महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 19 श्लोक 16-38

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एकोनविंश (19) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 16-38 का हिन्दी अनुवाद

वदान्य उवाच वदान्यने कहा- वत्स! तुम कुबेरकी अलकापुरीको लांघकर जब हिमालय पर्वतको भी लांघ जाओगे तब तुम्हें सिद्धों और चरणोंसे सेवित रूद्रके निवासस्थान कैलास पर्वतका दर्शन होगा। वहां नाना प्रकारके मुखवाले भांति-भांतिके दिव्य अंगराग लगाये अनेकानेक पिशाच तथा अन्य भूत-वैताल आदि भगवान शिवके पार्षदगण हर्ष और उल्लासमें भरकर नाच रहे होंगे। वे करताल और सुन्दर ताल बजाकर शम्पा ताल देते हुए समभावसे हर्षविभोर हो जोर-जोरसे नृत्य करते हुए वहां भगवान शंकरकी सेवा करते है। उस पर्वतका वह दिव्य स्थान भगवानशंकरको बहुत प्रिय है। यह बात हमारे सुननेमें आयी है। वहां महादेवजी तथा उनके पार्षद नित्य निवास करते है। वहां देवी पार्वतीने भगवानशंकरकी प्राप्ति के लिये अत्यन्त दुष्कर तपस्या की थी, इसीलिये वह स्थान भगवान शिव और पार्वतीको अधिक प्रिय है, ऐसा सुना जाता है। महादेवजीके पूर्व तथा उत्‍तर भागमें महापाश्व नामक पर्वत है, जहां ऋतु, कालरात्रि तथा दिव्य और मानुषभाव सब-के-सब मूर्तिमान् होकर महादेवजीकी उपासना करते हैं। उस स्थानको लांघकर तुम आगे बढ़ते ही चले जाना। तदनन्तर तुम्हें मेघोंकी घटाके समान नीला एक वन्य प्रवेश दिखायी देगा। वह बड़ा ही मनोरम और रमणीय है। उस वनमें तुम एक स्त्रीको देखोगे जो तपस्विनी, महान् सौभाग्यवती, वृद्धा और दीक्षापरायण है। तुम यत्नपूर्वक वहां उसका दर्शन और पूजन करना। उसे देखकर लौटनेपर ही तुम मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण कर सकोगे। यदि यह सारी शर्त स्वीकार हो तो इसे पूरी करनेमें लग जाओं और अभी वहांकी यात्रा आरम्भ कर दो। अष्टावक्र उवाच अष्टावक्र बोले-ऐसा ही होगा, मैं यह शर्त पूरी करूंगा। श्रेष्ठ पुरूष! आप जहां कहते हैं वहां अवश्य जाउंगा। आपकी वाणी सत्य हो। भीष्मजी कहते हैं-राजन्!तदनन्तर भगवान अष्टावक्र उतरोतर दिशाकी ओर चल दिये। सिद्धों और चरणोंसे सेवित गिरिश्रेष्ठ महापर्वत हिमालयपर पहुंचकर वे श्रेष्ठ द्विज धर्मसे शोभा पानेवाली पुण्यमयी बाहुदा नदीके तटपर गये। वहां निर्मल अशोक तीर्थंमें स्नान करके देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् उन्होंने कुशकी चटाईपर सुखपूर्वक निवास किया।

तदनन्तर रात बीतनेपर वे द्विज प्रातःकाल उठे और उन्होंने स्नान करके अग्निवेदको प्रज्वलित किया। फिर मुख्य-मुख्य वैदिक मन्त्रोंसे अग्निदेवकी स्तुति करके ’रूद्राणी रूद्र’ नामक तीर्थमें गये और वहां सरोवरके तटपर कुछ कालतक विश्राम करते रहे। विश्राम के पश्चात् उठकर वे कैलासकी ओर चल दिये। कुछ दूर जानेपर उन्होंने कुबेरकी अलकापुरीका सुवर्णमय द्वार देखा, जो दिव्य दीतिप्तसे देदीप्यमान हो रहा था। वहीं महात्मा कुबेरकी कमलपुष्पोंसे सुशोभित एक बावड़ी देखी, जो गंगाजीके जलसे परिपूर्ण होनेके कारण मन्दाकिनी नामसे विख्यात थी। वहां जो उस पद्यपूर्ण पुष्करिणीकी रक्षा कर रहे थे, वे सब मणिभद्र आदि राक्षस भगवान अष्टावक्रको देखकर उनके स्वागतके लिये उठकर खड़े हो गये।। मुनिने भी उन भयंकर पराक्रमी राक्षसोंके प्रति सम्मान प्रकट किया और कहा-’आपलोग शीघ्र ही धनपति कुबेरको मेरे आगमनकी सूचना दे दें’।राजन्! वे राक्षस वैसा करके भगवान अष्टावक्रसे बोले-’प्रभो! राजा कुबेर स्वयं ही आपके निकट पधार रहे। ’आपका आगमन और इस आगमनका जो उदश्य है, वह सब कुछ कुबेरको पहलेसे ही ज्ञात है। देखिये, ये महाभारत धनाध्यक्ष अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए आ रहे हैं’। तदनन्तर विश्रवाके पुत्र कुबेरने निकट आकर निन्दारहित ब्रहमार्षि अष्टावक्रसे विधिपूर्वक कुशल-समाचार पूछते हुए कहा-’ब्रहमान्! आप सुखपूर्वक यहां आये हैं न ? बताइये मुझसे किस कार्यकी सिद्धि चाहते हैं ? आप मुझसे जो-जो कहेगे, वह सब पूर्ण करूंगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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