"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 158 श्लोक 26-39" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद</div>
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
 
इन्होंने ही अर्जुन को श्वेत अश्व प्रदान किया था। इन्होंने ही समस्त अश्वों की सृष्टि की थी। ये ही संसाररूपी रथ को बाँधने वाले बन्धन हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण ही इस रथ के चक्र हैं। ऊध्र्व, मध्य और अधः- जिसकी गति है। काल, अदृष्ट, इच्छा और संकल्प- ये चार जिसके घोडत्रे हैं। सफेद, काला और लाल रंग का त्रिविध कर्म ही जिसकी नाभि है। वह संसार-रथ इन श्रीकृष्ण के ही अधिकार में है। पाँचों भूतों के आश्रयरूप  श्रीकृष्ण ने ही आकाश की सृष्अि की है। इन्होंने ही पृथ्वी, स्वर्गलोक और अन्तरिक्ष की रचना की है, अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी इन हृषीकेश ने ही वन और पर्वतों को उत्पन्न किया है। इन्हीं वासुदेव ने वज्र का प्रहार करने के लिये उद्यत हुए इन्द्र को मार डालने की इच्छा से कितनी ही सरिताओं को लाँघा और उन्हें परास्त किया था। वे ही महेन्द्ररूप हैं। ब्राह्मण बड़े-बड़े यज्ञों में सहस्त्रों पुरानी ऋचाओं द्वारा एकमात्र इन्हीं की स्तुति करते हैं। राजन् ! इन श्रीकृष्ण के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं हे जो अपने झार में महातेजस्वी दुर्वासा को ठहरा सके। इनको ही अद्वितीय पुरातन ऋषि कहते हैं। ये ही विश्वनिर्माता हैं और अपने स्वरूप से ही अनेक पदार्थों की सृष्टि करते रहते हैं। ये देवताओं के देवता होकर भी वेदों का अध्ययन करते और प्राचीन विधियों का आश्रय लेते हैं। लौकिक और वैदिक कर्म का जो फल है, वह सब श्रीकृष्ण ही हैं, ऐसा विश्वास करो। ये ही सम्पूर्ण लोकों की शुक्लज्योति हैं तथा तीनों लोक, तीनों लोकपाल, त्रिविध अग्नि, तीनों व्याहृतियाँ और सम्पूर्ण देवता भी ये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं। संवत्सर, ऋतु, पच, दिन-रात, कला, काष्ठा, मात्रा, मुहूर्त, लव और क्ष्रण- इन सबको श्रीकृष्ण का ही स्वरूप समझो। पार्थ ! चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, अमावस्या, पौर्णमासी, नक्षत्रयोग तथा ऋतु- इन सबकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से ही हुई है। रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, प्रजापति, देवमाता अदिति और सप्तर्षि - ये सब-के-सब  श्रीकृष्ण से ही प्रकट हुए हैं। ये विश्वरूप श्रीकृष्ण ही वायुरूप धारण करके संसार को चेष्टा प्रदान करते हैं, अग्निरूप होकर सबको भस्म करत हैं, जल का रूप धारण करके जगत् को डुबोते हैं और ब्रह्मा होकर सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। ये स्वयं वेद्यस्वरूप होकर भी वेदवेद्य तत्त्व को जानने का प्रयत्न करते हैं। विधिरूप होकर भी विहित कर्मों का आश्रय लेते हैं। ये ही धर्म, वेद और बल में स्थ्सित हैं। तुम यह विश्वास करो कि सारा चराचर जगत् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। ये विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण परम ज्योतिर्मय सूर्य का रूप धारण करके पूर्व दिशा में प्रकट होते हैं। जिनकी प्रभा से सारा जगत् प्रकाशित होता है। से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन्होंने पूर्वकाल में पहले जल की सृष्टि करके फिर सम्पूर्ण जगत् को उत्पनन किया था। ऋतु, नाना प्रकार के उत्पात, अनेकानेक अद्भ्ुत पदार्थ, मेघ, बिजली, ऐरावत और सम्पूर्ण चराचर जगत् की इन्ही से उत्पत्ति हुई है। तुम इन्हीं को समस्त विश्व का आत्मा - विष्णु समझो। ये विश्व के निवास स्थान और निर्गुण हैं। इन्हीं को वासुदेव, जीवभूत संकर्षण, प्रद्युम्न और चैथा अनिरूद्ध कहते हैं। ये आतमयोनि परमातमास सबको अपनी आज्ञा के अधीन रखते हैं।
 
इन्होंने ही अर्जुन को श्वेत अश्व प्रदान किया था। इन्होंने ही समस्त अश्वों की सृष्टि की थी। ये ही संसाररूपी रथ को बाँधने वाले बन्धन हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण ही इस रथ के चक्र हैं। ऊध्र्व, मध्य और अधः- जिसकी गति है। काल, अदृष्ट, इच्छा और संकल्प- ये चार जिसके घोडत्रे हैं। सफेद, काला और लाल रंग का त्रिविध कर्म ही जिसकी नाभि है। वह संसार-रथ इन श्रीकृष्ण के ही अधिकार में है। पाँचों भूतों के आश्रयरूप  श्रीकृष्ण ने ही आकाश की सृष्अि की है। इन्होंने ही पृथ्वी, स्वर्गलोक और अन्तरिक्ष की रचना की है, अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी इन हृषीकेश ने ही वन और पर्वतों को उत्पन्न किया है। इन्हीं वासुदेव ने वज्र का प्रहार करने के लिये उद्यत हुए इन्द्र को मार डालने की इच्छा से कितनी ही सरिताओं को लाँघा और उन्हें परास्त किया था। वे ही महेन्द्ररूप हैं। ब्राह्मण बड़े-बड़े यज्ञों में सहस्त्रों पुरानी ऋचाओं द्वारा एकमात्र इन्हीं की स्तुति करते हैं। राजन् ! इन श्रीकृष्ण के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं हे जो अपने झार में महातेजस्वी दुर्वासा को ठहरा सके। इनको ही अद्वितीय पुरातन ऋषि कहते हैं। ये ही विश्वनिर्माता हैं और अपने स्वरूप से ही अनेक पदार्थों की सृष्टि करते रहते हैं। ये देवताओं के देवता होकर भी वेदों का अध्ययन करते और प्राचीन विधियों का आश्रय लेते हैं। लौकिक और वैदिक कर्म का जो फल है, वह सब श्रीकृष्ण ही हैं, ऐसा विश्वास करो। ये ही सम्पूर्ण लोकों की शुक्लज्योति हैं तथा तीनों लोक, तीनों लोकपाल, त्रिविध अग्नि, तीनों व्याहृतियाँ और सम्पूर्ण देवता भी ये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं। संवत्सर, ऋतु, पच, दिन-रात, कला, काष्ठा, मात्रा, मुहूर्त, लव और क्ष्रण- इन सबको श्रीकृष्ण का ही स्वरूप समझो। पार्थ ! चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, अमावस्या, पौर्णमासी, नक्षत्रयोग तथा ऋतु- इन सबकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से ही हुई है। रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, प्रजापति, देवमाता अदिति और सप्तर्षि - ये सब-के-सब  श्रीकृष्ण से ही प्रकट हुए हैं। ये विश्वरूप श्रीकृष्ण ही वायुरूप धारण करके संसार को चेष्टा प्रदान करते हैं, अग्निरूप होकर सबको भस्म करत हैं, जल का रूप धारण करके जगत् को डुबोते हैं और ब्रह्मा होकर सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। ये स्वयं वेद्यस्वरूप होकर भी वेदवेद्य तत्त्व को जानने का प्रयत्न करते हैं। विधिरूप होकर भी विहित कर्मों का आश्रय लेते हैं। ये ही धर्म, वेद और बल में स्थ्सित हैं। तुम यह विश्वास करो कि सारा चराचर जगत् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। ये विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण परम ज्योतिर्मय सूर्य का रूप धारण करके पूर्व दिशा में प्रकट होते हैं। जिनकी प्रभा से सारा जगत् प्रकाशित होता है। से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन्होंने पूर्वकाल में पहले जल की सृष्टि करके फिर सम्पूर्ण जगत् को उत्पनन किया था। ऋतु, नाना प्रकार के उत्पात, अनेकानेक अद्भ्ुत पदार्थ, मेघ, बिजली, ऐरावत और सम्पूर्ण चराचर जगत् की इन्ही से उत्पत्ति हुई है। तुम इन्हीं को समस्त विश्व का आत्मा - विष्णु समझो। ये विश्व के निवास स्थान और निर्गुण हैं। इन्हीं को वासुदेव, जीवभूत संकर्षण, प्रद्युम्न और चैथा अनिरूद्ध कहते हैं। ये आतमयोनि परमातमास सबको अपनी आज्ञा के अधीन रखते हैं।

०५:१९, २४ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

अष्टपञ्चाशदधिकशततम (158) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: अष्टपञ्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद

इन्होंने ही अर्जुन को श्वेत अश्व प्रदान किया था। इन्होंने ही समस्त अश्वों की सृष्टि की थी। ये ही संसाररूपी रथ को बाँधने वाले बन्धन हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीन गुण ही इस रथ के चक्र हैं। ऊध्र्व, मध्य और अधः- जिसकी गति है। काल, अदृष्ट, इच्छा और संकल्प- ये चार जिसके घोडत्रे हैं। सफेद, काला और लाल रंग का त्रिविध कर्म ही जिसकी नाभि है। वह संसार-रथ इन श्रीकृष्ण के ही अधिकार में है। पाँचों भूतों के आश्रयरूप श्रीकृष्ण ने ही आकाश की सृष्अि की है। इन्होंने ही पृथ्वी, स्वर्गलोक और अन्तरिक्ष की रचना की है, अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी इन हृषीकेश ने ही वन और पर्वतों को उत्पन्न किया है। इन्हीं वासुदेव ने वज्र का प्रहार करने के लिये उद्यत हुए इन्द्र को मार डालने की इच्छा से कितनी ही सरिताओं को लाँघा और उन्हें परास्त किया था। वे ही महेन्द्ररूप हैं। ब्राह्मण बड़े-बड़े यज्ञों में सहस्त्रों पुरानी ऋचाओं द्वारा एकमात्र इन्हीं की स्तुति करते हैं। राजन् ! इन श्रीकृष्ण के सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं हे जो अपने झार में महातेजस्वी दुर्वासा को ठहरा सके। इनको ही अद्वितीय पुरातन ऋषि कहते हैं। ये ही विश्वनिर्माता हैं और अपने स्वरूप से ही अनेक पदार्थों की सृष्टि करते रहते हैं। ये देवताओं के देवता होकर भी वेदों का अध्ययन करते और प्राचीन विधियों का आश्रय लेते हैं। लौकिक और वैदिक कर्म का जो फल है, वह सब श्रीकृष्ण ही हैं, ऐसा विश्वास करो। ये ही सम्पूर्ण लोकों की शुक्लज्योति हैं तथा तीनों लोक, तीनों लोकपाल, त्रिविध अग्नि, तीनों व्याहृतियाँ और सम्पूर्ण देवता भी ये देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ही हैं। संवत्सर, ऋतु, पच, दिन-रात, कला, काष्ठा, मात्रा, मुहूर्त, लव और क्ष्रण- इन सबको श्रीकृष्ण का ही स्वरूप समझो। पार्थ ! चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, अमावस्या, पौर्णमासी, नक्षत्रयोग तथा ऋतु- इन सबकी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से ही हुई है। रुद्र, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, प्रजापति, देवमाता अदिति और सप्तर्षि - ये सब-के-सब श्रीकृष्ण से ही प्रकट हुए हैं। ये विश्वरूप श्रीकृष्ण ही वायुरूप धारण करके संसार को चेष्टा प्रदान करते हैं, अग्निरूप होकर सबको भस्म करत हैं, जल का रूप धारण करके जगत् को डुबोते हैं और ब्रह्मा होकर सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि करते हैं। ये स्वयं वेद्यस्वरूप होकर भी वेदवेद्य तत्त्व को जानने का प्रयत्न करते हैं। विधिरूप होकर भी विहित कर्मों का आश्रय लेते हैं। ये ही धर्म, वेद और बल में स्थ्सित हैं। तुम यह विश्वास करो कि सारा चराचर जगत् श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। ये विश्वरूपधारी श्रीकृष्ण परम ज्योतिर्मय सूर्य का रूप धारण करके पूर्व दिशा में प्रकट होते हैं। जिनकी प्रभा से सारा जगत् प्रकाशित होता है। से समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन्होंने पूर्वकाल में पहले जल की सृष्टि करके फिर सम्पूर्ण जगत् को उत्पनन किया था। ऋतु, नाना प्रकार के उत्पात, अनेकानेक अद्भ्ुत पदार्थ, मेघ, बिजली, ऐरावत और सम्पूर्ण चराचर जगत् की इन्ही से उत्पत्ति हुई है। तुम इन्हीं को समस्त विश्व का आत्मा - विष्णु समझो। ये विश्व के निवास स्थान और निर्गुण हैं। इन्हीं को वासुदेव, जीवभूत संकर्षण, प्रद्युम्न और चैथा अनिरूद्ध कहते हैं। ये आतमयोनि परमातमास सबको अपनी आज्ञा के अधीन रखते हैं।


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