"महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 116-130" के अवतरणों में अंतर

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महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 116-130
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उस समय [[पाण्डव|पाण्डवों]] की वह बढ़ी- चढ़ी समृद्धि, सम्पत्ति देखकर [[दुर्योधन]] के मन में ईर्ष्‍या जनित महान रोष एवं दुःख का उदय हुआ। उस अवसर पर मयदान ने पाण्डवों को एक सभा भवन भेंट में दिया था, जिसकी रूप- रेखा विमान के समान थी। वह भवन उसके शिल्प कौशल का एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधन को और अधिक संताप हुआ। उसी सभा भवन में जब सम्भ्रम (जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम) होने के कारण दुर्योधन के पाँव फिसलने से लगे, तब भगवान [[श्रीकृष्ण]] के सामने ही [[भीम|भीमसेन]] ने उसे गँवार सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी। दुर्योधन नाना प्रकार के भोग तथा भाँति-भाँति के रत्नो का उपयोग करते रहने पर भी दिनों- दिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियों ने महाराज [[धृतराष्ट्र]] को दी। धृतराष्ट्र अपने उस पुत्र के प्रति अधिक आसक्त थे, अतः उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवों के साथ जुआ खेलने की आज्ञा दे दी। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्र पर बड़ा क्रोध आया। यद्यपि उनके मन में कलह की सम्भावना के कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, यथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादों का अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकार के भयंकर अन्याय, द्यूत आदि को देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी। (इस अनुमोदन या उपेक्षा का कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओं का संहार चहाते थे।) अतः उन्हें विश्वास था कि इस विग्रह जनित महान युद्ध में [[विदुर]], [[भीष्म]],, [[द्रोणाचार्य]] तथा [[कृपाचार्य]] की अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक दूसरे को अपनी क्रोधाग्रि में भस्म कर डालेंगे। जब युद्ध में पाण्डवों की जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर  तथा दुर्योधन, [[कर्ण]] और [[शकुनि]] के दुराग्रह पूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देर तक चिन्ता में पड़े रहे। फिर उन्होंने संजय से कहा-‘संजय ! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाश के लिये तुम मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान, मेधावी, बुद्धिमान और पण्डित के लिये भी आदरणीय हो। इस युद्ध में मेरी सम्मति बिल्कुल नहीं थी और यह जो हमारे कुल का विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है। मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवों में कोई भेद नहीं था। किन्तु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मुझ पर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे। मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनता के कारण और कुछ पुत्रों के प्रति अधिक आसक्ति होने से भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्द बुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुखी हो जाता था। राजपूत यज्ञ में महापराक्रमी [[पाण्डु]] पुत्र [[युधिष्ठिर]] की सर्वोपरि समृद्धि, सम्पत्ति देखकर तथा सभा भवन की सीढि़यों पर चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पाण्डवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्ध के लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परन्तु पाण्डवों की उस उत्तम सम्पत्ति को हथियाने के लिये उसने गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का ही निश्चय किया। संजय ! इस प्रकार जुआ खेलने का निश्चय हो जाने पर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समय पर विजय की आशा के विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो। सूतनन्दन ! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनों को सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ। संजय ! जब मैंने सुना कि अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरती पर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओं के सामने, जब कि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक [[द्रौपदी]] को ले आया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। संजय ! तब मैंने सुना कि अर्जुन ने द्वारका में मधुवंश की राजकुमारी (और श्रीकृष्ण की बहिन) [[सुभद्रा]] का बलपूर्वक हरण कर लिया और श्री कृष्ण एवं [[बलराम]] (इस घटना का विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्त में आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाह के समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुन ने उसे अपने दिव्य बाणों से रोक दिया तथा [[अग्नि|अग्नि देव]] को तृप्त किया, संजय ! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि लाक्षाभवन से अपनी माता सहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थ सिद्धि के प्रयत्न में तत्पर हैं। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि रंगभूमि में लक्ष्य- बेध करके अर्जुन ने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं। संजय ! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी।
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पति प्रिया [[कुन्‍ती]] ने पति से सब के धर्म-रहस्‍य की बातें सुनकर पुत्र पाने की इच्‍छा से मन्‍त्र जाप पूर्वक स्‍तुति द्वारा धर्म, [[वायु]] और [[इन्‍द्र]] देवता का आवाहन किया। कुन्‍ती के उपदेश देने पर माद्री भी उस मन्‍त्र विद्या को जान गयी और उसने संतान के लिये दोनों [[अश्विनी |अश्विनी कुमारों]] का आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओं से पाण्‍डवों की उत्‍पत्ति हुई।
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पाँचों पाण्‍डव अपनी दोनों माताओं द्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनों में और महात्‍माओं के परम पुण्‍य आश्रमों में ही तपस्‍वी लोगों के साथ दिनों- दिन बढ़ने लगे। (पाण्‍डु की मृत्‍यु होने के पश्‍चात) बड़े-बड़े ऋषि मुनि स्‍वयं ही [[पाण्‍डव|पाण्‍डवों]] को लेकर [[धृतराष्‍ट्र]] एवं उनके पुत्रों के पास आये। उस समय पाण्‍डव नन्‍हे नन्‍हे शिशु के रूप में बड़े ही सुन्‍दर लगते थे। वे सिर पर जटा धारण किये ब्रह्मचारी के वेश में थे। ऋषियों ने वहाँ जाकर [[धृतराष्‍ट्र]] एवं उनके पुत्रों से कहा- ‘ये तुम्‍हारे पुत्र, भाई, [[शिष्‍य और सुहृद]] हैं। ये सभी महाराज [[पाण्‍डु]] के ही पुत्र हैं। इतना कहकर वे मुनि वहाँ से अंर्तधान हो गये। ऋषियों द्वारा लाये हुए उन पाण्‍डवों को देखकर सभी [[कौरव]] और नगर निवासी, शिष्‍ट  तथा वर्णाश्रमी हर्ष से भरकर अत्‍यन्‍त कोलाहल करने लगे। कोई कहते, ’ये पाण्‍डु के पुत्र नहीं हैं।‘ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्‍हीं के हैं।‘ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्‍डु को मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं? फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्‍वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्‍य की बात है कि आज हम महाराज पाण्‍डु की संतान को अपनी आँखों से देख रहे हैं।‘ फिर तो सब ओर से स्‍वागत बोलने वालों की ही बातें सुनायी देने लगीं।
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दर्शकों का वह तुमुल शब्‍द बंद होने पर सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करती हुई अद्दश्‍य भूतों-देवताओं की यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी-‘ये पाण्‍डव ही हैं’। जिस समय पाण्‍डवों ने नगर में प्रवेश किया, उसी समय फूलों की वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्‍ध छा गयी तथा शंख और दुन्‍दुभियों के मांगलिक शब्‍द सुनायी देने लगे। यह एक अदभुत चमत्‍कारी सी बात हुई। सभी नागरिक पाण्‍डवों के प्रेम से आनन्‍द में भरकर ऊँचे स्‍वर से अभिनन्‍दन ध्‍वनि करने लगे। उनका वह महान शब्‍द स्‍वर्गलोक तक गूँज उठा जो पाण्‍डवों की कीर्ति बढ़ाने वाला था। वे सम्‍पूर्ण [[वेद]] एवं विविध शास्‍त्रों का अध्‍ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्‍हें किसी से भय नहीं था। राष्‍ट्र की सम्‍पूर्ण प्रजा  के शौचाचार, भीमसेन की धृति, अर्जुन के विक्रम तथा [[नकुल]] [[सहदेव]] की गुरू शुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनय से बहुत ही प्रसन्‍न होती थी। सब लोग पाण्‍डवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे
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तदनन्‍तर कुछ काल के पश्‍चात राजाओं के समुदाय में [[अर्जुन]] ने अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम करके स्‍वयं ही पति चुनने वाली द्रुपद कन्‍या कृष्‍णा को प्राप्‍त किया। तभी से वे इस लोक में सम्‍पूर्ण धर्नुधारियों के पूज्यनीय (आदरणीय) हो गये; और समरांगण में प्रचण्‍ड मार्तण्‍ड की भाँति प्रतापी अर्जुन की ओर किसी के लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया।
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उन्‍होंने पृथक-पृथक तथा महान संघ बनाकर आये हुए सब राजाओं को जीतकर महाराज युधिष्ठिर के [[राजसूय]] नामक सहायज्ञ को सम्‍पन्‍न कराया।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१०:०६, १८ जुलाई २०१५ का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 116-130

पति प्रिया कुन्‍ती ने पति से सब के धर्म-रहस्‍य की बातें सुनकर पुत्र पाने की इच्‍छा से मन्‍त्र जाप पूर्वक स्‍तुति द्वारा धर्म, वायु और इन्‍द्र देवता का आवाहन किया। कुन्‍ती के उपदेश देने पर माद्री भी उस मन्‍त्र विद्या को जान गयी और उसने संतान के लिये दोनों अश्विनी कुमारों का आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओं से पाण्‍डवों की उत्‍पत्ति हुई।

पाँचों पाण्‍डव अपनी दोनों माताओं द्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनों में और महात्‍माओं के परम पुण्‍य आश्रमों में ही तपस्‍वी लोगों के साथ दिनों- दिन बढ़ने लगे। (पाण्‍डु की मृत्‍यु होने के पश्‍चात) बड़े-बड़े ऋषि मुनि स्‍वयं ही पाण्‍डवों को लेकर धृतराष्‍ट्र एवं उनके पुत्रों के पास आये। उस समय पाण्‍डव नन्‍हे नन्‍हे शिशु के रूप में बड़े ही सुन्‍दर लगते थे। वे सिर पर जटा धारण किये ब्रह्मचारी के वेश में थे। ऋषियों ने वहाँ जाकर धृतराष्‍ट्र एवं उनके पुत्रों से कहा- ‘ये तुम्‍हारे पुत्र, भाई, शिष्‍य और सुहृद हैं। ये सभी महाराज पाण्‍डु के ही पुत्र हैं। इतना कहकर वे मुनि वहाँ से अंर्तधान हो गये। ऋषियों द्वारा लाये हुए उन पाण्‍डवों को देखकर सभी कौरव और नगर निवासी, शिष्‍ट तथा वर्णाश्रमी हर्ष से भरकर अत्‍यन्‍त कोलाहल करने लगे। कोई कहते, ’ये पाण्‍डु के पुत्र नहीं हैं।‘ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्‍हीं के हैं।‘ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्‍डु को मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं? फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्‍वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्‍य की बात है कि आज हम महाराज पाण्‍डु की संतान को अपनी आँखों से देख रहे हैं।‘ फिर तो सब ओर से स्‍वागत बोलने वालों की ही बातें सुनायी देने लगीं।

दर्शकों का वह तुमुल शब्‍द बंद होने पर सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करती हुई अद्दश्‍य भूतों-देवताओं की यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी-‘ये पाण्‍डव ही हैं’। जिस समय पाण्‍डवों ने नगर में प्रवेश किया, उसी समय फूलों की वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्‍ध छा गयी तथा शंख और दुन्‍दुभियों के मांगलिक शब्‍द सुनायी देने लगे। यह एक अदभुत चमत्‍कारी सी बात हुई। सभी नागरिक पाण्‍डवों के प्रेम से आनन्‍द में भरकर ऊँचे स्‍वर से अभिनन्‍दन ध्‍वनि करने लगे। उनका वह महान शब्‍द स्‍वर्गलोक तक गूँज उठा जो पाण्‍डवों की कीर्ति बढ़ाने वाला था। वे सम्‍पूर्ण वेद एवं विविध शास्‍त्रों का अध्‍ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्‍हें किसी से भय नहीं था। राष्‍ट्र की सम्‍पूर्ण प्रजा के शौचाचार, भीमसेन की धृति, अर्जुन के विक्रम तथा नकुल सहदेव की गुरू शुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनय से बहुत ही प्रसन्‍न होती थी। सब लोग पाण्‍डवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे

तदनन्‍तर कुछ काल के पश्‍चात राजाओं के समुदाय में अर्जुन ने अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम करके स्‍वयं ही पति चुनने वाली द्रुपद कन्‍या कृष्‍णा को प्राप्‍त किया। तभी से वे इस लोक में सम्‍पूर्ण धर्नुधारियों के पूज्यनीय (आदरणीय) हो गये; और समरांगण में प्रचण्‍ड मार्तण्‍ड की भाँति प्रतापी अर्जुन की ओर किसी के लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया। उन्‍होंने पृथक-पृथक तथा महान संघ बनाकर आये हुए सब राजाओं को जीतकर महाराज युधिष्ठिर के राजसूय नामक सहायज्ञ को सम्‍पन्‍न कराया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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