"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-3" के अवतरणों में अंतर

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वह प्रसन्नमुख और सबका परम प्रिय होकर लोगों को जीविका दे, उनके साथ उत्तम बर्ताव करे। किसी से पापपूर्ण, रूखा और तीखा वचन बोलना उसके लिये कदापि उचित नहीं। सत्पुरूषों के बीच में वह कभी ऐसी बात न कहे, जो विश्वास के योग्य न हो। प्रत्येक मनुष्य के गुणों और दोषों को उसे अच्छी तरह समझना चाहिये। अपनी चेष्टा को धैर्यपूर्वक छिपाये रखे। क्षुद्र बुद्धि का प्रदर्शन न करे अथवा मन में क्षुद्र विचार न लाये। दूसरे की चेष्टा को अच्छी तरह समझकर संसार में उनके साथ सम्पर्क स्थापित करे।। राजा को चाहिये कि वह अपने भय से, दूसरों के भय से, पारस्प्रिक भय से तथा अमानुष भयों से अपनी प्रजा को सुरक्षित रखे।। जो लोभी, कठोर तथा डाका डालने वाले मनुष्य हों, उन्हें जहाँ-तहाँ से पकड़वाकर राजा कैद में डाल दे। राजकुमारों को जन्म से ही विनयशील बनावे। उनमें से जो भी अपने अनुरूप गुणों से युक्त हो, उसे युवराजपद पर नियुक्त करे। शोभने! एक क्षण के लिये भी बिना राजा का राज्य नहीं रहना चाहिये। अतः अपने पीछे राजा होने के लिये एक युवराज को नियत करना सदा ही आवश्यक है। कुलीन पुरूषों, वैद्यों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों, तपस्वी मुनियों तथा वृत्तियुक्त दूसरे पुरूषों का भी राजा विशेष सत्कार करे। अपने लिये, राज्य के हित के लिये तथा कोष-संग्रह के लिये ऐसा करना आवश्यक है। नीतिज्ञ पुरूष अपने कोष को चार भागों में विभक्त करे- धर्म के लिये, पोष्य वर्ग के पोषण के लिये, अपने लिये तथा देश-कालवश आने वाली आपत्ति के लिये। राजा को चाहिये कि अपने देश में जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियों का बुद्धिपूर्वक भली-भाँति विचार करके प्रयोग करे। राजा सबका प्रिय होकर सदा अपने मण्डल (देश के भिन्न-भिन्न भाग) में विचरे। शुभ कार्यों में भी वह अकेला कुछ न करे। अपने और दूसरों से संकट की सम्भावना का विचार करके द्वेष या लोभवश धार्मिक पुरूषों के साथ सम्बन्ध का त्याग न करे। प्रजा का धर्म है रक्षणीयता और क्षत्रिय राजा का धर्म है रक्षा, अतः दुष्ट राजाओं से पीडि़त हुई प्रजा की सर्वत्र रक्षा करे। सेना को संकटों से बचावे, नीति से अथवा धन खर्च करके भी प्रायः युद्ध को टाले। सैनिकों तथा प्रजाजनों के प्राणों की रक्षा के उद्देष्य से ही ऐसा करना चाहिये। अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर ही युद्ध करना चाहिये, अपने या पराये दोष से नहीं। उत्तम युद्ध में प्राण-विसर्जन करना वीर योद्धा के लिये धर्म की प्राप्ति कराने वाला होता है। किसी बलवान् शत्रु के आक्रमण करने पर राजा उस आपत्ति से बचने का उपाय करे। प्रजा के हित के लिये समस्त विरोधियों को अनुनय-विनय के द्वारा अनुकूल बना ले। देवि! यह संक्षेप से राजधर्म बताया गया है। इस प्रकार बतार्व करने वाला राजा प्रजा को दण्ड देता और फटकारता हुआ भी जल से लिप्त न होने वाले कमलदल के समान पाप से अछूता ही रहता है।। इस बर्ताव से रहने वाले राजा की जब मृत्यु होती है, तब वह स्वर्गलोक में जाकर देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।
 
वह प्रसन्नमुख और सबका परम प्रिय होकर लोगों को जीविका दे, उनके साथ उत्तम बर्ताव करे। किसी से पापपूर्ण, रूखा और तीखा वचन बोलना उसके लिये कदापि उचित नहीं। सत्पुरूषों के बीच में वह कभी ऐसी बात न कहे, जो विश्वास के योग्य न हो। प्रत्येक मनुष्य के गुणों और दोषों को उसे अच्छी तरह समझना चाहिये। अपनी चेष्टा को धैर्यपूर्वक छिपाये रखे। क्षुद्र बुद्धि का प्रदर्शन न करे अथवा मन में क्षुद्र विचार न लाये। दूसरे की चेष्टा को अच्छी तरह समझकर संसार में उनके साथ सम्पर्क स्थापित करे।। राजा को चाहिये कि वह अपने भय से, दूसरों के भय से, पारस्प्रिक भय से तथा अमानुष भयों से अपनी प्रजा को सुरक्षित रखे।। जो लोभी, कठोर तथा डाका डालने वाले मनुष्य हों, उन्हें जहाँ-तहाँ से पकड़वाकर राजा कैद में डाल दे। राजकुमारों को जन्म से ही विनयशील बनावे। उनमें से जो भी अपने अनुरूप गुणों से युक्त हो, उसे युवराजपद पर नियुक्त करे। शोभने! एक क्षण के लिये भी बिना राजा का राज्य नहीं रहना चाहिये। अतः अपने पीछे राजा होने के लिये एक युवराज को नियत करना सदा ही आवश्यक है। कुलीन पुरूषों, वैद्यों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों, तपस्वी मुनियों तथा वृत्तियुक्त दूसरे पुरूषों का भी राजा विशेष सत्कार करे। अपने लिये, राज्य के हित के लिये तथा कोष-संग्रह के लिये ऐसा करना आवश्यक है। नीतिज्ञ पुरूष अपने कोष को चार भागों में विभक्त करे- धर्म के लिये, पोष्य वर्ग के पोषण के लिये, अपने लिये तथा देश-कालवश आने वाली आपत्ति के लिये। राजा को चाहिये कि अपने देश में जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियों का बुद्धिपूर्वक भली-भाँति विचार करके प्रयोग करे। राजा सबका प्रिय होकर सदा अपने मण्डल (देश के भिन्न-भिन्न भाग) में विचरे। शुभ कार्यों में भी वह अकेला कुछ न करे। अपने और दूसरों से संकट की सम्भावना का विचार करके द्वेष या लोभवश धार्मिक पुरूषों के साथ सम्बन्ध का त्याग न करे। प्रजा का धर्म है रक्षणीयता और क्षत्रिय राजा का धर्म है रक्षा, अतः दुष्ट राजाओं से पीडि़त हुई प्रजा की सर्वत्र रक्षा करे। सेना को संकटों से बचावे, नीति से अथवा धन खर्च करके भी प्रायः युद्ध को टाले। सैनिकों तथा प्रजाजनों के प्राणों की रक्षा के उद्देष्य से ही ऐसा करना चाहिये। अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर ही युद्ध करना चाहिये, अपने या पराये दोष से नहीं। उत्तम युद्ध में प्राण-विसर्जन करना वीर योद्धा के लिये धर्म की प्राप्ति कराने वाला होता है। किसी बलवान् शत्रु के आक्रमण करने पर राजा उस आपत्ति से बचने का उपाय करे। प्रजा के हित के लिये समस्त विरोधियों को अनुनय-विनय के द्वारा अनुकूल बना ले। देवि! यह संक्षेप से राजधर्म बताया गया है। इस प्रकार बतार्व करने वाला राजा प्रजा को दण्ड देता और फटकारता हुआ भी जल से लिप्त न होने वाले कमलदल के समान पाप से अछूता ही रहता है।। इस बर्ताव से रहने वाले राजा की जब मृत्यु होती है, तब वह स्वर्गलोक में जाकर देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०४:४६, २७ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

राजधर्म का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-3 का हिन्दी अनुवाद

वह प्रसन्नमुख और सबका परम प्रिय होकर लोगों को जीविका दे, उनके साथ उत्तम बर्ताव करे। किसी से पापपूर्ण, रूखा और तीखा वचन बोलना उसके लिये कदापि उचित नहीं। सत्पुरूषों के बीच में वह कभी ऐसी बात न कहे, जो विश्वास के योग्य न हो। प्रत्येक मनुष्य के गुणों और दोषों को उसे अच्छी तरह समझना चाहिये। अपनी चेष्टा को धैर्यपूर्वक छिपाये रखे। क्षुद्र बुद्धि का प्रदर्शन न करे अथवा मन में क्षुद्र विचार न लाये। दूसरे की चेष्टा को अच्छी तरह समझकर संसार में उनके साथ सम्पर्क स्थापित करे।। राजा को चाहिये कि वह अपने भय से, दूसरों के भय से, पारस्प्रिक भय से तथा अमानुष भयों से अपनी प्रजा को सुरक्षित रखे।। जो लोभी, कठोर तथा डाका डालने वाले मनुष्य हों, उन्हें जहाँ-तहाँ से पकड़वाकर राजा कैद में डाल दे। राजकुमारों को जन्म से ही विनयशील बनावे। उनमें से जो भी अपने अनुरूप गुणों से युक्त हो, उसे युवराजपद पर नियुक्त करे। शोभने! एक क्षण के लिये भी बिना राजा का राज्य नहीं रहना चाहिये। अतः अपने पीछे राजा होने के लिये एक युवराज को नियत करना सदा ही आवश्यक है। कुलीन पुरूषों, वैद्यों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों, तपस्वी मुनियों तथा वृत्तियुक्त दूसरे पुरूषों का भी राजा विशेष सत्कार करे। अपने लिये, राज्य के हित के लिये तथा कोष-संग्रह के लिये ऐसा करना आवश्यक है। नीतिज्ञ पुरूष अपने कोष को चार भागों में विभक्त करे- धर्म के लिये, पोष्य वर्ग के पोषण के लिये, अपने लिये तथा देश-कालवश आने वाली आपत्ति के लिये। राजा को चाहिये कि अपने देश में जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियों का बुद्धिपूर्वक भली-भाँति विचार करके प्रयोग करे। राजा सबका प्रिय होकर सदा अपने मण्डल (देश के भिन्न-भिन्न भाग) में विचरे। शुभ कार्यों में भी वह अकेला कुछ न करे। अपने और दूसरों से संकट की सम्भावना का विचार करके द्वेष या लोभवश धार्मिक पुरूषों के साथ सम्बन्ध का त्याग न करे। प्रजा का धर्म है रक्षणीयता और क्षत्रिय राजा का धर्म है रक्षा, अतः दुष्ट राजाओं से पीडि़त हुई प्रजा की सर्वत्र रक्षा करे। सेना को संकटों से बचावे, नीति से अथवा धन खर्च करके भी प्रायः युद्ध को टाले। सैनिकों तथा प्रजाजनों के प्राणों की रक्षा के उद्देष्य से ही ऐसा करना चाहिये। अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर ही युद्ध करना चाहिये, अपने या पराये दोष से नहीं। उत्तम युद्ध में प्राण-विसर्जन करना वीर योद्धा के लिये धर्म की प्राप्ति कराने वाला होता है। किसी बलवान् शत्रु के आक्रमण करने पर राजा उस आपत्ति से बचने का उपाय करे। प्रजा के हित के लिये समस्त विरोधियों को अनुनय-विनय के द्वारा अनुकूल बना ले। देवि! यह संक्षेप से राजधर्म बताया गया है। इस प्रकार बतार्व करने वाला राजा प्रजा को दण्ड देता और फटकारता हुआ भी जल से लिप्त न होने वाले कमलदल के समान पाप से अछूता ही रहता है।। इस बर्ताव से रहने वाले राजा की जब मृत्यु होती है, तब वह स्वर्गलोक में जाकर देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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