महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-19

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एकविंश (21) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दान धर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अष्टावक्र और उत्‍तर दिशा का संवाद, अष्टावक्र का अपने घर लौटकर वदान्य ऋषि की कन्या के साथ विवाह करना।

युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! वह स्त्री उन महातेजस्वी ऋषि के शाप से डरती कैसे नहीं थी; और वे भगवान अष्टावक्र किस तरह वहां से लौटे थे? यह सब मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा- राजन! सुनो, अष्टावक्र ने उस स्त्री से पूछा,तुम अपना रूप बदलती क्यों रहती हो? बताओ, यदि मुझ-जैसे ब्रहामण से सम्मान पाने की इच्छा हो तो झूठ न बोलना। स्त्री बोली- ब्राहामणशिरोमणे! स्वर्गलोक हो या मृत्युलोक, जिस किसी भी स्थान में स्त्री और पुरुष निवास करते हैं, वहां उनमें परस्पर संयोग की यह कामना सदा बनी रहती है। सत्यपराक्रमी विप्र! यह सब जो रूप परिवर्तन की लीला की गयी है, उसका कारण बताती हूं, सावधान होकर सुनिये। निर्दोष ब्राहमण! आपको दृढ़ करने के लिये आपकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से ही मैंने यह कार्य किया है। सत्यपराक्रमी द्विज! आपने अपने धर्म से विचलित न होकर समस्त पुण्यलोकों को जीत लिया है। आप मुझे उत्‍तर दिशा समझें। स्त्री में कितनी चपलता होती है- यह आपने प्रत्यक्ष देखा है। बूढ़ी स्त्रियों को भी मैथुन के लिये होने वाला काम जनित संताप कष्ट देता है। जो कहीं भी विश्वास न करने के कारण किसी व्यसन में नहीं फंसता, कहीं भी अधिक आसक्त नहीं होता, परदेश में नहीं रहता तथा जो विद्वान और सुशील है, वही पुरुष स्त्री के साथ रहकर सुख भोगता है। आज आपके ऊपर ब्रहमा जी तथा इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता संतुष्ट हैं। भगवन द्विजश्रेष्ठ! आप यहां जिस कार्य से आये हैं, वह सफल हो गया। उस कन्या के पिता वदान्य ऋषि ने मेरे पास आपको उपदेश देने के लिये भेजा था। वह सब मैने कर दिया। विप्रवर! अब आप कुशलपूर्वक अपने घर को जायेंगे और मार्ग में आपको कोई श्रम अथवा कष्ट नहीं होगा। उस मनोनीत कन्या को आप प्राप्त कर लेंगे और आपके द्वारा वह पुत्रवती भी होगी ही। आपने जानने की इच्छा से मुझसे यह बात पूछी थी, इसलिये मैंने अच्छे ढंगसे सब कुछ बता दिया। तीनों लोकों के सम्पूर्ण निवासियों के लिये भी ब्राहामण की आज्ञा कदापि उल्लंघनीय नहीं होती। ब्रहमर्षि अष्टावक्र! आप पुण्य का उपार्जन करके जाइये। और क्या सुनना चाहते हैं? कहिये, मैं वह सब कुछ यथार्थ रूप से बताऊँगी।द्विजश्रेष्ट! वदान्य मुनि ने आपके लिये मुझे प्रसन्न किया था; अतः उनके सम्मान के लिये ही मैंने ये सारी बातें कही हैं। भीष्मजी कहते हैं-भारत! उस स्त्री की बात सुनकर विप्रवर अष्टावक्र उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर उसकी आज्ञा ले पुनः अपने घर को लौट आये। कुरूनन्दन! घर आकर उन्होंने विश्राम किया और स्वजनों से पूछकर वे न्यायानुसार फिर ब्राहमण वदान्य के घर गये। ब्राहमण ने उनकी यात्रा के विषय में पूछा, तब उन्होंने प्रसन्नचित से जो कुछ वहां देखा था, सब बताना आरम्भ किया। महर्षे! आपकी आज्ञा पाकर मैं उत्‍तर दिषाओं गन्ध- मादन पर्वत की ओर चल दिया। उससे भी उत्‍तर जाने पर मुझे एक महती देवी का दर्शन हुआ। उसने मेरी परीक्षा ली और आपका भी परिचय दिया। प्रभो! फिर उसने अपनी बात सुनायी और उसकी आज्ञा लेकर मैं अपने घर आ गया। तब ब्राहमण वदान्य ने कहा- आप उत्तम नक्षत्र में विधिपूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण कीजिये; क्योंकि आप अत्यन्त सुयोग्य पात्र हैं। भीष्मजी कहते हैं-प्रभो! तदनन्तर तथास्तु कहकर परम धर्मात्मा अष्टावक्र ने उस कन्या का पाणिग्रहण किया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उस परम सुन्दरी कन्या का पत्नी रूप में दान पाकर अष्टावक्र मुनि की सारी चिन्ता दूर हो गयी और वे अपने आश्रम में उसके साथ आनन्दपूर्वक रहने लगा।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दान धर्म पर्व में अष्टावक्र और उत्‍तर दिशा का संवाद विषयक इक्कीसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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