"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 1-12" के अवतरणों में अंतर

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==अष्टपन्चाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
 
भीष्मजी के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
 
भीष्मजी के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
  
 
युधिष्ठिर ने पूछा- राजन् आप सदा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। अतः जनेश्वर ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन सा लाभ देखकर उनका पूजन करते थे ?  महान् व्रतधारी महाबाहो ! ब्राह्मणों की पूजा से भविष्य में मिलने वाले किस फल की ओर दृष्टि रखकर आप उनकी आराधना करते थे ? यह सब मुझे बताइये।  
 
युधिष्ठिर ने पूछा- राजन् आप सदा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। अतः जनेश्वर ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन सा लाभ देखकर उनका पूजन करते थे ?  महान् व्रतधारी महाबाहो ! ब्राह्मणों की पूजा से भविष्य में मिलने वाले किस फल की ओर दृष्टि रखकर आप उनकी आराधना करते थे ? यह सब मुझे बताइये।  
भीष्मजी ने कहा- यूधिष्ठिर ! ये महान् व्रतधारी परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण-पूजा से होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं; अतः वही तुमसे इस विषय में सारी बातें बतायेंगे। आज मेरा बल, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन और मेरे दोनों नेत्र तथा मेरा विशुद्ध ज्ञान भी सब एकत्रित हो गये हैं। अतः जान पड़ता है कि अब मेरा शरीर छूटने में अधिक विलम्ब नहीं है। आज सूर्यदेव अधिक तेजी से नहीं चलते हैं। पार्थ ! पुराणों में जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के ( अलग-अलग ) धर्म बतलाये गये हैं तथा सब वर्णों के लोग जिस-जिस धर्म की उपासना करते हैं, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब जो कुछ बाकी रह गया हो, उसकी भगवान् श्रीकृष्ण से शिक्षा लो। इन श्रीकृष्ण का जो स्वरूप है और जो इनका पुरातन बल है, उसे ठीक-ठीक मैं जानता हूँ। कौरवराज ! भगवान् श्रीकृष्ण अप्रमेय हैं; अतः तुम्हारे मन मे संदेह होने पर यही तुम्हें धर्म का उपदेश करें। श्रीकृष्ण ने ही इस पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग की सृष्टि की है। इन्हीं के शरीर से पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ है। यही भयंकर बलवाले वराह के रूप में प्रकट हुए थे तथा इन्हीं पुराण-पुरुष ने पर्वतों और दिशाओं को उत्पन्न किया है। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, चारों दिशाएँ तथा चारों कोण- ये सब भगवान् श्रीकृष्ण से नीचे हैं। इन्हीं से सृष्टि की परम्परा प्रचलित हुई है तथा इन्होंने ही इस प्राचीन विश्व का निर्माण किया है। मुन्तीनन्दन ! सृष्टि के आरम्भ में इनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ और उसी के भीतर अमित तेजस्वी ब्रह्माजी स्वतः प्रकट हुए। जिन्होंने उस घोर अन्धकार का नाश किया है, जो समुद्र को भी डाँट बताता हुआ सब ओर व्याप्त हो रहा था ( अर्थात् जो अगाध और अपार था )। पार्थ ! सत्ययुग में श्रीकृष्ण सम्पूर्ण धर्मरूप से विराजमान थे, नेत्रों में पूर्णज्ञान यश विवेकरूप से स्थित थे, द्वापर में बलरूप से स्थित हुए थे और कलियुग में अधर्म रूप से इस पृथ्वी पर आयेंगे ( अर्थात् उस समय अधर्म ही बलवान् होगा )। इन्होंने ही प्राचीनकाल में दैत्यों का संहार किया और ये ही दैत्य सम्राट बलि के रूप में प्रकट हुए। ये भूतभावन प्रभु ही भूत और भविष्य इनके ही स्वरूप हैं तथा ये ही इस सम्पूर्ण जगत् के रक्षा करने वाले हैं। जब धर्म का ह्रास होने लगता है, तब ये शुद्ध अन्तःकरण वाले श्रीकृष्ण देवताओं तथा मनुष्यों के कुल में अवतार लेकर स्वयं धर्म में स्थित हो उसका आचरण करते हुए उसकी स्थापना तथा पर और अपर लोकों की रक्षा करते हैं।  
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भीष्मजी ने कहा- यूधिष्ठिर ! ये महान् व्रतधारी परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण-पूजा से होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं; अतः वही तुमसे इस विषय में सारी बातें बतायेंगे। आज मेरा बल, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन और मेरे दोनों नेत्र तथा मेरा विशुद्ध ज्ञान भी सब एकत्रित हो गये हैं। अतः जान पड़ता है कि अब मेरा शरीर छूटने में अधिक विलम्ब नहीं है। आज सूर्यदेव अधिक तेजी से नहीं चलते हैं। पार्थ ! पुराणों में जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के ( अलग-अलग ) धर्म बतलाये गये हैं तथा सब वर्णों के लोग जिस-जिस धर्म की उपासना करते हैं, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब जो कुछ बाकी रह गया हो, उसकी भगवान् श्रीकृष्ण से शिक्षा लो। इन श्रीकृष्ण का जो स्वरूप है और जो इनका पुरातन बल है, उसे ठीक-ठीक मैं जानता हूँ। कौरवराज ! भगवान् श्रीकृष्ण अप्रमेय हैं; अतः तुम्हारे मन मे संदेह होने पर यही तुम्हें धर्म का उपदेश करें। श्रीकृष्ण ने ही इस पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग की सृष्टि की है। इन्हीं के शरीर से पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ है। यही भयंकर बलवाले वराह के रूप में प्रकट हुए थे तथा इन्हीं पुराण-पुरुष ने पर्वतों और दिशाओं को उत्पन्न किया है। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, चारों दिशाएँ तथा चारों कोण- ये सब भगवान् श्रीकृष्ण से नीचे हैं। इन्हीं से सृष्टि की परम्परा प्रचलित हुई है तथा इन्होंने ही इस प्राचीन विश्व का निर्माण किया है। <br />
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मुन्तीनन्दन ! सृष्टि के आरम्भ में इनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ और उसी के भीतर अमित तेजस्वी ब्रह्माजी स्वतः प्रकट हुए। जिन्होंने उस घोर अन्धकार का नाश किया है, जो समुद्र को भी डाँट बताता हुआ सब ओर व्याप्त हो रहा था ( अर्थात् जो अगाध और अपार था )। पार्थ ! सत्ययुग में श्रीकृष्ण सम्पूर्ण धर्मरूप से विराजमान थे, नेत्रों में पूर्णज्ञान यश विवेकरूप से स्थित थे, द्वापर में बलरूप से स्थित हुए थे और कलियुग में अधर्म रूप से इस पृथ्वी पर आयेंगे ( अर्थात् उस समय अधर्म ही बलवान् होगा )। इन्होंने ही प्राचीनकाल में दैत्यों का संहार किया और ये ही दैत्य सम्राट बलि के रूप में प्रकट हुए। ये भूतभावन प्रभु ही भूत और भविष्य इनके ही स्वरूप हैं तथा ये ही इस सम्पूर्ण जगत् के रक्षा करने वाले हैं। जब धर्म का ह्रास होने लगता है, तब ये शुद्ध अन्तःकरण वाले श्रीकृष्ण देवताओं तथा मनुष्यों के कुल में अवतार लेकर स्वयं धर्म में स्थित हो उसका आचरण करते हुए उसकी स्थापना तथा पर और अपर लोकों की रक्षा करते हैं।  
  
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 157 श्लोक 00|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 13-25}}
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१३:०१, २३ सितम्बर २०१५ का अवतरण

अष्टपन्चाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: अष्टपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

भीष्मजी के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन

युधिष्ठिर ने पूछा- राजन् आप सदा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों की पूजा किया करते थे। अतः जनेश्वर ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप कौन सा लाभ देखकर उनका पूजन करते थे ? महान् व्रतधारी महाबाहो ! ब्राह्मणों की पूजा से भविष्य में मिलने वाले किस फल की ओर दृष्टि रखकर आप उनकी आराधना करते थे ? यह सब मुझे बताइये। भीष्मजी ने कहा- यूधिष्ठिर ! ये महान् व्रतधारी परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण-पूजा से होने वाले लाभ का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुके हैं; अतः वही तुमसे इस विषय में सारी बातें बतायेंगे। आज मेरा बल, मेरे कान, मेरी वाणी, मेरा मन और मेरे दोनों नेत्र तथा मेरा विशुद्ध ज्ञान भी सब एकत्रित हो गये हैं। अतः जान पड़ता है कि अब मेरा शरीर छूटने में अधिक विलम्ब नहीं है। आज सूर्यदेव अधिक तेजी से नहीं चलते हैं। पार्थ ! पुराणों में जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के ( अलग-अलग ) धर्म बतलाये गये हैं तथा सब वर्णों के लोग जिस-जिस धर्म की उपासना करते हैं, वह सब मैंने तुम्हें सुना दिया है। अब जो कुछ बाकी रह गया हो, उसकी भगवान् श्रीकृष्ण से शिक्षा लो। इन श्रीकृष्ण का जो स्वरूप है और जो इनका पुरातन बल है, उसे ठीक-ठीक मैं जानता हूँ। कौरवराज ! भगवान् श्रीकृष्ण अप्रमेय हैं; अतः तुम्हारे मन मे संदेह होने पर यही तुम्हें धर्म का उपदेश करें। श्रीकृष्ण ने ही इस पृथ्वी, आकाश और स्वर्ग की सृष्टि की है। इन्हीं के शरीर से पृथ्वी का प्रादुर्भाव हुआ है। यही भयंकर बलवाले वराह के रूप में प्रकट हुए थे तथा इन्हीं पुराण-पुरुष ने पर्वतों और दिशाओं को उत्पन्न किया है। अन्तरिक्ष, स्वर्ग, चारों दिशाएँ तथा चारों कोण- ये सब भगवान् श्रीकृष्ण से नीचे हैं। इन्हीं से सृष्टि की परम्परा प्रचलित हुई है तथा इन्होंने ही इस प्राचीन विश्व का निर्माण किया है।
मुन्तीनन्दन ! सृष्टि के आरम्भ में इनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ और उसी के भीतर अमित तेजस्वी ब्रह्माजी स्वतः प्रकट हुए। जिन्होंने उस घोर अन्धकार का नाश किया है, जो समुद्र को भी डाँट बताता हुआ सब ओर व्याप्त हो रहा था ( अर्थात् जो अगाध और अपार था )। पार्थ ! सत्ययुग में श्रीकृष्ण सम्पूर्ण धर्मरूप से विराजमान थे, नेत्रों में पूर्णज्ञान यश विवेकरूप से स्थित थे, द्वापर में बलरूप से स्थित हुए थे और कलियुग में अधर्म रूप से इस पृथ्वी पर आयेंगे ( अर्थात् उस समय अधर्म ही बलवान् होगा )। इन्होंने ही प्राचीनकाल में दैत्यों का संहार किया और ये ही दैत्य सम्राट बलि के रूप में प्रकट हुए। ये भूतभावन प्रभु ही भूत और भविष्य इनके ही स्वरूप हैं तथा ये ही इस सम्पूर्ण जगत् के रक्षा करने वाले हैं। जब धर्म का ह्रास होने लगता है, तब ये शुद्ध अन्तःकरण वाले श्रीकृष्ण देवताओं तथा मनुष्यों के कुल में अवतार लेकर स्वयं धर्म में स्थित हो उसका आचरण करते हुए उसकी स्थापना तथा पर और अपर लोकों की रक्षा करते हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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