"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 135 श्लोक 17-29" के अवतरणों में अंतर

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==एक सौ पैंतीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम  अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योगपर्व: एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय: श्लोक 25- 40 का हिन्दी अनुवाद </div>
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विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना। बुद्धिमान पुरुष इस जगत् में अत्यंत अल्पमात्रा में अप्रिय कि इच्छा करता है । लोक में जिसका प्रिय अल्प होता है, उसका अप्रिय भी निश्चय ही अल्प होगा।  प्रिय के अभाव में मनुष्य को शोभा नहीं होती है । जैसे गंगा समुद्र में जाकर विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार वह अभावग्रस्त पुरुष भी निश्चय ही लुप्त हो जाता है। पुत्र ने कहा – माँ ! तुझे अपने मुख से ऐसा विचार नहीं व्यक्त करना चाहिए, अत: तू जड़ और मुक की भांति होकर मुझ अपने पुत्र को विशेष रूप से करुणापूर्ण दृष्टि से ही देखो। माता बोली -  तेरे इस कथन से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है । तू इस प्रकार विचार तो करता है । मुझे मेरे कर्तव्य ( पुत्र पर दयादृष्टि करने ) की प्रेरणा दे रहा है, इसलिए मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्तव्य सुझा रहीं हूँ। जब तू सिंधुदेश के समस्त योद्धाओं को मारकर आयेगा, उस समय मैं तेरा स्वागत करूंगी । मुझे विश्वास है कि बड़े कष्ट से प्राप्त होनेवाली तेरी विजय मैं अवश्य देखूँगी। पुत्र बोला – माँ ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करने वाले सैनिक ही हैं, फिर मुझे विजयरूप अभीष्ट की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी ? अपनी इस दारुण अवस्था के विषय में स्वयं ही विचार करके मैंने राज्य की ओर से अपना अनुराग उसी प्रकार दूर हटा लिया है, जैसे स्वर्ग की ओर से पापी का भाव हट जाता है । क्या तू ऐसा कोई उपाय देख रही है, जिससे मैं विजय पा सकूँ। परिपक्व बुद्धि वाली माँ ! मेरे इस प्रश्न के अनुसार तू कोई उत्तम उपाय बता दे । मैं तेरे सम्पूर्ण आदेशों का यथोचित रीति से पालन करूँगा।
विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना।
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माता बोली -  बेटा ! पहले की सम्पत्ति नष्ट हो गई है – यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुन: प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं, अत: बुद्धिहीन पुरुषों को ईर्ष्यावश ही धन की प्राप्ति के लिए कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए। तात ! सभी कर्मों के फल में सदा अनित्यता रहती है– कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है । इस अनित्यता को जानते हुए भी बुद्धिमान पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी असफल भी हो जाते हैं। परंतु जो कर्मों का आरंभ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्ट की सिद्धि में सफल नहीं होते, अत: कर्मों को छोड़कर निश्चेष्ट बैठने का यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्यों को कभी अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति नहीं हो सकती । परंतु कर्मों में उत्साहपूर्वक लगे रहनेपर तो दोनों प्रकार के परिणामों कि संभावना रहती है– कर्मों का वांछनीय फल प्राप्त भी हो सकता है और नहीं भी। राजकुमार ! जिसे पहले से ही सभी पदार्थों की अनित्यता का ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रु कि उन्नति और अपनी अवनति से प्राप्त हुए दु:ख का विचार द्वारा निवारण कर सकता है। सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर निरंतर विषादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले कर्मों में लग जाना चाहिए।
  
माता बोली -  बेटा ! पहले की सम्पत्ति नष्ट हो गई है – यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुन: प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं, अत: बुद्धिहीन पुरुषों को ईर्ष्यावश ही धन की प्राप्ति के लिए कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए। तात ! सभी कर्मों के फल में सदा अनित्यता रहती है– कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है । इस अनित्यता को जानते हुए भी बुद्धिमान् पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी असफल भी हो जाते हैं। परंतु जो कर्मों का आरंभ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्ट की सिद्धि में सफल नहीं होते, अत: कर्मों को छोड़कर निश्चेष्ट बैठने का यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्यों को कभी अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति नहीं हो सकती । परंतु कर्मों में उत्साहपूर्वक लगे रहनेपर तो दोनों प्रकार के परिणामों कि संभावना रहती है– कर्मों का वांछनीय फल प्राप्त भी हो सकता है और नहीं भी। राजकुमार ! जिसे पहले से ही सभी पदार्थों की अनित्यता का ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रु कि उन्नति और अपनी अवनति से प्राप्त हुए दु:ख का विचार द्वारा निवारण कर सकता है। सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर निरंतर विषादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले कर्मों में लग जाना चाहिए। वत्स ! देवताओं सहित ब्राह्मणों का पूजन तथा अन्यान्य मांगलिक कार्य सम्पन्न करके प्रत्येक कार्य का आरंभ करनेवाले बुद्धिमान राजा की शीघ्र उन्नति होती है । जैसे सूर्य अवश्य ही पूर्व दिशा का आश्रय ले उसे प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार राजलक्ष्मी पूर्वोक्त राजा को सब ओर से प्राप्त होकर उसे यश एवं तेज से सम्पन्न कर देती है।  बेटा ! मैंने तुझे अनेक प्रकार के दृष्टांत, बहुत से उपाय और कितने ही उत्साहजनक वचन सुनाये हैं । लोक-वृतांत का भी बारंबार दिग्दर्शन कराया है । अब तू पुरुषार्थ कर । मैं तेरा पराक्रम देखूँगी। तुझे यहाँ अभीष्ट पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिए । जो लोग सिंधुराज पर कुपित हों, जिनके मन में धन का लोभ हो, जो सिंधुनरेश के आक्रमण से सर्वथा क्षीण हो गए हों, जिन्हें अपने बल और पौरुष पर गर्व हो तथा जो तेरे शत्रुओं द्वारा अपमानित हों उनसे बदला लेने के लिए होड़ लगाए बैठे हों, उन सबको तू सावधान होकर दान-मान के द्वारा अपने पक्ष में कर ले । इस प्रकार तू बड़े-से-बड़े समुदाय को फोड़ लेगा । ठीक उसी तरह, जैसे महान वेगशाली वायु वेगपूर्वक उठकर बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। तू उन्हें अग्रिम वेतन दे दिया कर । प्रतिदिन प्रात:काल सोकर उठ जा और सबके साथ प्रिय वचन बोल। ऐसा करने से वे अवश्य तेरा प्रिय करेंगे और निश्चय ही तुझे अपना अगुआ बना लेंगे। शत्रु को ज्यों ही यह मालूम हो जाता है कि उसका विपक्षी प्राणों का मोह छोड़कर युद्ध करने के लिए तैयार है, तभी घर में रहने वाले सर्प की भाँति उसके भय से वह उद्विग्न हो उठता है। यदि शत्रु को पराक्राम संपन्न जानकर अपनी असमर्थता के कारण वश में न कर सकें तो उसे विश्वसनीय दूतों द्वारा साम एवं दान नीति का प्रयोग करके अनुकूल बना ले (जिससे वह आक्रमण न करके शांत बैठा रहे) । ऐसा करने से अंततोगत्वा उसका वशीकरण हो जाएगा। इस प्रकार शत्रु को शांत कर देने से निर्भय आश्रय प्राप्त होता है । उसे प्राप्त कर लेने पर युद्ध आदि में न फँसने के कारण अपने धन कि वृद्धि होती है। फिर धनसंपन्न राजा का बहुत से मित्र आश्रय लेते और उसकी सेवा करते हैं। इसके विपरीत जिसका धन नष्ट हो गया है, उसके मित्र और भाई-बंधु भी उसे त्याग देते हैं । उस पर विश्वास नहीं करते हैं तथा उसके जैसे लोगों कि निंदा भी करते हैं ॥ जो शत्रु को सहायक बनाकर उसका विश्वास करता है, वह राज्य प्राप्त कर लेगा, इसकी कभी संभावना ही नहीं करनी चाहिए।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-16|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 135 श्लोक 30-40}}
 
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में विदुला का अपने पुत्र को उपदेश विषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
 
 
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 135 श्लोक 1-24|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 136 श्लोक 1- 22}}
 
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योगपर्व]]
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११:५५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: पञ्चत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद

विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध के लिए उद्यत होना। बुद्धिमान पुरुष इस जगत् में अत्यंत अल्पमात्रा में अप्रिय कि इच्छा करता है । लोक में जिसका प्रिय अल्प होता है, उसका अप्रिय भी निश्चय ही अल्प होगा। प्रिय के अभाव में मनुष्य को शोभा नहीं होती है । जैसे गंगा समुद्र में जाकर विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार वह अभावग्रस्त पुरुष भी निश्चय ही लुप्त हो जाता है। पुत्र ने कहा – माँ ! तुझे अपने मुख से ऐसा विचार नहीं व्यक्त करना चाहिए, अत: तू जड़ और मुक की भांति होकर मुझ अपने पुत्र को विशेष रूप से करुणापूर्ण दृष्टि से ही देखो। माता बोली - तेरे इस कथन से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है । तू इस प्रकार विचार तो करता है । मुझे मेरे कर्तव्य ( पुत्र पर दयादृष्टि करने ) की प्रेरणा दे रहा है, इसलिए मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्तव्य सुझा रहीं हूँ। जब तू सिंधुदेश के समस्त योद्धाओं को मारकर आयेगा, उस समय मैं तेरा स्वागत करूंगी । मुझे विश्वास है कि बड़े कष्ट से प्राप्त होनेवाली तेरी विजय मैं अवश्य देखूँगी। पुत्र बोला – माँ ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करने वाले सैनिक ही हैं, फिर मुझे विजयरूप अभीष्ट की सिद्धि कैसे प्राप्त होगी ? अपनी इस दारुण अवस्था के विषय में स्वयं ही विचार करके मैंने राज्य की ओर से अपना अनुराग उसी प्रकार दूर हटा लिया है, जैसे स्वर्ग की ओर से पापी का भाव हट जाता है । क्या तू ऐसा कोई उपाय देख रही है, जिससे मैं विजय पा सकूँ। परिपक्व बुद्धि वाली माँ ! मेरे इस प्रश्न के अनुसार तू कोई उत्तम उपाय बता दे । मैं तेरे सम्पूर्ण आदेशों का यथोचित रीति से पालन करूँगा। माता बोली - बेटा ! पहले की सम्पत्ति नष्ट हो गई है – यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुन: प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं, अत: बुद्धिहीन पुरुषों को ईर्ष्यावश ही धन की प्राप्ति के लिए कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए। तात ! सभी कर्मों के फल में सदा अनित्यता रहती है– कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है । इस अनित्यता को जानते हुए भी बुद्धिमान पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी असफल भी हो जाते हैं। परंतु जो कर्मों का आरंभ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्ट की सिद्धि में सफल नहीं होते, अत: कर्मों को छोड़कर निश्चेष्ट बैठने का यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्यों को कभी अभीष्ट मनोरथ की प्राप्ति नहीं हो सकती । परंतु कर्मों में उत्साहपूर्वक लगे रहनेपर तो दोनों प्रकार के परिणामों कि संभावना रहती है– कर्मों का वांछनीय फल प्राप्त भी हो सकता है और नहीं भी। राजकुमार ! जिसे पहले से ही सभी पदार्थों की अनित्यता का ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रु कि उन्नति और अपनी अवनति से प्राप्त हुए दु:ख का विचार द्वारा निवारण कर सकता है। सफलता होगी ही, ऐसा मन में दृढ़ विश्वास लेकर निरंतर विषादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले कर्मों में लग जाना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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