"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 159 श्लोक 18-35" के अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('==एकोनषष्ट्यपन्चाशदधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासनपर्व...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
==एकोनषष्ट्यपन्चाशदधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==
+
==एकोनषष्ट्यधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनषष्ट्यपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद</div>
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
 
बेटा ! जब कोई भी उनका आदर न कर सका तब मैंने उन्‍हें अपने घर में ठहराया । वे कभी तो एक ही समय इतना अन्‍न भोजन कर लेते थे, जितने से कई हजार मनुष्‍य तृप्‍त हो सकते थे और कभी बहुत थोड़ा अन्‍न खाते तथा घर से निकल जात थे । उस दिन फिर घर को नहीं लौटते थे। व़े अकस्‍मात जोर-जोर से हँसने लगते और अचानक फूट-फूटकर रो पड़ते थे । उस समय इस पृथ्‍वीपर उनका समवयस्क कोई नहीं था। एक दिन अपने ठहरने के स्‍थान पर जाकर वहाँ बिछी हुई शय्‍याओं, बिछौनों और वस्‍त्राभूषणों से अलंकृत हुई कन्‍याओं को उन्‍होंने जलाकर भस्‍म कर दिया और स्‍वयं वहाँ से खिसक गये। फिर तुरंत ही मेरे पास आकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि मुझसे इस प्रकार बोले – ‘कृष्‍ण ! मैं शीघ्र ही खीर खाना चाहता हूँ। मैं उनके मन की बात जानता था, इसलिये घर के लोगों से पहले से ही आज्ञा दे दी थी कि ‘सब प्रकार के उत्तम मध्‍यम अन्‍नपान और भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ आदरपूर्वक तैयार किये जायँ ।‘ मेरे कथनानुसार सभी चीजें तैयार थीं ही, अत: मैंने मुनि को गरमागरम खीर निवेदन किया। उसको थोड़ा-सा ही खाकर वे तुरंत मुझसे बोले – ‘कृष्‍ण ! इस खीर को शीघ्र ही अपने सारे अंगों में पोत लो ‘।<br />
 
बेटा ! जब कोई भी उनका आदर न कर सका तब मैंने उन्‍हें अपने घर में ठहराया । वे कभी तो एक ही समय इतना अन्‍न भोजन कर लेते थे, जितने से कई हजार मनुष्‍य तृप्‍त हो सकते थे और कभी बहुत थोड़ा अन्‍न खाते तथा घर से निकल जात थे । उस दिन फिर घर को नहीं लौटते थे। व़े अकस्‍मात जोर-जोर से हँसने लगते और अचानक फूट-फूटकर रो पड़ते थे । उस समय इस पृथ्‍वीपर उनका समवयस्क कोई नहीं था। एक दिन अपने ठहरने के स्‍थान पर जाकर वहाँ बिछी हुई शय्‍याओं, बिछौनों और वस्‍त्राभूषणों से अलंकृत हुई कन्‍याओं को उन्‍होंने जलाकर भस्‍म कर दिया और स्‍वयं वहाँ से खिसक गये। फिर तुरंत ही मेरे पास आकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि मुझसे इस प्रकार बोले – ‘कृष्‍ण ! मैं शीघ्र ही खीर खाना चाहता हूँ। मैं उनके मन की बात जानता था, इसलिये घर के लोगों से पहले से ही आज्ञा दे दी थी कि ‘सब प्रकार के उत्तम मध्‍यम अन्‍नपान और भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ आदरपूर्वक तैयार किये जायँ ।‘ मेरे कथनानुसार सभी चीजें तैयार थीं ही, अत: मैंने मुनि को गरमागरम खीर निवेदन किया। उसको थोड़ा-सा ही खाकर वे तुरंत मुझसे बोले – ‘कृष्‍ण ! इस खीर को शीघ्र ही अपने सारे अंगों में पोत लो ‘।<br />

०५:१६, २४ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

एकोनषष्ट्यधिकशततम (159) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: एकोनषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद

बेटा ! जब कोई भी उनका आदर न कर सका तब मैंने उन्‍हें अपने घर में ठहराया । वे कभी तो एक ही समय इतना अन्‍न भोजन कर लेते थे, जितने से कई हजार मनुष्‍य तृप्‍त हो सकते थे और कभी बहुत थोड़ा अन्‍न खाते तथा घर से निकल जात थे । उस दिन फिर घर को नहीं लौटते थे। व़े अकस्‍मात जोर-जोर से हँसने लगते और अचानक फूट-फूटकर रो पड़ते थे । उस समय इस पृथ्‍वीपर उनका समवयस्क कोई नहीं था। एक दिन अपने ठहरने के स्‍थान पर जाकर वहाँ बिछी हुई शय्‍याओं, बिछौनों और वस्‍त्राभूषणों से अलंकृत हुई कन्‍याओं को उन्‍होंने जलाकर भस्‍म कर दिया और स्‍वयं वहाँ से खिसक गये। फिर तुरंत ही मेरे पास आकर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले मुनि मुझसे इस प्रकार बोले – ‘कृष्‍ण ! मैं शीघ्र ही खीर खाना चाहता हूँ। मैं उनके मन की बात जानता था, इसलिये घर के लोगों से पहले से ही आज्ञा दे दी थी कि ‘सब प्रकार के उत्तम मध्‍यम अन्‍नपान और भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ आदरपूर्वक तैयार किये जायँ ।‘ मेरे कथनानुसार सभी चीजें तैयार थीं ही, अत: मैंने मुनि को गरमागरम खीर निवेदन किया। उसको थोड़ा-सा ही खाकर वे तुरंत मुझसे बोले – ‘कृष्‍ण ! इस खीर को शीघ्र ही अपने सारे अंगों में पोत लो ‘।
मैंने बिना विचारे ही उनकी इस आज्ञा का पालन किया । वही जूठी खीर मैंने अपने सिर पर तथा अन्‍य सारे अंगों में पोत ली। इतने ही में उन्‍होंने देखा कि तुम्‍हारी सुमुखी माता पास ही खड़ी-खड़ी मुसकरा रही हैं । मुनि की आज्ञा पाकर मैंने मुसकराती हुई तुम्‍हारी माता के अंगों में भी खीर लपेट दी। जिसके सारे अंगों में खीर लिपटी हुई थी, उस महारानी रूक्मिणी को मुनि ने तुरंत रथ में जोत दिया और उसी रथ पर बैठकर वे मेरे घर से निकले। वे बुद्धिमान ब्राह्मण दुर्वासा अपने तेज से अग्नि के समान प्रकाशि हो रहे थे । उन्‍होंने मेरे देखते-देखते जैसे रथ के घोड़ों पर कोड़े चलाये जाते हैं, उसी प्रकार भोली-भाली रूक्मिणी का भी चाबुक से चोट पहुँचाना आरम्‍भ किया। उस समय मेरे मन में थोड़ा-सा भी ईर्ष्‍याजनित दुख नहीं हुआ । इसी अवस्‍था में वे महल से बाहर आकर विशाल राजमार्ग से चलने लगे। यह महान आश्‍चर्य की बात देखकर दशार्हवंशी यादवों को बड़ा क्रोध हुआ ।
उनमें से कुछ लोग वहाँ आपस में इस प्रकार बातें करने लगे – ‘भाइयों ! इस संसार में ब्राह्मण ही पैदा हों, दूसरा कोई वर्ण किसी तरह पैदा न हो । अन्‍यथा यहाँ इन बाबाजी के सिवा और कौन पुरूष इस रथ पर बैठकर जीवित रह सकता था। ‘कहते हैं – विषैले साँपों का विष बड़ा तीखा होता है, परंतु ब्राह्मण उससे भी अधिक तीक्ष्‍ण होता है । जो ब्राह्मणरूपी विषधर सर्प से जलाया गया हो, उसके लिये इस संसार में कोई चिकित्‍सक नहीं है’। उन दुर्धर्ष दुर्वासा के इस प्रकार रथ से यात्रा करते समय बेचारी रूक्मिणी रास्‍ते में लड़खड़ाकर गिर पड़ी, परंतु श्रीमान दुर्वासा मुनि इस बात को सहन न कर सके । उन्‍होंने तुरंत उसे चाबुक से हाँकना शुरू किया। जब वह बारंबार लड़खड़ाने लगी, तब वे और भी कुपित हो उठे और रथ से कूदकर बिना रास्‍ते के ही दक्षिण दिशा की ओर पैदल ही भागने लगे ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।