवाद

उमा ने पूछा- भगवन्! देव! कुछ मनुष्य सदा पैरों के रोगों से पीडि़त दिखायी देते हैं। इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो मनुष्य पहले क्रोध और लोभ के वशीभूत होकर देवता के स्थान को अपने पैरों से भ्रष्ट करते, घुटनों और एड़ियों से मारकर प्राणियों की हिंसा करते हैं, शोभने! ऐसे आचरण वाले लोग पुनर्जन्म लेने पर श्वपद आदि नाना प्रकार के पाद रोगों से पीडि़त होते हैं। उमा ने पूछा- भगवन्! देव! इस भूतल पर कुछ ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या दिखायी देती है, जो वात, पित्त और कफजनित रोगों से तथा एक ही साथ इन तीनों के संनिपात से तथा दूसरे-दूसरे अनेक रोगों से कष्ट पाते हुए बहुत दुःखी रहते हैं। वे धनी हों या दरिद्र, पूर्वोक्त रोगों में से कुछ के द्वारा अथवा समस्त रोगों के द्वारा कष्ट पाते रहते हैं। किस कर्मविपाक से ऐसा होता है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- कल्याणि! इसका कारण मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। देवि! जो मनुष्य पूर्वजन्म में असुरभाव का आश्रय ले स्वच्छन्दचारी, क्रोधी और गुरूद्रोही हो जाते हैं, मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा दूसरों को दुःख देते हैं, काटते, विदीर्ण करते और पीड़ा देते हुए सदा ही प्राणियों के प्रति निर्दयता दिखाते हैं। शोभने! ऐसे आचरण वाले लोग पुनर्जन्म के समय यदि मनुष्य-जन्म पाते हैं तो वे वैसे ही होते हैं। प्रिये! उस शरीर में वे बहुतेरे भयंकर रोगों से संतप्त होते हैं। किसी को उलटी होती है तो कोई खाँसी से कष्ट पाते हैं। दूसरे बहुत से मनुष्य ज्वर, अतिसार और तृष्णा से पीडि़त रहते हैं। किन्हीं को अनेक प्रकार के पादगुल्म सताते हैं। कुछ लोग कफदोष से पीडि़त होते हैं। कितने ही नाना प्रकार के पादरोग, व्रणकुष्ठ और भगन्दर रोगों से रूग्ण रहते हैं। वे धनी हों या दरिद्र सब लोग रोगों से पीड़ित दिखायी देते हैं। इस प्रकार उन-उन शरीरों में वे अपने किये हुए कर्म का ही फल भोगते हैं। कोई भी बिना किये हुए कर्म के फल को नहीं पा सकता। देवि! इस प्रकार यह विषय मैंने तुम्हें बताया, अब और क्या सुनना चाहती हो?


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख