"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 14-29" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ तैंतीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योगपर्व: एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 23- 45 का हिन्दी अनुवाद</div>
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तू तिन्दुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए प्रज्वलित हो उठ (थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर), परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वालारहित आग के समान केवल धुआँ न कर (मंद पराक्रम से काम न ले )। दो घड़ी भी प्रज्वलित रहना अच्छा, परंतु दीर्घकाल तक धुआँ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं । किसी भी राजा के घर में अत्यंत कठोर अथवा अत्यंत कोमल स्वभाव के पुरुष का जन्म न हो।  वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निंदा नहीं कराता है। विद्वान पुरुष को अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या ना हो, वह उसके लिए शोक नहीं करता । वह (अपनी पूरी शक्ति के अनुसार) प्राणपर्यंत निरंतर चेष्टा करता है और अपने लिए धन की इच्छा नहीं करता। बेटा ! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए निश्चित है, अन्यथा किसलिए जी रहा है ? कायर ! तेरे इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गयी और भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, अब तू किसलिए जी रहा है ? मनुष्य डूबते समय अथवा ऊंचे से नीचे गिरते समय भी शत्रु की टांग अवश्य पकड़े और ऐसा करते समय यदि अपना मूलोच्छेद हो जाये तो भी किसी प्रकार विषाद न करे । अच्छी जाति के घोड़े न तो थकते हैं और न शिथिल ही होते हैं । उनके इस कार्य को स्मरण करके अपने ऊपर रखे हुए युद्ध आदि के भार को उद्योगपूर्वक वहन करे।  बेटा ! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर । अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। जिसके महान् और अद्भुत पुरुषार्थ एवं चरित्र की सब लोग चर्चा नहीं करते हैं, वह मनुष्य अपने द्वारा जनसंख्या की वृद्धि मात्र करनेवाला है । मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न पुरुष ही है।
  
दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है।तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है । जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बितानेवाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। संजय ! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करनेवाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करनेवाला है । जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जनम दिया है। संसार की कोई भी नारी ऐसे पुत्र को जन्म न दे , जो अमर्षशून्य, उत्साहहीन, बल और पराक्रम से रहित तथा शत्रुओं का आनंद बढ़ानेवाला हो। अरे ! धूम की तरह न उठ । ज़ोर-ज़ोर से प्रज्वलित हो जा और वेगपूर्वक आक्रमण करके शत्रुसैनिकों का संहार कर डाल । तू एक मुहूर्त या एक क्षण के लिए भी वैरियों के मस्तक पर जलती हुई आग बनकर छा जा। जिस क्षत्रिय के हृदय में अमर्ष है और जो शत्रुओं के प्रति क्षमाभाव धारण नहीं करता, इतने ही गुणों के कारण वह पुरुष कहलाता है । जो क्षमाशील और अमर्षशून्य है, वह क्षत्रिय न तो स्त्री है और न पुरुष ही कहलाने योग्य है। संतोष, दया, उद्योगशून्यता और भय – ये संपत्ति का नाश करनेवाले हैं । निश्चेष्ट मनुष्य कभी कोई महत्वपूर्ण पद नहीं पा सकता। पराजय के कारण जो लोक में तेरी निंदा और तिरस्कार हो रहे हैं, इन सब दोषों से तू स्वयं ही अपने आपको मुक्त कर और अपने हृदय को लोहे के समान दृढ़ बनाकर पुन: अपने योग्य पद ( राज्यवैभव ) का अनुसंधान कर। जो पर अर्थात शत्रु का सामना करके उसके वेग को सह लेता है, वही उस पुरुषार्थ के कारण पुरुष कहलाता है । जो इस जगत् में स्त्री की भाँति भीरुतापूर्ण जीवन बिताता है, उसका ‘पुरुष’ नाम व्यर्थ कहा गया है। यदि बढ़े हुए तेज और उत्साहवाला, शूरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी राजा युद्ध में दैववश वीरगति को प्राप्त हो जाये तो भी उसके राज्य में प्रजा सुखी ही रहती है। जो अपने प्रिय और सुख का परित्याग करके संपत्ति का अन्वेषन करता है, वह शीघ्र ही अपने मंत्रियों का हर्ष बढ़ाता है।
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दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है।तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है । जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बितानेवाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। संजय ! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करनेवाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करनेवाला है । जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जनम दिया है।  
 
 
पुत्र बोला – माँ ! यदि तू मुझे न देखे तो यह सारी पृथ्वी मिल जाने पर भी तुझे क्या सुख मिलेगा ? मेरे न रहने पर तुझे आभूषणों की भी क्या आवश्यकता होगी ? भाँति-भाँति के भोगों और जीवन से भी तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?
 
 
 
विदुला बोली – बेटा ! आज क्या भोजन होगा ? इस प्रकार की चिंता में पड़े हुए दरिद्रों के जो लोक हैं, वे हमारे शत्रुओं को प्राप्त हों और सर्वत्र सम्मानित होनेवाले पुण्यात्मा पुरुषों के जो लोक हैं, उनमें हमारे हितैषी सुहृद पधारें ॥ संजय ! भृत्यहीन, दूसरों के अन्न पर जीने वाले, दीन-दुर्बल मनुष्यों की वृत्ति का अनुसरण न कर। तात ! जैसे सब प्राणियों की जीविका मेघ के अधीन है तथा जैसे सब देवता इन्द्र के आश्रित होकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण तथा हितैषी सुहृद तेरे सहारे जीवन-निर्वाह करें ॥42॥ संजय ! पके फलवाले वृक्ष के समान जिस पुरुष का आश्रय लेकर सब प्राणी जीविका चलाते हैं, उसी का जीवन सार्थक है। जैसे इन्द्र के पराक्रम से सब देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार जिस शूरवीर पुरुष के बल और पुरुषार्थ से उसके भाई-बंधु सुखपूर्वक उन्नति करते हैं, इस संसार में उसी का जीवन श्रेष्ठ है। जो मनुष्य अपने बाहुबल का आश्रय लेकर उत्कृष्ट जीवन व्यतीत करता है, वही इस लोक में उत्तम कीर्ति और परलोक में शुभ गति को पाता है।
 
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
 
 
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 133 श्लोक 1- 22|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 134 श्लोक 1-22}}
 
  
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-13|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 133 श्लोक 30-45}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
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१५:११, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

त्रयस्त्रिंशदधिकशततम (133) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद

तू तिन्दुक की जलती हुई लकड़ी के समान दो घड़ी के लिए प्रज्वलित हो उठ (थोड़ी देर के लिए ही सही, शत्रु के सामने महान पराक्रम प्रकट कर), परंतु जीने की इच्छा से भूसी की ज्वालारहित आग के समान केवल धुआँ न कर (मंद पराक्रम से काम न ले )। दो घड़ी भी प्रज्वलित रहना अच्छा, परंतु दीर्घकाल तक धुआँ छोड़ते हुए सुलगना अच्छा नहीं । किसी भी राजा के घर में अत्यंत कठोर अथवा अत्यंत कोमल स्वभाव के पुरुष का जन्म न हो। वीर पुरुष युद्ध में जाकर यथाशक्ति उत्तम पुरुषार्थ प्रकट करके धर्म के ऋण से उऋण होता है और अपनी निंदा नहीं कराता है। विद्वान पुरुष को अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या ना हो, वह उसके लिए शोक नहीं करता । वह (अपनी पूरी शक्ति के अनुसार) प्राणपर्यंत निरंतर चेष्टा करता है और अपने लिए धन की इच्छा नहीं करता। बेटा ! धर्म को आगे रखकर या तो पराक्रम प्रकट कर अथवा उस गति को प्राप्त हो जा, जो समस्त प्राणियों के लिए निश्चित है, अन्यथा किसलिए जी रहा है ? कायर ! तेरे इष्ट और आपूर्त कर्म नष्ट हो गए, सारी कीर्ति धूल में मिल गयी और भोग का मूल साधन राज्य भी छिन गया, अब तू किसलिए जी रहा है ? मनुष्य डूबते समय अथवा ऊंचे से नीचे गिरते समय भी शत्रु की टांग अवश्य पकड़े और ऐसा करते समय यदि अपना मूलोच्छेद हो जाये तो भी किसी प्रकार विषाद न करे । अच्छी जाति के घोड़े न तो थकते हैं और न शिथिल ही होते हैं । उनके इस कार्य को स्मरण करके अपने ऊपर रखे हुए युद्ध आदि के भार को उद्योगपूर्वक वहन करे। बेटा ! तू धैर्य और स्वाभिमान का अवलंबन कर । अपने पुरुषार्थ को जान और तेरे कारण डूबे हुए इस वंश का तू स्वयं ही उद्धार कर। जिसके महान् और अद्भुत पुरुषार्थ एवं चरित्र की सब लोग चर्चा नहीं करते हैं, वह मनुष्य अपने द्वारा जनसंख्या की वृद्धि मात्र करनेवाला है । मेरी दृष्टि में न तो वह स्त्री है और न पुरुष ही है।

दान, तपस्या, सत्यभाषण, विद्या तथा धनोपार्जन में जिसके सुयश का सर्वत्र बखान नहीं होता है, वह मनुष्य अपनी माता का पुत्र नहीं, मलमूत्र मात्र ही है। जो शास्त्रज्ञान, तपस्या, धन-संपति अथवा पराक्रम के द्वारा दूसरे लोगों को पराजित कर देता है, वह उसी श्रेष्ठ कर्म के द्वारा पुरुष कहलाता है।तुझे हिजड़ों, कापालिकों, क्रूर मनुष्यों तथा कायरों के लिए उचित भिक्षा आदि निंदनीय वृत्ति का आश्रय कभी नहीं लेना चाहिए, क्योंकि वह अपयश फैलाने वाली और दु:खदायिनी होती है । जिस दुर्बल मनुष्य का शत्रुपक्ष के लोग अभिनंदन करते हों, जो सब लोगों के द्वारा अपमानित होता हो, जिसके आसन और वस्त्र निकृष्ट श्रेणी के हों, जो थोड़े लाभ से ही संतुष्ट होकर विस्मय प्रकट करता हो, जो सब प्रकार से हीन, क्षुद्र जीवन बितानेवाला और ओछे स्वभाव का हो, ऐसे बंधु को पाकर उसके भाई-बंधु सुखी नहीं होते। तेरी कायरता के कारण हम लोग इस राज्य से निर्वासित होने पर सम्पूर्ण मनोवांछित सुखों से हीन, स्थानभ्रष्ट और अकिंचन हो जीविका के अभाव में ही मर जाएँगे। संजय ! तू सत्पुरुषों के बीच में अशोभन कार्य करनेवाला है, कुल और वंश की प्रतिष्ठा का नाश करनेवाला है । जान पड़ता है, तेरे रूप में पुत्र के नाम पर मैंने कलि-पुरुष को ही जनम दिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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